Friday, August 15, 2014

कला की क्रियात्‍मक भूमिका




कला की क्रियात्‍मक भूमिका
(एक)

दिएगो ने कभी समुद्र नहीं देखा था। उसका पिता सान्तियागो कोवाद्लोफ़ उसे दि‍खाने ले गया।
वे दक्षिण की ओर गये।
रेत के ऊँचे टीलों के पीछे समुद्र पड़ा हुआ था, इन्‍तज़ार करता हुआ।
जब बच्‍चा और उसका पिता, काफी चलने के बाद, आखिरकार रेत के टीलों तक पहुँचे, सागर उनकी आँखों के सामने फट पड़ा।
और सागर और उसकी चमक इतनी असीम-अछोर थी कि बच्‍चा उसकी सुन्‍दरता को देखकर हक्‍का-बक्‍का रह गया।
और आखिरकार जब वह बोल पाने की स्थिति में आया, तो काँपते हुए, हकलाते हुए पिता से बोला:
''देखने में मेरी मदद करो।''

कला की क्रियात्‍मक भूमिका 
(दो)

धर्मोपदेशक मिगुएल ब्रुन ने मुझे बताया कि कुछ वर्षों पहले वह परागुए के चाको इलाके के इण्डियन लोगों के बीच गया था। वह एक ईसाई धर्म प्रचार मिशन का हिस्‍सा था। मिशनरी एक मुखिया से मिले जो बहुत समझदार माना जाता था। मुखिया एक शान्‍त प्रकृति का मोटा आदमी था। उसने बिना पलक झपकाये धर्म प्रचार की वे सारी बातें सुनीं जो मिशनरियों ने उसे उसकी भाषा में पढ़कर सुनाईं। अपनी बात खतम करने के बाद वे प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा  करने लगे।
मुखिया थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला:
''यह खुजाता है। यह कड़ाई से खुजाता है और बहुत बढ़ि‍या खुजाता है।''
और फिर उसने जोड़ा:
''लेकिन यह वहाँ खुजाता है, जहाँ खुजली नहीं हो रही होती है।''

--एदुआर्दो गालिआनो

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