-- कविता कृष्णपल्लवी
कहा जाता है दु:ख बाँटने से हल्का होता है। जो हरदम अपना निजी दु:ख बाँटकर जी हल्का करते रहते हैं, वे बहुत कमजोर व्यक्तित्व के लोग होते हैं। उनमें अपने निजी दु:खों का बोझ सँभाल पाने - झेल पाने की कूव्वत और माद्दा नहीं होती। ऐसे लोग ज़माने के दु:खों के साथ तदनुभूति की क्षमता नहीं हासिल कर पाते। वे आत्मग्रस्त होते हैं और आत्मकातर भी। हमदर्दीखोरी भी हरामखोरी से कम बुरी चीज़ नहीं होती। कुछ लोग अपनी कविताओं में या सोशल मीडिया पर भी अपने निजी दु:खों, उदासियों, तनहाइयों वगैरह का खोमचा सजाकर बैठ जाते हैं। ऐसे लोग आत्मकेन्द्रित तो होते ही हैं, प्राय: सामाजिक सरोकारों का दिखावा करते हुए भी उनसे रिक्त होते हैं।
अपने निजी दु:खों-त्रासदियों के बोझ को तो हर खुद्दार और संजीदा इंसान स्वयं ही लेकर चलता है। दु:ख और त्रासदियाँ तो उदात्त और काव्यात्मक जीवन का हिस्सा होती हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि अपने निजी दु:खों का बोझ ढोते रहने में ही अपने को खपा न दिया जाये। यह भी व्यक्तित्व की कमज़ोरी और आत्मग्रस्तता ही होगी। जो निजी दु:ख किसी मानवीय त्रासदी या इत्तफ़ाक़ के चलते हमारे मत्थे आ जाते हैं, उन्हें तो अपने ही स्तर पर झेलकर व्यक्तित्व का इस्पातीकरण और उदात्तीकरण किया जाना चाहिए। जिन दु:खों के कारण सामाजिक हों, उनका आलोचनात्मक विवेक के साथ विश्लेषण किया जाना चाहिए, उनका सामान्यीकरण किया जाना चाहिए, उन्हें ज्ञानात्मक संवेदन और फिर संवेदनात्मक ज्ञान के रूप में ढाला जाना चाहिए। फिर सामाजिक कारणों से उत्पन्न उस दु:ख की शिकार बहुसंख्या के साथ जुड़कर उस दु:ख से मुक्ति के सामूहिक उद्यम में भागीदारी में अपने जीवन की सार्थकता का संधान किया जाना चाहिए।
अलगाव (एलियनेशन) का शिकार विघटित व्यक्तित्व वाला, बुर्जुआ समाज का औसत नागरिक निजी त्रासदियों और 'चांस' से टूट पड़े दु:खों को ही नहीं, बल्कि सामाजिक कारणों से पैदा हुए दु:खों को भी नितान्त अतार्किक ढंग से एकदम निजी स्तर पर जीता है। वह तर्क और वैज्ञानिक विश्लेषण से रिक्त होता है। सामाजिक जीवन और उत्पादक गतिविधियों से कटाव के चलते उसे जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति और समाज-परिवर्तन के सचेतन उपक्रमों में भरोसा नहीं होता। जन समुदाय उसके लिए अमूर्त प्रत्यय होता है और इतिहास पढ़कर भी वह इतिहास-बोध नहीं हासिल कर पाता। जनता और विज्ञान से कटकर ऐसा आत्मग्रस्त व्यक्ति दुर्बलमना और कायर हो जाता है। वह बस अपने ही दु:खों में घुलता-छीजता रहता है, अपने पर दया करता रहता है, अपने क़रीबी लोगों से भी यही चाहता है और ऐसा नहीं होने पर अमूर्त मनोगत शिक़ायतों-झुँझलाहटों से भरा रहता है। आश्चर्य नहीं कि आज के रुग्ण और सांस्कृतिक-आत्मिक रूप से दिवालिया बुर्जुआ समाज में अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। डॉक्टर इस रोग के शिकार व्यक्ति को दवाओं के सहारे बस ताउम्र नॉर्मल बनाये रखने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसा रोगी वास्तव में स्वस्थमानस तभी हो सकता है, जब वह अपनी मानसिक व्याधि के सामाजिक कारणों को विश्लेषण करके समझ सके और अपनी पूरी संकल्पशक्ति जुटाकर जनता के बीच जाये तथा सामाजिक सरगर्मियों में ख़ुद को दिलो-जान से झोंक दे।
अक्सर कई वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी डिप्रेशन का शिकार होते और आत्महत्या तक करते सुना गया है। यह उन्हीं के साथ होता है जो मध्यवर्गीय रूमानी भावुकता के साथ क्रांति करने तो आ जाते हैं, लेकिन लम्बा समय गुजरने के बाद भी क्रांति के विज्ञान को नहीं समझ पाते, जनता की इतिहास निर्मात्री शक्ति को नहीं जान पाते, अवचेतन रूप से क्रांति के नायकों का (जिनमें वे स्वयं को भी शामिल मानते हैं) कारनामा मानते हैं और हार-जीत से भरी एक विश्व-ऐतिहासिक प्रक्रिया की जगह उसे यांत्रिक ढंग से तयशुदा एक समयबद्ध लक्ष्य मानते हैं। पराजय, विचलन, विपर्यय और विघटन के दौर ऐसे लोगों के आशावाद और रोमानी यूटोपियाई आदर्शों को चूर-चूर कर देते हैं और तब ऐसे लोग निराशा और फिर अवसाद की अतल गहराइयों में डूबते चले जाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि और इतिहास-बोध को लगातार मजबूत बनाते हुए, जनता की जिन्दगी और संघर्षों से लगातार अटूट और गहरा रिश्ता बनाने की कोशिश करते हुए, तथा, अपने सहयोद्धा साथियों के साथ विश्वास और कामरेडशिप के बाण्ड को लगातार दृढ़ से दृढ़तर बनाते हुए ही एक क्रांतिकारी निराशा और अवसाद के प्रेतों से लड़ सकता है, साहस, ताजगी, ऊर्जस्विता और सृजनशीलता के अक्षय स्रोतों से अपना रिश्ता बनाये रख सकता है, तथा, शोक को शक्ति में बदलने का जादुई हुनर हासिल कर सकता है।
कहा जाता है दु:ख बाँटने से हल्का होता है। जो हरदम अपना निजी दु:ख बाँटकर जी हल्का करते रहते हैं, वे बहुत कमजोर व्यक्तित्व के लोग होते हैं। उनमें अपने निजी दु:खों का बोझ सँभाल पाने - झेल पाने की कूव्वत और माद्दा नहीं होती। ऐसे लोग ज़माने के दु:खों के साथ तदनुभूति की क्षमता नहीं हासिल कर पाते। वे आत्मग्रस्त होते हैं और आत्मकातर भी। हमदर्दीखोरी भी हरामखोरी से कम बुरी चीज़ नहीं होती। कुछ लोग अपनी कविताओं में या सोशल मीडिया पर भी अपने निजी दु:खों, उदासियों, तनहाइयों वगैरह का खोमचा सजाकर बैठ जाते हैं। ऐसे लोग आत्मकेन्द्रित तो होते ही हैं, प्राय: सामाजिक सरोकारों का दिखावा करते हुए भी उनसे रिक्त होते हैं।
अपने निजी दु:खों-त्रासदियों के बोझ को तो हर खुद्दार और संजीदा इंसान स्वयं ही लेकर चलता है। दु:ख और त्रासदियाँ तो उदात्त और काव्यात्मक जीवन का हिस्सा होती हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि अपने निजी दु:खों का बोझ ढोते रहने में ही अपने को खपा न दिया जाये। यह भी व्यक्तित्व की कमज़ोरी और आत्मग्रस्तता ही होगी। जो निजी दु:ख किसी मानवीय त्रासदी या इत्तफ़ाक़ के चलते हमारे मत्थे आ जाते हैं, उन्हें तो अपने ही स्तर पर झेलकर व्यक्तित्व का इस्पातीकरण और उदात्तीकरण किया जाना चाहिए। जिन दु:खों के कारण सामाजिक हों, उनका आलोचनात्मक विवेक के साथ विश्लेषण किया जाना चाहिए, उनका सामान्यीकरण किया जाना चाहिए, उन्हें ज्ञानात्मक संवेदन और फिर संवेदनात्मक ज्ञान के रूप में ढाला जाना चाहिए। फिर सामाजिक कारणों से उत्पन्न उस दु:ख की शिकार बहुसंख्या के साथ जुड़कर उस दु:ख से मुक्ति के सामूहिक उद्यम में भागीदारी में अपने जीवन की सार्थकता का संधान किया जाना चाहिए।
अलगाव (एलियनेशन) का शिकार विघटित व्यक्तित्व वाला, बुर्जुआ समाज का औसत नागरिक निजी त्रासदियों और 'चांस' से टूट पड़े दु:खों को ही नहीं, बल्कि सामाजिक कारणों से पैदा हुए दु:खों को भी नितान्त अतार्किक ढंग से एकदम निजी स्तर पर जीता है। वह तर्क और वैज्ञानिक विश्लेषण से रिक्त होता है। सामाजिक जीवन और उत्पादक गतिविधियों से कटाव के चलते उसे जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति और समाज-परिवर्तन के सचेतन उपक्रमों में भरोसा नहीं होता। जन समुदाय उसके लिए अमूर्त प्रत्यय होता है और इतिहास पढ़कर भी वह इतिहास-बोध नहीं हासिल कर पाता। जनता और विज्ञान से कटकर ऐसा आत्मग्रस्त व्यक्ति दुर्बलमना और कायर हो जाता है। वह बस अपने ही दु:खों में घुलता-छीजता रहता है, अपने पर दया करता रहता है, अपने क़रीबी लोगों से भी यही चाहता है और ऐसा नहीं होने पर अमूर्त मनोगत शिक़ायतों-झुँझलाहटों से भरा रहता है। आश्चर्य नहीं कि आज के रुग्ण और सांस्कृतिक-आत्मिक रूप से दिवालिया बुर्जुआ समाज में अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। डॉक्टर इस रोग के शिकार व्यक्ति को दवाओं के सहारे बस ताउम्र नॉर्मल बनाये रखने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसा रोगी वास्तव में स्वस्थमानस तभी हो सकता है, जब वह अपनी मानसिक व्याधि के सामाजिक कारणों को विश्लेषण करके समझ सके और अपनी पूरी संकल्पशक्ति जुटाकर जनता के बीच जाये तथा सामाजिक सरगर्मियों में ख़ुद को दिलो-जान से झोंक दे।
अक्सर कई वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी डिप्रेशन का शिकार होते और आत्महत्या तक करते सुना गया है। यह उन्हीं के साथ होता है जो मध्यवर्गीय रूमानी भावुकता के साथ क्रांति करने तो आ जाते हैं, लेकिन लम्बा समय गुजरने के बाद भी क्रांति के विज्ञान को नहीं समझ पाते, जनता की इतिहास निर्मात्री शक्ति को नहीं जान पाते, अवचेतन रूप से क्रांति के नायकों का (जिनमें वे स्वयं को भी शामिल मानते हैं) कारनामा मानते हैं और हार-जीत से भरी एक विश्व-ऐतिहासिक प्रक्रिया की जगह उसे यांत्रिक ढंग से तयशुदा एक समयबद्ध लक्ष्य मानते हैं। पराजय, विचलन, विपर्यय और विघटन के दौर ऐसे लोगों के आशावाद और रोमानी यूटोपियाई आदर्शों को चूर-चूर कर देते हैं और तब ऐसे लोग निराशा और फिर अवसाद की अतल गहराइयों में डूबते चले जाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि और इतिहास-बोध को लगातार मजबूत बनाते हुए, जनता की जिन्दगी और संघर्षों से लगातार अटूट और गहरा रिश्ता बनाने की कोशिश करते हुए, तथा, अपने सहयोद्धा साथियों के साथ विश्वास और कामरेडशिप के बाण्ड को लगातार दृढ़ से दृढ़तर बनाते हुए ही एक क्रांतिकारी निराशा और अवसाद के प्रेतों से लड़ सकता है, साहस, ताजगी, ऊर्जस्विता और सृजनशीलता के अक्षय स्रोतों से अपना रिश्ता बनाये रख सकता है, तथा, शोक को शक्ति में बदलने का जादुई हुनर हासिल कर सकता है।
achha lga...
ReplyDeleteबेहतर कहा है...सार्थक और सश्ाक्त कहा है...यह सत्य है कि हममें से ज़्यादातर लोग अपने निजी सुख दु:ख से बंधे रहते हैं और उन्हीं का रोना रोते रहते हैं....आैर यही अवसाद का कारण भी है..अच्छा लिखती हैं आप कविता जी....आलेख, निबन्ध में यह स्वर बहुत कम देखने को मिलता है.....इसकी जरूरत भी है...डर सिर्फ यही है कि कहीं यह भी किसी कड़वे अनुभव की प्रतिक्रिया मात्र न हो बल्कि सजग और गम्भीर विश्लेषण न हो...यह तो लेखक ही बता सकता है...पर फिर भ्ाी जो कहा गया है बेहद सार्थक कहा गया है....साधुवाद।
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