-- कविता कृष्णपल्लवी
कुछ हाफपैण्टिये लगातार मेसेज भेजकर मुझे हिन्दूद्रोही और देशद्रोही बताते हुए खरी-खोटी सुना रहे हैं, देशभक्ति की नसीहतें दे रहे हैं। कुछ अभद्रता भी कर रहे हैं (उन सभी को मैं ब्लॉक करती जा रही हूँ)।
तो सुन लो, बेनितो भाई मुसोलिनी से उधार लिये हाफ पैण्ट धारण किये कूपमण्डूक नागपुरिया हाफपैण्टियो! मैं राष्ट्रवादी नहीं हूँ। तुम भले ही आदिकाल से ''हिन्दू राष्ट्र'' की मौजूदगी का दावा करो, राष्ट्र और राष्ट्रवाद का जन्म मण्डी में हुआ। ये पूँजीवादी युग की परिघटनाएँ हैं। मैं राष्ट्रवादी नहीं अन्तरराष्ट्रीयतावादी हूँ। मैं देशभक्त हूँ, पर देशभक्ति मेरे लिए यहाँ की बहुसंख्यक मेहनतक़श जनता की एकता और मुक्ति के लिए संघर्ष करने का नाम है। 'देश कोई काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता' (सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)। देशभक्ति मेंरे लिए दुर्गावेशधारिणी भारत माता की वंदना करना नहीं है। मैं किसी की वंदना-पूजा नहीं करती। तुम लोग होते कौन हो देशभक्ति और देशद्रोह का सर्टिफिकेट बाँटने वाले? यह ठेका किसने दिया तुमलोगों को? तुमलोग, जिन्होंने बर्तानवी गुलामी के खिलाफ कोई लड़ाई नहीं लड़ी और आज पश्चिमी साम्राज्यवादियों के सामने साष्टांग दण्डवत करते हुए पुरे देश को विदेशी लूट के लिए खुला चरागाह बना रहे हो, देशभक्ति की बात किस मुँह से करते हो? मुट्ठीभर पूँजीपतियों को खुली लूट की छूट देते हो, करोड़ों मज़दूरों से उनके रहे-सहे श्रम अधिकार भी छीन लेते हो, जनता की एकजुटता तोड़ने के लिए दंगों और नरसंहारों का ताण्डव रचते हो और अपने को देशभक्त कहते हो?
बाप का राज है जो देश से निकालकर बाहर कर दोगे? यहीं के बाशिन्दा हैं, मेहनत की रोटी खाते हैं और मेहनत करने वालों के पक्ष में आवाज़ उठाते हैं। इस देश में रहने का हमारा हक़ कौन छीन सकता है? हम अपने सभी नागरिक दायित्वों का पालन करते हैं, इस देश की पूरी सत्ता (सरकार, नौकरशाही, न्यायपालिका, सेना-पुलिस, संसद) को घोर जनविरोधी मानते हैं, संविधान को घोर जनविरोधी मानते हैं। इसे खुलकर कहते हैं, यह हमारा जनवादी अधिकार है। इसे तुम कानूनन भी राजद्रोह नहीं कह सकते। क्रांति का वैचारिक प्रचार भी कानूनन राजद्रोह नहीं है। सच कहें, तो भारत को ''हिन्दू राष्ट्र'' कहना देश की जनता से गद्दारी है, समूची गैरहिन्दू और नास्तिक आबादी के नागरिक अधिकार पर चोट करना है। साम्प्रदायिकता का ज़हर फैलाना देशद्रोह है।
मैं स्वयं को हिन्दू नहीं मानती (इसे गाली समान मानती हूँ)। तुम भारत में रहने के नाते मुझे जबर्दस्ती हिन्दू कहने वाले होते कौन हो? इस देश में रहने वाले तमाम मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन और विविध जनजाति समुदायों के लोग भारतीय हैं, पर स्वयं को हिन्दू नहीं मानते! तुम उनपर जबर्दस्ती अपनी परिभाषा कैसे थोप सकते हो? और यह सब तो तुम लोगों का कपटी दोमुँहापन है। अगर तुमलोग मुसलमानों को भी हिन्दू मानते हो तो आर.एस.एस. या विहिप में उन्हें कोई पद-ओहदा क्यों नहीं दे देते? वास्तव में तुम भारत को ''हिन्दू राष्ट्र'' घोषित करके सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे़ का नागरिक बना देना चाहते हो!
यह देश सनातन धर्म, ब्राह्मणवाद और आध्यात्मवाद से भी अधिक पहले से समृद्ध भौतिकवादी चिन्तन-परम्परा का देश है। यह देश आजीवक और लोकायत दार्शनिकों का, प्रारम्भिक भौतिकवादी वृहस्पति, कपिल, कणाद, बुद्ध और महावीर का देश भी है। यह कबीर, रादू, रैदास, पलटू, नानक आदि का भी देश रहा है। यह घोर नास्तिक और भौतिकवादी विचारक राधामोहन गोकुल, राहुल सांकृत्यायन और भगतसिंह आदि का देश है। हम समृद्धतम भारतीय परम्परा के वारिस खाँटी भारतीय हैं। पर हम महज एक भारतीय ही नहीं बल्कि एक विश्व नागरिक और एक मज़दूर अन्तरराष्ट्रीयतावादी भी हैं। हम अंधराष्ट्रवादी नहीं हैं। हम फासिस्ट अंधराष्ट्रवाद के शत्रु हैं।
तो सुन लो तमाम अभद्र, तर्कद्रोही, उन्मादी हाफपैण्टियो! हम तुमसे बहस के नाम पर गाली-गलौच करना ही नहीं चाहते। तुम अपना काम करो, मैं अपना काम करूँ। जब मैं तुम्हारे वॉल पर या मेसेज बॉक्स में नहीं जाती तो तुम मेरे वॉल पर या मेसेज बॉक्स में फटकते ही क्यों हो? कुछ तो तमीज़ होनी चाहिए! फासिस्टों और कम्युनिस्टों के बीच संघर्ष बहस-मुबाहसे के मंचों पर हो ही नहीं सकते। हमारे बीच सड़कों पर आर-पार की लड़ाई होती है। बीसवीं सदी में यह लम्बी लड़ाई चली और अंत में समाजवादी शिविर ने ही फासिस्ट शिविर को धूल चटायी थी। हम जानते हैं कि आज चरम संकटग्रस्त पूँजीवादी समाज की ज़मीन एक बार फिर बड़े पैमाने पर फासिस्ट ताकतों को जन्म दे रही है। श्रम और पूँजी के बीच महासंघर्ष के भावी दूसरे चक्र में भी मेहनतक़शों के संगठित हरावलों को सबसे पहले फासिस्टों से ही मोर्चा लेना होगा। दुनिया में कहीं यह मोर्चा वहाबी, सलाफी, तक़फिरी जिहादियों से होगा, कहीं हिंदुत्ववादियों से, कहीं बौद्ध कट्टरपंथियों से, तो कहीं जायनवादियो से, कहीं भाँति-भाँति के नस्लवादियों से, तो कहीं भाँति-भाँति के अंधराष्ट्रवादियों से। ये सभी विश्व पूँजी के ही भाड़े के टट्टू हैं, राष्ट्रप्रेम आदि-आदि का जाप करने वाले भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िये हैं। आज क्रांति की लहर पर प्रतिक्रांति की लहर हावी है, पूँजीवादी और फासिस्ट राज्यतंत्र, सांगठनिक तंत्र और प्रचार तंत्र अत्यधिक संगठित हैं, मेहनतक़शों के शिविर में फिलहाली तौर पर फूट, बिखराव, पस्ती और मायूसी है, पर यह समय हमेशा नहीं रहेगा। वह समय बहुत दूर नहीं जब सर्वहारा की संगठित शक्ति तमाम फासिस्टी मंसूबों को उसीतरह ध्वस्त कर देगी जैसे जंगल में हाथी दीमकों की बाँबियों को कुचलकर मटियामेट कर देता है।
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