Sunday, October 26, 2014

एक विचार आया है, जिसपर आप सबकी राय चाहिए!





-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

एक विचार कुछ समय से दिमाग़ में उमड़-घुमड़ रहा है। कोई हड़बड़ी नहीं है। फैसले पर पहुँचने की जल्‍दी नहीं है। फेसबुक कॉमरेडों की राय भी इस मामले में मेरे लिए महत्‍वपूर्ण होगी। सोचती हूँ, मज़दूर मोर्चे के अतिरिक्‍त, आज के वक्‍त के तक़ाज़े के हिसाब से, दिल्‍ली में वैचारिक विचार-विनिमय का, साझा सांस्‍कृतिक सरगर्मियों का और जनवादी अधिकार के मुद्दों पर हस्‍तक्षेप का भी एक मंच बनाया जाये। जो जेनुइन प्रगतिशील, वामपंथी, सेक्‍युलर युवा कवि, लेखक, कलाकार, संस्‍कृतिकर्मी, (1) वास्‍तव में साम्‍प्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध सक्रिय भूमिका निभाने का साहस रखते हैं, (2) जो जातिवाद और हर प्रकार की सामाजिक निरंकुशता से सक्रिय घृणा करते हैं, (3) जो मौजूदा व्‍यवस्‍था और साम्राज्‍यवाद-पूँजीवाद के सांस्‍कृतिक वर्चस्‍व के विरुद्ध संघर्ष का जुझारू संकल्‍प रखते हैं, (4) जो पद-पीठ-पुरस्‍कारों की राजनीति और साहित्यिक मठों-गढ़ों की उखाड़-पछाड़ से घृणा करते हैं और सांस्‍कृतिक सत्‍ता-प्रतिष्‍ठानों से दूर रहते हैं, (5) जो कैरियरवादी नहीं हैं, (6) जो संसदीय राजनीति के व्‍यामोह से मुक्‍त हैं और उससे दूर रहते हैं तथा (7) जो कला-साहित्‍य को विचारधारात्‍मक वर्ग संघर्ष का रणक्षेत्र मानने के साथ ही मेहनतकश जनसमुदाय की शिक्षा और सांस्‍कृतिक स्‍तरोन्‍नयन का अनिवार्य उपकरण मानते हैं; उन सभी साथियों के आपसी वाद-विवाद-संवाद के लिए दिल्‍ली में यह मंच एक सकारात्‍मक भूमिका निभाये। हर सप्‍ताह (या हर पखवारे) हम मिलें और आपस में मिल बैठकर समसामयिक वैचारिक-सांस्‍कृतिक प्रश्‍नों पर समझदारी बढ़ाने के लिए, एक-दूसरे की रचनात्‍मकता से परिचित होने और उसे समृद्ध बनाने के लिए, रचना गोष्ठियों और प्रगतिशील फिल्‍मों के प्रदर्शन के लिए अंतरंग बैठकियाँ करें। इन बैठकों और आयोजनों में हम संजीदगी और सघन चिन्‍ताओं-सरोकारों के साथ आज के जलते हुए समय की चुनौतियों और अपनी जिम्‍मेदारियों के बारे में सोचें। हमें यह तो सोचना ही होगा कि प्रतिक्रिया की अंधी शक्तियों के हमलों के विरुद्ध हम क्‍या-क्‍या कर सकते हैं! इस 'फासीवादी समय' में चुपचाप बैठे रहना और महज बतकही करते रहना तो धूर्ततापूर्ण कायरता होगी, आत्‍मसमर्पण के समान होगा, री‍ढ़वि‍हीन केंचुए की जिन्‍दगी को स्‍वीकारना होगा। गंजी  आत्‍माओं और घाघ तुंदियल विद्वत्‍ताओं से हमें कोई उम्‍मीद नहीं। हमें साहसी ऊर्जस्‍वी युवा साथियों से उम्‍मीद है, और उनकी कमी नहीं है।
साथियो, मैं आपके सामने कोई लम्‍बी-चौड़ी अतिमहत्‍वाकांक्षी परियोजना नहीं रख रही हूँ।  यह आज के अँधेरे समय में, अपने कर्त्‍तव्‍यबोध की चिन्‍ता-परेशानी से उपजा, एक छोटी सी पहल का विचार है। आप सभी साथी, जो दिल्‍ली और आस-पास रहते हैं, इसपर अपने विचार दें। अवश्‍य दें। मैं आगे भी मज़दूरों के मोर्चे पर ही काम करती रहूँगी, पर सांस्‍कृतिक-वैचारिक संवाद और प्रतिरोध के ऐसे किसी मंच पर भी सक्रियता को बेहद ज़रूरी मानते हुए यह पहल ले रही हूँ। आपका प्रतिसाद अपेक्षित है।

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