फासिस्टों की राजनीति संकटग्रस्त पूँजीवाद की सेवा के लिए न केवल समाजवाद की वाहक शक्तियों को बल्कि उन पूँजीवादी जनवादी चेतना एवं मूल्यों को भी अपने हमले का निशाना बनाती है, जो एक रुग्ण, विकलांग और जराजीर्ण पूँजीवादी समाज के ताने-बाने में भी किसी हद तक बचे हुए होते हैं। तर्कणा और इतिहास बोध को क्षतिग्रस्त करके एक मिथ्याभासी चेतना निर्मित करने के लिए फासिस्ट देव पूजा, नायक पूजा, मिथकों को इतिहास बनाकर प्रस्तुत करने, इतिहास के मिथकीकरण, नस्ली-धार्मिक उन्माद और अंधराष्ट्रवाद का सहारा लेते हैं।
हिन्दुत्ववादियों की एक बड़ी समस्या यह है कि उनके पास कोई राष्ट्रीय नायक नहीं है। गोलवलकर, हेडगेवार के नाम पर चाहे जितनी सड़कें और पार्क बनवा लें, उन्हें जनता कभी भी राष्ट्रीय नायक का दर्जा नहीं दे सकती। इसीलिए संघ परिवार के विचारक गण नायक छवियों की सेंधमारी-बटमारी करते रहते हैं। कभी वे भारतीय बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि गाँधी, सुभाष, पटेल और किसी हद तक नेहरू की विरासत का दावा करने के लिए उनकी चप्पल-चादर लेकर भागते हैं तो कभी भगतसिंह की भी फोटो टाँग लेते हैं और परम बेहयाई से इस तथ्य को अपनी टोपी में छुपा लेते हैं कि भगतसिंह एक सेक्युलर, कट्टर नास्तिक और वैज्ञानिक समाजवाद के प्रति प्रतिबद्ध क्रांतिकारी थे। इन फासिस्टों की समस्या यह है कि बर्तानवी साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष से अलग रहने और गौरांग महाप्रभुओं के तलवे चाटने के अपने काले इतिहास पर पर्दा डालने के लिए इन्हें लगातार तरह-तरह के द्रविड़ प्राणायाम करने पड़ते हैं। इस प्रक्रिया में राम, कृष्ण, दुर्गा जैसे मिथकीय चरित्रों और महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि मध्यकालीन हिन्दू राजाओं से काम नहीं चल पाता तो विभिन्न राष्ट्रीय नायकों-नेताओं को उनके विचार छुपाकर ये अपना लेने की कोशिश करते हैं।
राजा महेन्द्र प्रताप की जयंती मनाने से जुड़ा विवाद इसकी ताजा कड़ी है। इतिहास के अध्येता जानते हैं कि अफगानिस्तान में आजाद भारत की पहली प्रवासी सरकार बनाने वाले महेन्द्र प्रताप नितान्त सेक्युलर व्यक्ति थे। एक समतामूलक समाज के वे कट्टर पक्षधर थे, पर उनके विचार काफी हद तक तोल्स्तोयपंथी यूटोपियाई थे। सोवियत संघ के वे प्रशंसक थे और लेनिन से उनका एक बार लम्बा विचार-विमर्श भी हुआ था। लेनिन ने उनके विचारों को सुनने के बाद कहा था कि काफी हद तक वे तोल्स्तोय के विचारों से मिलते-जुलते हैं। महेन्द्र प्रताप धार्मिक कट्टरता की राजनीति के घोर विरोधी थे और कांग्रेस की राजनीति के भी। हाथरस से निर्दलीय चुनाव लड़कर वे अटल बिहारी वाजपेयी की जमानत भी जब्त करवा चुके थे। अब भाजपा उन्हीं राजा महेन्द्र प्रताप की जयंती मनाकर राष्ट्रीय आंदोलन की एक और विभूति की छवि को चुराना चाहती है। राजा महेन्द्र प्रताप की ओर भाजपा का ध्यान इसलिए भी गया कि अलीगढ़ मु.वि.वि. में उनकी जयंती मनाने का शिगूफा उछालने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और मुस्लिम आबादी के बीच तनाव और 'लो इण्टेंसिटी कम्युनल कान्फिलक्ट' का माहौल बनाये रखने में उसे मदद मिल रही थी। किसी न किसी तरीके से यह माहौल उ.प्र. के विधान सभा चुनावों तक तो बनाये ही रखना है।
-- कविता कृष्णपल्लवी
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