Wednesday, September 24, 2014

छात्र-युवा आंदोलन : एक नये उभार के पूर्व संकेत और भविष्‍य के लिए कुछ ज़रूरी, विचारणीय प्रश्‍न





-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

जादवपुर विश्‍वविद्यालय परिसर में कुलपति के आदेश से छात्रों पर बर्बर पुलिसिया अत्‍याचार के विरोध में कोलकाता की सड़कों पर नन्‍दन से मेयो रोड तक कल लाखों छात्रों ने जुलूस निकाला। भारी बारिश में भीगते हुए छात्र अपराह्न 3 बजे से शाम तक गीत गाते हुए सड़कों पर जिस तरह जमे रहे, वह दृश्‍य साठ और सत्‍तर के सरगर्म कोलकाता की याद दिला रहा था। तक़रीबन चार दशकों बाद आन्‍दोलित छात्र-युवा शक्ति कोलकाता में इस तरह सड़कों पर उमड़ी है। ऐसा लग रहा है कि ममता बनर्जी इस छात्र-युवा आंदोलन से उसीतरह निपटना चाहती हैं, जिसतरह उनके राजनीतिक 'मेण्‍टॉर' सिद्धार्थशंकर रे ने पुलिसिया आतंक राज और कांग्रेसी गुण्‍डों के जरिए सत्‍तर के दशक में विद्रोही युवाओं से निपटने का रास्‍ता अपनाया था। खबर है कि तृणमूल अपने छात्र संगठन के बैनर तले गुण्‍डा वाहिनियों को सड़क पर उतारने की तैयारी कर रही है। ऐसी स्थिति में हिंसा लाजिमी है, जिसका दोष आंदोलनकारी छात्रों के मत्‍थे मढ़कर उन्‍हें दमन का शिकार बनाया जायेगा। मदांध सत्‍ताधारी इतिहास से कभी नहीं सीखते। ममता बनर्जी उस बारूद की ढेरी में पलीता लगाने जा रही हैं, जो उनके सिंहासन के नीचे जमा हो चुका है।
उधर हिमाचल प्रदेश में बेतहाशा फीस बढ़ोत्‍तरी और हिमाचल विश्‍वविद्यालय परिसर में छात्रों पर पुलिस के वहशियाना हमले तथा चार सौ छात्रों की गिरफ्तारी के बाद छात्रों-युवाओं के विरोध-प्रदशर्नों की लहर पूरे राज्‍य में फैलती जा रही है। शान्‍त पहाड़ि‍याँ युवा आक्रोश की गर्मी से तपने लगी है।
छात्र-युवा आक्रोश के इस विस्‍फोट की जड़ में दरअसल शिक्षा के मुक्‍त बाजारीकरण की वह लहर है, जिसके चलते आम घरों के छात्र-युवा ज्‍यादा से ज्‍यादा संख्‍या में कैम्‍पसों से बाहर धकेले जा रहे हैं। साथ ही, कैम्‍पसों के छात्रों के रहे-सहे जनवादी अधिकारों को भी समाप्‍त करके वहाँ निरंकुश नौकरशाही की बेलगाम सत्‍ता स्‍थापित की जा रही है। अब मोदी सरकार देश में विदेशी विश्‍वविद्यालयों को भी अपना परिसर स्‍थापित करने की अनुमति देने पर विचार कर रही है। जाहिर है कि तब बेहद मँहगी व्‍यावसायिक शिक्षा और उच्‍च शिक्षा आम छात्रों की पहुँच से और अधिक दूर हो जायेंगी।
हालात ऐसे बन रहे हैं कि चार दशक पहले की ही तरह छात्रों-युवाओं का जुझारू व्‍यवस्‍था-विरोधी आंदोलन पूरे देश में फैल जाने की भरपूर सम्‍भावना है। लेकिन छात्रों-युवाओं को 1974 के छात्र-युवा आंदोलन के ज़रूरी सबक कत्‍तई नहीं भूलने चाहिए। उससमय छात्र-युवा आंदोलन गुजरात से बिहार पहुँचने के बाद जब उत्‍तर प्रदेश और देश के कुछ अन्‍य क्षेत्रों में फैल ही रहा था कि सहसा शीतनिद्रा से जागकर भूदानी-सर्वोदयी जयप्रकाश नारायण ने उसका नेतृत्‍व हथिया लिया और 'सम्‍पूर्ण क्रांति' की सम्‍पूर्ण भ्रान्ति फैलाते हुए इन्दिरा निरंकुशशाही के विरोध का नायक बनकर उन्‍होंने आंदोलन की व्‍यवस्‍था-विरोधी धार को कुन्‍द करके उसे व्‍यवस्‍था की चौहद्दी में कैद कर दिया। 'छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी' का जब गठन हुआ तो 'दलविहीन प्रजातंत्र' की बात करने वाले जे.पी. ने उसमें दलीय प्रतिनिधित्‍व का फार्मूला देते हुए जनसंघ, सभी धाराओं के समाजवादियों, सिण्‍डीकेटी कांग्रेसियों और कांग्रेस-विरोधी क्षेत्रीय पार्टियों से जुड़े छात्रों-युवाओं को भरा और स्‍वतंत्र आंदोलनकारी युवाओं को हाशिए पर धकेल दिया गया। जे.पी. का कुल उद्देश्‍य था, इन्दिरा निरंकुशशाही के विरोध को व्‍यवस्‍था की चौहद्दी के बाहर नहीं जाने देना, और इसमें वे सफल रहे थे। यदि जे.पी. ने '74 के छात्र-युवा आंदोलन में घुसपैठ करके उसे कुण्ठित-दिग्‍भ्रमित नहीं किया होता, तो लाख दमन के बावजूद इन्दिरा गाँधी को आपातकाल के दौरान और अधिक मजबूत एवं संगठित जन प्रतिरोध का सामना करना पड़ता। आपातकाल के बाद, जे.पी. जो चाहते थे, वही हुआ। जनता ने जनता पार्टी की भोंड़ी नौटंकी देखी, 1980 में इन्दिरा फिर भारी बहुमत से सत्‍ता में वापस लौटीं और संसदीय बुर्जुआ जनवाद की व्‍यवस्‍था फिर पटरी पर व्‍यवस्थित ढंग से चलने लगी। 1974 के  पहले भी भूदान एवं सर्वोदय आन्‍दोलनों के जरिए तथा मुशहरी अंचल में साम्राज्‍यवादी एवं देशी पूँजीवादी वित्‍त पोषण से सुधार कार्य करके जे.पी. ने वर्ग संघर्षों के दबाव को विसर्जित करने का महत्‍वपूर्ण काम किया था और बुर्जुआ जनवाद के दूरगामी हितचिन्‍तक के रूप में शासक वर्गों की महत्‍वपूर्ण सेवा की थी। दरअसल सत्‍ताधारियों के रणनीतिकारों की 'रिजर्व आर्मी' में संसद-विधान सभाओं के चुनावी खेलों में व्‍यस्‍त सियासतदानों से अलग, जे.पी., विनोबा, रजनी कोठारी, अन्‍ना हजारे, हर्ष मन्‍दर, अरुणा  राय आदि किसिम-किसिम के सुधारवादी-उदारवादी मदारी-जमूरे मौजूद रहते हैं, जो नियमित अपने काम में लगे रहते हैं, लेकिन खास-खास समयों में उन्‍हें स्‍वच्‍छ छवि वाले मसीहा के रूप में मैदान में उतार दिया जाता है ताकि जन संघर्षों को क्रांतिकारी दिशा में आगे बढ़ने से रोका जा सके। कभी-कभी चुनावी राजनीति की गटरगंगा की सफाई के दावे के साथ 'श्रीमान सुथरा जी' की टोपी पहनाकर किसी वी.पी.सिंह या किसी केजरीवाल को भी व्‍यवस्‍था की एक नयी सुरक्षा पंक्ति के रूप में खड़ा कर दिया जाता है। बा‍की, गरमागरम नारे देते हुए हर आंदोलन को अनुष्‍ठान बना देने की कला में माहिर चुनावी वामपंथी दल हैं ही, जो हमेशा से व्‍यवस्‍था की दूसरी पंक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं।
आम छात्र-युवा आबादी के सामने, नवउदारवादी नीतियों पर बुलेट ट्रेन की रफ्तार से अमल के इस दौर में, सिवा इसके और कोई रास्‍ता बचा ही नहीं है कि शिक्षा के निजीकरण और बेलगाम बाजारीकरण के इस दौर में वे 'समान शिक्षा और सबको रोजगार' के अधिकार की माँग के परचम को मजबूती से थाम्‍हकर जुझारू आंदोलन के रास्‍ते पर उतरें। इसके लिए ज़रूरी है कि वे अपना एक सुस्‍पष्‍ट न्‍यूनतम कार्यक्रम तैयार करें और शिक्षा एवं रोजगार के अधिकार के साथ ही नौकरशाही की जकड़बन्‍दी और सत्‍ता की दखलंदाजी के विरुद्ध कैम्‍पसों के जनवादीकरण तथा अकादमिक स्‍वायत्‍तता के मुद्दों को भी प्रमुखता के साथ उठायें। यह बेहद ज़रूरी है कि छात्र-युवा आंदोलन को अराजकता और बिखराव से बचाने के साथ ही 1967 से 1974 तक के छात्र-युवा आंदोलनों से सबक लेते हुए इसमें चुनावी बुर्जुआ पार्टियों के दुमछल्‍लों और सुधारवादी मसीहाओं को घुसपैठ करने की कत्‍तई इजाजत न दी जाये। आज नवउदारवादी नीतियों का सबसे अधिक कहर मेहनतकश आबादी पर बरपा हो रहा है और उसमें भारी असंतोष की आग सुलग रही है। छात्रों-युवाओं का आंदोलन व्‍यापक मेहनतकश  आबादी के संघर्षों से जुड़े बिना दीर्घजीवी और प्रभावी हो ही नहीं सकता। इस दिशा में शुरू से ही सोचना और प्रयास करना बेहद ज़रूरी है।

1 comment:

  1. अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर !
    आपके ब्लॉग को फॉलो कर रहा हूँ
    आपसे अनुरोध है की मेरे ब्लॉग पर आये और फॉलो करके सुझाव दे !

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