Sunday, February 15, 2015

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं!


-- कविता कृष्‍णपल्लवी

छद्म वामपंथी साहित्‍य-धुरंधरों की बेशर्मी और अवसरवाद की अवरोही यात्रा लगातार जारी है।
साहित्यिक-सांस्‍कृतिक दायरे में ''लोकतांत्रिक संवाद'' के थोथे-बोदे तर्क देते हुए जो लोग फासिस्‍ट हिंदुत्‍ववादियों की सत्‍ता की सेवा में राग दरबारी प्रस्‍तुत करने रायपुर और बनारस गये हुए थे, उनमें से कई जयपुर साहित्‍य महोत्‍सव में भी पहुँचे(जो नहीं गये, वे भी उसमें भागीदारी के पक्ष में लिख-बोल रहे हैं)। जगदीश्‍वर चतुर्वेदी तर्क दे रहे हैं कि यह कांफ्रेंस, गोष्‍ठी या परिसंवाद नहीं, ब‍ल्‍िक मेला है और हमारे यहाँ मेला संस्‍कृति बहुत पुरानी है। मेलों में अामोद-प्रमोद, भजन-कीर्तन, व्‍यवसाय -- सबकुछ होता है।
इन विद्वान चिन्‍तक महोदय का फरेब देखिये। बेशक भारत में मेलों की एक पुरातन लोक-परम्‍परा रही है। पर ये मेले सत्‍ताधारी राजे-महाराजे नहीं लगवाया करते थे। ये जनता की सामूहिकता और सांस्‍कृतिक अभिव्‍यक्ति के उत्‍सव हुआ करते थे। प्राय: उन मेलों में स्‍वांग होते थे, जिनमें विदूषक कुलीनों का मज़ाक उड़ाया करते थे। राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के दौर में इन मेलों में कांग्रेस किसान सभा और कम्‍युनिस्‍टों के मंच लगते थे। टूटती-ढहती यह परम्‍परा आज भी कई जगह बची हुई है। ब‍लि‍या के प्रसिद्ध ददरी मेले में भारतेन्‍दु ने अपना वह प्रसिद्ध भाषण दिया था, जो 'भारतवर्षोन्‍नति कैसे हो सकती है' नामक लेख के रूप में कभी पाठ्यपुस्‍तकों में पढ़ने को मिलता था।
जनता के उत्‍सव और मेले उसके अपने स्‍वतंत्र मंच और माध्‍यम होते रहे हैं। जनांदोलनों के दौरान इनके स्‍वरूप बदलते रहे हैं और नये-नये उत्‍सव भी जन्‍म लेते रहे हैं। धार्मिक रूप में ही सही, लेकिन तिलक द्वारा गणेशोत्‍सव को लोकप्रिय रूप में स्‍थापित करने का मन्‍तव्‍य राष्‍ट्रीय चेतना पैदा करना था। यूरोप में धार्मिक त्‍योहारों के अतिरिक्‍त कई सेक्‍युलर किस्‍म के उत्‍सव और मेले भी होते हैं। लातिन अमेरिका में कार्निवालों की परम्‍परा एक लोक परम्‍परा रही है, जिनमें सत्‍तातंत्र की कोई दखलंदाजी नहीं होती। प्राय: इन कार्निवालों को सांस्‍कृतिक मुक्ति के साथ ही राजनीतिक प्रतिरोधी स्‍वरों की अभिव्‍यक्ति का भी मंच बनाया जाता रहा है, खासकर क्रांतिकारी उभार के दिनों में।
जयपुर साहित्‍य महोत्‍सव को मेलों से जोड़ना मेलों की लोकधर्मी परम्‍परा का अपमान है। यह दरबारी उत्‍सवों की परम्‍परा का पूँजीवादी विस्‍तार मात्र है। यह नवउदारवादी भूमण्‍डलीय जश्‍न का ही एक रूप है जहाँ कुलीन महामहिमों का पत्‍तल चाटने कुछ छद्म वामपंथी मसखरे भी जा पहुँचे हैं। सिनेमाई दुनिया के बुद्धिजीवियों का स्‍वांग रचने वाले कुछ जोकर और कुछ घोर जनविरोधी, सतही अंग्रेजी लेखक-पत्रकार-''विचारक'' वी.आई.पी. के रूप में वहाँ विराजमान हैं। और हिन्‍दी सहित भारतीय भाषाओं के लेखकों की स्थिति मंदिर के बाहर बैठे भिखमंगों से अधिक कुछ नहीं है।
जगदीश्‍वर चतुर्वेदी जिसे मेलों की लोक परम्‍परा से जोड़ रहे हैं, उसका उदघाटन जयपुर के भव्‍य दिग्‍गी पैलेस में भाजपा की घोर तानाशाह मुख्‍यमंत्री वसुंधरा राजे और भाजपाई भोंपू 'जी मीडिया ग्रुप' के मालिक ने किया। 'जी मीडिया ग्रुप' ही इस ''मेले'' का मुख्‍य स्‍पांसर है। इसी ''मेले'' की एक गोष्‍ठी में मोदी सरकार द्वारा नवगठित नीति आयोग के उपाध्‍यक्ष (नवउदारवाद के प्रचण्‍ड पक्षधर अर्थशास्‍त्री) अरविन्‍द पानगढि़या ने मुख्‍यमंत्री वसुंधरा राजे की इस बात के लिए भूरि-भूरि प्रशंसा की कि उन्‍होंने केन्‍द्र में प्रस्‍तावित नवउदारवादी श्रम सुधारों से पहले ही राजस्‍थान में ऐसे सुधार करके न सिर्फ पूरे देश को राह दिखायी है, ब‍ल्‍िक राजस्‍थान को 'बीमारू प्रदेशों' की सू‍ची से बाहर ला दिया है (यह दावा तथ्‍यत: सरासर ग़लत है)। नीति आयोग के अन्‍य पूर्णका‍लि‍क सदस्‍य विवेक देबरॉय ने भी पानगढि़या की राय से पूर्ण सहमति प्रकट की।
छत्‍तीसगढ़ के साहित्‍य समागम में इस विषय पर भी विचार हुआ था कि नक्‍सलवाद से कैसे निपटा जाये! वहाँ गये किसी भी सूरमा ने राजकीय आतंकवाद, माओवाद से लड़ने के नाम पर आदिवासियों के बर्बर उत्‍पीड़न और उन्‍हें उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़कर कारपोरेट घरानों को उपकृ‍त करने के सवाल पर चूँ तक नहीं किया। अब जयपुर में साहित्‍य मेला की आड़ में नवउदारवादी नीतियों और वसुंधरा राजे के घोर दमनकारी शासन के लिए बौद्धिक समुदाय की सहमति का छद्म रचा जा रहा है। बनारस में ज्ञानेन्‍द्रपति, विमल कुमार, हरिश्‍चन्‍द्र पाण्‍डेय जैसे लोग मोदी द्वारा उदघाटित समारोह में अपने बचाव के थोथे-बोदे तर्कों के साथ पहले ही शिरकत कर आये थे। क्‍या यह प्रकारान्‍तर से यह सन्‍देश देना नहीं है कि 'बहुत हुआ, अब गुजरात-2002 को भूल जाना चाहिए।' लेकिन गुजरात-2002 को भुलाकर भी क्‍या लोग हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍टों के मौजूदा कुचक्रों की भावी परिणतियों से बच सकते हैं?
बुनियादी सवाल यह है कि सत्‍ता प्रायोजित आयोजनों में ये कथित वामपंथी जाते ही क्‍यों हैं? कुछ पद-पुरस्‍कार की उम्‍मीदों, कुछ दारू और मस्‍ती, कुछ ''पब्‍िलक रिलेशंस'' के फायदों और चन्‍द चाँदी के सिक्‍कों के अतिरि‍क्‍त इनको और मिलता क्‍या है? ये पतित लोग रोजी-रोटी की मजबूरी में तो जाते नहीं (वह तो इनके पास प्रोफेसरी, अफसरी या अख़बरनवीसी के रूप में है ही)!  न ही ऐसे आयोजनों में आम जनता या आम पाठकों से रिश्‍ता बनाने जाते हैं (इसके तो दूसरे सैकड़ों रास्‍ते हैं)। ऐसे आयोजनों में आम जनता होती भी कहाँ है? और फिर दूसरी बात यह है कि क्‍या आम जनता से सम्‍पर्क के नाम पर आप मोदी, राहुल या मुलायम सिंह की जनसभाओं में जायेंगे? वैसे सैफेई महोत्‍सव में जाकर केदारनाथ सिंह द्वारा मुलायम सिंह के कसीदे पढ़ना, भाजपाई भोंपू 'दैनिक जागरण' के आयोजन में वीरेन्‍द्र यादव का जाना और दूधनाथ सिंह का अखिलेश सरकार से 'यश भारती' सम्‍मान लेना भी जायज़ नही़ ठहराया जा सकता। सवाल यह है कि क्‍या इन सबके बिना इन सबका काम नहीं चल सकता था? इससे क्‍या इनके सा‍हित्‍य के पाठक बढ़ गये या हिन्‍दी साहित्‍य का कुछ भला हो गया?
चन्‍द सिक्‍कों और थोड़े नाम के लालच में सत्‍ताधारियों की 'वर्चस्‍व की राजनीति' के मोहरे बनने वाले इन छद्म वामपंथियों को लगता है कि अब तो ऐसे ही ''वामपंथ'' का ज़माना हरदम चलता रहेगा, क्रांतिकारी संघर्षों का ठहराव-बिखराव ऐसे ही बना रहेगा, इस‍िलए धंधा पानी करने में किसी भी हद से गुज़र जाने को ये लोग तैयार हो गये हैं। इनकी आँखों का पानी मर गया है। दूसरे, अवसरवाद का घटाटोप इतना अधिक है कि लगता है कि हम्‍माम में जब सभी नंगे हैं तो किसको कौन नंगा कहेगा। इसी‍लि‍ए, यह पूरी जमात न सिर्फ इतिहास-विवेक और जनपक्षधर संवेदना से शून्‍य हो गयी है ब‍ल्‍िक सारी शर्मों-हया को घोलकर पी गयी है।

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