Saturday, August 02, 2014



-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

देश की एक तिहाई आबादी मुश्किल से पेट भर पाती है। कुछ लोग तमाम कोशिशों के बाद दो जून की रोटी तो जुटा लेते हैं, लेकिन अपनी दूसरी बुनियादी ज़रूरतें मुश्किल से ही पूरी कर पाते हैं या नहीं कर पाते। थोड़े से लोग हैं जो खाते हैं, हूरते हैं, ठूँसते हैं, लीलते हैं, भकोसते हैं, जीमते हैं, उठाते हैं, गटकते हैं, गपकते हैं, सड़पते हैं, लपकते हैं। वे लोटते हैं, पोटते हैं, ओढ़ते हैं, बिछाते हैं, उड़ते हैं, दौड़ते हैं, आनन्‍द कानन में नानाविध विहार करते हैं। यह सब तो वे अपनी अपार सम्‍पदा के हजारवें या लाखवें हिस्‍से से ही कर लेते हैं। शेष पैसे से वे कारखाने लगाते हैं, निर्माण में निवेश करते हैं और अभावग्रस्‍त लोगों की हडि्डयाँ तक निचोड़कर मुनाफा उगाहते हैं। फिर भी उनके पास बहुत पैसा बच जाता है, उसे वे सट्टा बाजार में लगाते हैं और पैसे से पैसा बनाते हैं और इस चिन्‍ता में मरे जाते हैं कि इत्‍ते सारे पैसे का वे क्‍या करें, कहाँ लगायें! पूँजीवादी विकास का यही निचोड़ है। यह हडि्डयों के ढेर पर खड़ी समृद्धि की मीनार है। असह्य दु:खों के सागर में निर्मित ऐश्‍वर्य का द्वीप है। पूँजीवाद वर्ग समाज की वह वृद्धावस्‍था है जो उन्‍माद और पागलपन की बीमारी से ग्रस्‍त है। जो जितने ही सुन्‍दर शब्‍दों में इसके अस्तित्‍व का औचि‍त्‍य-प्रतिपादन करता है और जितने अधिक तर्कों के साथ इसके विनाश की मानवीय कोशिशों का विरोध करता है, वह संस्‍कृति का चोला पहने बर्बरता का उतना ही बड़ा पुजारी है। रोशनी में चमकते उसके रेशमी लिबास को नज़दीक जाकर देखो, उसपर खून के धब्‍बे दिखाई देंगे और उनकी आत्‍माओं से वैसी ही दुर्गंध आयेगी जैसी मांसभक्षी जानवरों के शरीर से आती है।

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