संस्कृति-अरण्य में 2015
(संस्कृति के महारथियों के घृणायोग्य एक उद्दण्ड, वाचाल, असभ्य कविता)
'बर्बरता की इस आँधी में
तबाह होने वाली बस्तियाँ तो फिर बस जायेंगी,
संस्कृति का क्या होगा?' -- बेहद चिन्तित-परेशान
शुतुर्मुर्गों ने आहें भरीं
और कलात्मक रेत में अपने सिर धँसा लिए।
'हमें तेज़ आवाज़ में नहीं बोलना चाहिए,
शान्ति कपोत डर जायेंगे,
कविता में नारेबाजी आ जायेगी' -- निरीहता
और चुप्पी की सुन्दरता और महत्व के बारे में
विमर्श करते मेंढकों ने सुझाव दिया।
कछुए बेहद दुखी और खिन्न थे
वे वॉन गॉग और डाली की पेण्टिंग्स में
सौन्दर्य का संधान करने लगे।
उदास, अन्यमनस्क घोंघे
सूफी संगीत सुनने लगे।
'हमें एक आवेदन-पत्र लिखना होगा
और हवा जब कुछ शान्त हो
तो एक मोमबत्ती जुलूस निकालना होगा'
-- नेकदिल फ़ाख़्ताओं ने सुझाव दिया
गाँधी-नेहरू वांगमय और संविधान और कानून की
किताबों से भरी आलमारियों पर फुदकते हुए।
छिपकलियाँ तब संस्कृति भवन की दीवारों पर थीं
और उल्लू सोशल मीडिया के कोटर में।
तोते सभागार में गम्भीर विचारोत्तेजक व्याख्यान देने के बाद
घर जा रहे थे तेजी से उड़ते हुए क्योंकि काफी देर हो चुकी थी,
संगोष्ठी बहुत देर तक चल गयी थी।
संस्कृति की दुनिया में जब भयावह चीज़ों को शालीन नाम दिये जा रहे थे,
और विचारधारा को विमर्श से विस्थापित किया जा रहा था
ठीक उसीसमय पिछले युद्धों के घायल बाज
नयी उड़ानों के लिए डैनों का बल तोल रहे थे।
जिन्हें हरदम अविश्वास रहा इतिहास की गति पर
वे इसबार और अधिक अविश्वास और उपहास भरी नज़र से
उन्हें देख रहे थे,
भुनभुन-भिनभिन कुछ बोल रहे थे।
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