Tuesday, November 11, 2014

माकपा के अन्‍दरूनी अन्‍तरविरोधों की मूल अन्‍तर्वस्‍तु



-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

विचारधारात्‍मक कसौटी पर नीतियों-रणनीतियों को परखने के बजाय अनुभववादी लोक चित्‍त वाले भलेमानुस प्रगतिशीलों को एक बार फिर भ्रम होने लगा है कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के बीच के नीतिगत विरोध से शायद कुछ सकारात्‍मक निकलकर आयेगा, अपने दुर्दिन से उबर मा.क.पा. एक बार फिर कथित वाम धारा की गतिशील नेतृत्‍वकारी शक्ति बनकर उभरेगी और शायद केरल और बंगाल में उसके दिन बहुरने की भी शुरुआत हो जाये। यह एक मुगालता भर है।
संशोधनवाद और संसदीय जड़वामनपंथ के बुनियादी विचारधारात्‍मक प्रश्‍न पर येचुरी और करात में कोई मतभेद नहीं है। मतभेद सिर्फ यह है कि संसदीय मार्ग को ही मुख्‍य रणनीति मानते हुए अपने आप को कितना ''लाल'' दिखाया जाये या किस हद तक ''व्‍यावहारिक'' होकर चुनावी राजनीति की जाये। प्रकाश करात नकली रैडिकल वाम तेवर अपनाकर संसदीय विपक्ष की राजनीति करते हुए अपने जनाधार को बचाने के पक्षधर हैं जबकि 'प्रैग्‍मेटिस्‍ट' येचुरी ज्‍यादा दुनियादारी के साथ हिन्‍दुत्‍ववाद विरोधी सेक्‍युलर ताकतों की एकता के नाम पर कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की और ज्‍यादा खुलकर नवउदारवादी नीतियों के प्रश्‍न प्रश्‍न पर नरमी बरतने की नीतियों की वकालत करते हैं। याद दिला दें कि प्रकाश करात लॉबी के दबाव में जब ज्‍योति बसु प्रधानमंत्री नहीं बन पाये थे, तब करात के विरोध में सुरजीत और ज्‍योति बसु के साथ येचुरी भी थे। यूपीए-एक के दौरान जब माकपा ने कांग्रेस सरकार से नाता तोड़ा था तो इसका विरोध करने वालों में येचुरी भी थे। काफी हद तक करात और येचुरी के बीच के विरोध वैसे ही हैं, जैसे संशोधनवादी ए.ने.क.पा.(माओवादी) के भीतर प्रचण्‍ड और बाबूराम भट्टराई के बीच के मतभेद (करात= प्रचण्‍ड और येचुरी=भट्टराई)। यह भी स्‍मरणीय है कि साठ के दशक की अविभाजित भाकपा के भीतर भी डांगे - राजेश्‍वर गुट और वासवपुनैया - सुन्‍दरैया - गोपालन - नम्‍बूदिरिपाद - रणदिवे गुट के बीच के अन्‍तरविरोध भी सापेक्षत: नरम संशोधनवाद और सापेक्षत: गरम संशोधनवाद के बीच के ही अन्‍तरविरोध थे जिन्‍हें पार्टी विभाजन की परिणति तक पहुँचाने में क्रांतिकारी कतारों के दबाव की भी एक अहम भूमिका थी। माकपा के भीतर भी नरमदली और गरमदली संसदमार्गी गुट हमेशा से रहे हैं। सुन्‍दरैया - गोपालन - वासवपुनैया - प्रमोद दास गुप्‍ता आदि का गुट गरमदली था जबकि सुरजीत - ज्‍योति बसु आदि का गुट नरमदली हुआ करता था। बीच-बीच में कुछ नरमदली कुछ गरमदली गुट (लायलपुरी से लेकर सैफुद्दीन और हलीम तक) पार्टी से छिटककर अलग छोटी-छोटी पार्टियाँ भी बनाते रहे। वर्तमान अन्‍तरविरोध के नतीजे के तौर पर माकपा में किसी ऊर्ध्‍वाधर (वर्टिकल) या क्षैतिज (हॉरिजेण्‍टल) फूट की सम्‍भावना नहीं है। अन्‍दरखाने ही कुछ एडजस्‍टमेण्‍ट हो जायेगा और ज्‍यादा से ज्‍यादा नेतृत्‍व के कम्‍पोजीशन में अगली कांग्रेस में कुछ फेरबदल हो जायेगा।
दरअसल सभी संशोधनवादी और सामाजिक जनवादी पार्टियों का संकट यह है कि नवउदारवादी नीतियों के अनुत्‍क्रमणीय (इर्रिवर्सिबुल) घटाटोप में कीन्सियाई नुस्‍खों और नेहरूवियाई ''समाजवाद'' के अप्रासंगिक होते जाने के साथ ही व्‍यवस्‍था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति के रूप में उनकी भूमिका समाप्‍त होती जा रही है। बस उनके पास एक ही नारा है, सेक्‍युलरिज्‍म के नाम पर धुर दक्षिणपंथी हिन्‍दुत्‍ववाद का विरोध करते हुए अन्‍य बुर्जुआ दलों के साथ चुनावी मोर्चा बनाना, और एक ही ''ज़रूरी'' काम है, मज़दूर वर्ग को अर्थवाद के चक्‍कर-चपेट में उलझाये रखना। हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद के चुनावी विरोध की नीति को  लेकर आपसी मतभेद इस बात पर है कि मोर्चा कांग्रेस के साथ बनाया जाये या गैर कांग्रेस-गैर भाजपा तथाकथित तीसरी ताकतों का मोर्चा बनाया जाये।

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