Friday, December 05, 2014

आलोचक, कविता और बावर्चीख़ाना

-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी


नीम उजाले में भी उनका ललाट दिप-दिप दमक रहा था। नाक पर चढ़े चश्‍मे का सुनहरा फ्रेम चमक रहा था। शाल कंधों से बेपरवाही से ढलक कर सोफे पर आन पड़ा था। वे मेरी कविताएँ पढ़ रहे थे। उन्‍होंने उसे हाथों से टटोला। बोले,''अभी थोड़ा और पकाओ, धीमी आँच पर। ठीक से गली नहीं है।''
मेरी डायरी के पन्‍नों को हाथ से सहलाया, फिर उँगली को जीभ से छुआ। बोले ''विचारों का मसाला कुछ तेज है और कला का नमक कम। ठीक से भूनना होता है। हो सके तो कुछ देर के लिए मैरीनेट करके रख दिया करो।'' फिर खिड़की से आती रोशनी की ओर डायरी करते हुए बोले, ''देखो, इसीलिए रंगत भी निखरी नहीं है।''
आखिर में वे डायरी को कुछ देर चुपचाप सूँघते रहे। फिर आँखें बंद करके बोले, ''राजनीति की गंध तेज है। उसकी मात्रा कम होनी चाहिए, एकदम जावित्री के माफिक। न हो तो भी चलेगा।''
उसके बाद मैंने तय किया कि कविता लिखने का हुनर सीखने के लिए मुझे किसी तज़ुर्बेकार बावर्ची की शागिर्दी करनी होगी।
इन दिनों कविता लिखने का ख़याल आते ही बावर्चीखाने में चली जाती हूँ और कोई ज़ायकेदार सालन पका लेती हूँ।

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