Friday, May 29, 2015

कुछ बातें जो एकदम यूँ ही सी नहीं...




क्रान्ति का निश्‍चय ही एक काव्‍यात्‍मक पहलू होता है, लेकिन क्रान्ति कभी भी पूरीतरह कविता नहीं होती। वह जिन्‍दगी का सघन-सान्‍द्र रूप होती है। कभी वह सपाट पठारों की तो कभी बीहड़ पर्वतों-घाटियों की यात्रा जैसी होती है। क्रान्तिकारी जीवन में रोज़ तूफानी उड़ानों का रोमांच नहीं होता। ऐसे तूफानों की लम्‍बी तैयारी एक लम्‍बे श्रमसाध्‍य कालखण्‍ड की माँग करती है, काफी हद तक मज़दूरों की जिन्‍दगी जैसी। क्रान्तिकारी जीवन में ठहराव, मंथर गति और विफलता का भी बार-बार सामना करना पड़ता है।
अतिशय रूमानियत से भरे युवा क्रान्तिकारी जीवन से कविता जैसे ''निष्‍कलुष'' ''स्‍वर्गीय'' सुंदरता और सतत आवेग की अपेक्षा पालकर आते हैं। उनकी आँखों के सामने क्रान्तिकारियों और क्रांतिकारी कहानियों-उपन्‍यासों के नायकों के जीवन के रूमानी और नायकत्‍व वाले पहलू नाचते रहते हैं। उनकी चयनात्‍मक दृष्टि मनोगतवादी होती है। ऐसे युवा विज्ञान को आत्‍मसात करने के बजाय नायकों की आराधना करने लगते हैं। उनके अवचेतन में स्‍वयं वैसा ही नायक बनने की आकांक्षा छिपी रहती है। प्राय: ऐसे युवक और युवती क्रान्तिकारी जीवन में अपनी 'जेनी', 'क्रुप्‍स्‍काया', या अपने 'मार्क्‍स', 'लेनिन' की भी तलाश करते रहते हैं और विफल होने पर निराश हो जाते हैं। क्रान्ति से उनका मन उचट जाता है। मध्‍यवर्गीय रुमानियत के शिकार लोग एक झोंक में कठिन जीवन भी बिता लेते हैं और शहादत के जज्‍़बे के साथ कुछ साहसिक कामों को भी अंजाम दे डालते हैं, लेकिन अन्‍ततोगत्‍वा वे थकान, अवसाद, बोरियत और निराशा के शिकार हो जाते हैं। ऐसी रुमानियत अक्‍सर पुराने अराजकतावादी मध्‍यवर्गीय क्रान्तिकारियों के जीवन-दर्शन का अंग हुआ करती थी, लेकिन सर्वहारा क्रान्तिकारी के जीवन-दर्शन में इसका कोई स्‍थान नहीं हो सकता।
सर्वहारा क्रान्तिकारी वही हो सकता है, जो सर्वहारा वर्ग के जीवन, मुक्ति के लक्ष्‍य और संघर्ष को पूरी तरह से आत्‍मसात कर ले, क्रान्ति को तौरे-जिन्‍दगी बना ले, क्रान्ति में भागीदारी  की उसके मन में कोई पूर्वशर्त या पूर्वापेक्षा न हो। क्रान्तिकारी के लिए 'स्‍व' से संघर्ष युद्ध का एक बेहद कठिन मोर्चा है। अपने नायकों के सिद्धान्‍तों को जानना-समझना हमारे लिए सर्वोपरि महत्‍व रखता है। बेशक उनके जीवन के प्रेरणादायी पहलुओं से हम प्रेरणा भी लेते हैं, पर हमारे लिए लेनिन की पालतू बिल्‍ली, स्‍तालिन की पाइप, माओ की चेन-स्‍मोकिंग या चे के सिगार का कोई महत्‍व नहीं हो सकता। उनके निजी जीवन के हर पहलू से मोहाविष्‍ट होना ज़रूरी नहीं। वे अवतार नहीं, हाड़-मांस से बने मनुष्‍य थे जो देश-काल विशेष में रहते थे और जिनकी कुछ विशिष्‍ट निजी आदतें भी थीं। हम सभी मनुष्‍य हैं और हमारी भी अपनी कुछ निजी मौलिक आदतें हो सकती हैं। पर नकल हर मायने में फूहड़ चीज़ होती है। न तो किसी 'कल्‍ट' का अनुसरण करना चाहिए, न ही 'कल्‍ट' का निर्माण किया जाना चाहिए।

--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

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