Thursday, July 10, 2014

भावुकतावादी क्रांतिवादियों, राय बहादुरों, रुदालियों और सयाने सुजानों से कुछ दिल की बातें



--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

पिछले दिनों हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवादियों की चुनावी जीत के बाद फेसबुक पर कम्‍युनिस्‍टों को उनकी कमज़ोरियों और नाकारेपन के लिए कोसने और तंज कसने वालों की होड़ सी मच गयी थी। इनमें से हम पहले उनको अलग कर देते हैं जो संसदीय जड़वामन संशोधनवादियों को भी कम्‍युनिस्‍ट ही मानते हैं और उनसे अपेक्षा करते हैं कि वे चुनावी कुश्‍ती में शिकस्‍त देकर फासीवादियों को रोक देंगे। संसदीय वामपंथ कम्‍युनिज्‍़म नहीं, बल्कि सामाजिक जनवाद है। फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का मुख्‍य मोर्चा समाज में और सड़कों पर होगा और उसका मुक़ाबला करने वाली मुख्‍य ताक़त संगठित जुझारू मेहनतक़शों की होगी।
हम यहाँ उनकी बात कर रहे हैं जो कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारियों को इस बात के लिए पानी पी-पीकर कोसते रहते हैं कि वे 'नॉन इश्‍यूज' पर मतभेदों के चलते खण्‍ड-खण्‍ड में बँटे हुए हैं, उनकी कोई प्रभावी क्रांतिकारी भूमिका नहीं बन पा रही हैं और उधर फासीवाद का कहर प्रचण्‍ड से प्रचण्‍डतर होता जा रहा है। बात एक हद तक ठीक भी है। लेकिन कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी आंदोलन के बिखराव के कारण बुनियादी उसूली मसले हैं। कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी शौकिया, या काहिली के कारण, या व्‍यक्तिवाद के चलते फूट बिखराव के शिकार नहीं हैं। फूट-बिखराव के मूल कारण उसूली हैं।  नयी परिस्थितियों की व्‍याख्‍याएँ जब अलग-अलग हैं तो क्रांति की रणनीति एवं आम रणकौशल के प्रश्‍न पर आम राय हो पाना सम्‍भव हो ही नहीं सकता। दूसरी बात, पहले से ही चली आ रही विचारधारात्‍मक कमजोरियाँ क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रांति की लहर के हावी होने के इस दौर में घनीभूत हो गयी हैं और तरह-तरह के विचलनों-भटकावों को जन्‍म दे रही हैं। इन विचलनों से नेतृत्‍व के स्‍तर तक व्‍यक्तिगत कमजोरियाँ भी पैदा हो रही हैं। पर ये कमजोरियाँ मूल समस्‍या नहीं, बल्कि मूल समस्‍या की एक उपज है, 'बाई-प्रोडक्‍ट' हैं। मूल विचारधारात्‍मक-राजनीति‍क लाइन के प्रश्‍नों के हल होने तक महज भावनात्‍मक अपीलों और उतावलेपन से एकता नहीं कायम होगी। कोई सही लाइन यदि 'पॉलिमिक्‍स' के दौरान तर्क की श्रेष्‍ठता के आधार पर स्‍वीकार्य नहीं होगी तो व्‍यवहार में सत्‍यापन के द्वारा अपना प्राधिकार स्‍थापित करेगी। इसमें समय लग रहा है। इसके कई कारण हैं, जिनमें कुछ विश्‍व-ऐतिहासिक भी हैं। दूसरे, इस बात को भी समझना होगा कि कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी ग्रुपों की एकता तभी वास्‍तविक और प्रभावी होगी, जब उस एकता में व्‍यापक जुझारू मज़दूर वर्ग की एकता अभिव्‍यक्‍त और परावर्तित हो, वरना वह एकता थोड़े से क्रांतिकारी बौद्धिकों की एकता मात्र बनकर रह जायेगी। इसलिए दीवारों की एकता की भावुक अपीलें बड़े-बड़े शब्‍दों में लिखने के बजाय हर कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी ग्रुप  के लिए पूरी ताकत लगाकर मज़दूर वर्ग और अन्‍य मेहनतकश वर्गों के बीच आधार बनाना सबसे ज़रूरी है। इसके साथ-साथ मतभेद के मसलों पर बहसें चलानी होंगी और समीपतर प्रवृत्तियों के साथ एकता बनाने की कोशिशें करती रहनी होंगी।
मध्‍यवर्गीय भावुकतावादी क्रांतिवादी (पेटी बुर्जुआ इमोशनलिस्‍ट रिवोल्‍यूशनिस्‍ट) सोचते हैं  कि भावुक अपीलों से एकता कायम हो जायेगी। वे विचारधारात्‍मक-राजनीतिक मतभेद के मुद्दों को महत्‍व देना तो दूर, उन्‍हें समझने की कोशिश भी नहीं करते। उन्‍हें लगता है कि क्रांति और फासीवाद-विरोध की उन्‍हें तो बहुत चिन्‍ता है लेकिन जो इस काम में वाकई अपनी जिन्‍दगी झोंके हुए हैं, वे निश्चिन्‍त होकर ''क्रांति-क्रांति'' खेल रहे हैं या व्‍यक्तिवादी दुराग्रहों  के चलते खण्‍ड-खण्‍ड में बँटे हुए हैं। यह सस्‍ता लोकरंजकतावादी चिन्‍तन है जो विज्ञान की चिन्‍ता किये बगैर क्रांति की चिंता में व्‍यग्र रहता है। भावुकतावादी क्रांतिवादी मार्क्‍सवाद के मर्म को नहीं जानने के कारण यह समझ ही नहीं पाते कि एक बुर्जुआ समाज में वस्‍तुगत परिस्थितियों की ताकत से तरह-तरह की सुधारवादी और रैडिकल लोकप्रिय बुर्जुआ पार्टियाँ तो रोज़-रोज़ आसानी से बन सकती हैं, लेकिन एक कम्‍युनिस्‍ट पार्टी केवल विचारधारा की स्‍पष्‍ट समझ और क्रांति की रणनीति एवं आम रणकौशल की स्‍पष्‍ट समझ के आधार पर, व्‍यवहार-सिद्धान्‍त-व्‍यवहार की एक लम्‍बी प्रक्रिया से ही गुजरकर बन सकती है और आज पैदा होने वाली बाल बराबर विचारधारात्‍मक विच्‍युति भी कल विचलन और परसों क्रांतिकारी चरित्र से प्रस्‍थान बन जायेगी तथा पार्टी एक कम्‍युनिस्‍ट नामधारी बुर्जुआ पार्टी(यानी संशोधनवादी पार्टी) बन जायेगी। वे इस बात को नहीं समझ पाते कि विश्‍व ऐतिहासिक विपर्यय(रिवर्सल) और गतिरोध के दौर  में यदि क्रांतिकारी शक्तियाँ बिखर जायें तो उनकी एकता सुगम नहीं हो सकती, खास तौर पर तब, जब इसी दौरान विश्‍व-पूँजीवाद की संरचना और कार्यप्रणाली में भी अहम बदलाव आ गये हों और उनके बारे में भी एक राय बनाने की चुनौती आ उपस्थित हो। भावुकतावादी क्रांतिवादी यदि व्‍यवहार में होते हैं तो प्राय: ''वामपंथी'' दुस्‍साहसवाद का रास्‍ता अपनाते हैं। लेकिन जब वे सदिच्‍छावन सदगृहस्‍थ होते हैं, 'फेंससिटर' और 'आउटसाइडर' होते हैं तो प्राय: आन्‍दोलन की ठोस समस्‍याओं को दरकिनार करके क्रांतिकारियों को ''जल्‍दी-जल्‍दी क्रांति नहीं करने'' के लिए कोसते-धिक्‍कारते हैं और एकता की भावुक अश्रुविगलित अपीलें जारी करते हैं।
यह सबकुछ करते हुए भावुकतावादी क्रान्तिवादी कभी यह नहीं बताते, या शायद सोचते  तक नहीं, कि‍ जिस क्रांति के लिए, या जिस फासीवाद-विरोध के लिए वे इतने चिन्तित हैं, उसके लिए वे खुद क्‍या कर रहे हैं! यदि कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारी कुछ कर ही नहीं पा रहे हैं और इतने ही नाकारे हैं, तो फिर उनसे अपील करने और उन्‍हें कोसने की ज़रूरत ही क्‍या है? उन्‍हें स्‍वयं आगे आकर विकल्‍प प्रस्‍तुत करने की दिशा में कुछ उद्यम करना चाहिए! क्रांति की दुनिया में पर्यवेक्षक के जड़ संदर्भ-चौखटे से चीज़ों को नहीं समझा जा सकता। आपको स्‍वयं किसी हद तक सक्रिय कारक तत्‍व बनना होता है। कारक ही यहाँ वस्‍तुनिष्‍ठ पर्यवेक्षक हो सकता है। यहाँ 'तीन पाई ढूँढने के लिए गहरे पानी पैठने' की दरकार होती है। 'राम झरोखे बैठकर जग का मुजरा' तो लिया जा सकता है, लेकिन वस्‍तुनिष्‍ठ समालोचना नहीं की जा सकती। सिर्फ कोसने-धिक्‍कारने, शिकायतें करने और अपीलें करने के बजाय भावुकतावादी क्रांतिवादियों को स्‍वयं अपनी-अपनी समझ के हिसाब से ठोस अमली कार्यक्रम पेश करना चाहिए और उसपर अमल करके उसे सही साबित करना चाहिए। 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' पुरानी कहावत है। अपने को किनारे करके किसी समस्‍या पर चर्चा करना ठीक नहीं। समस्‍या पर ठोस चर्चा कीजिए, ठोस समाधान बताइये और स्‍वयं को समस्‍या और उसके समाधान का अंग मानकर बात कीजिए, तो बेहतर होगा।
स्‍लावोज़ जिज़ेक की अवस्थितियाँ मरुभूमि की रेत की तरह स्‍थान-परिवर्तन करती रहती  हैं, पर अलग-अलग प्रसंगों में, टुकड़े-टुकड़े में, कई बार वे बहुत मार्के की बातें कह जाते हैं। जो लोग किसी क्रांतिकारी आंदोलन के खड़ा होने की प्रतीक्षा करते हैं और यह कहते हैं कि कोई क्रांतिकारी आंदोलन है ही नहीं कि वे उसमें शिरकत करें, उनके बारे में जिज़ेक लिखते हैं:
''प्रगतिशील उदार लोग प्राय: शिकायत करते हैं कि वे ''क्रांति'' (या एक अधिक जुझारू मुक्तिकामी राजनीतिक आंदोलन) में शामिल होना पसंद करते, लेकिन चा‍हे जितनी बेचैनी के साथ वे इसे खोजें, यह उन्‍हें कहीं नज़र नहीं आती (उन्‍हें सामाजिक स्‍पेस में कहीं भी ऐसी गतिविधि में संजीदगी के साथ संलग्‍न होने वाले संकल्‍प और ताकत वाला राजनीतिक अभिकर्ता नजर नहीं आता)। हालाँकि इसमें एक हद तक सच्‍चाई है, लेकिन इसमें यह जोड़ना होगा कि इन उदारवादियों का रुख अपने आप में समस्‍या का एक हिस्‍सा है: यदि कोई व्‍यक्ति केवल एक क्रांतिकारी आंदोलन को ''देखने'' का इन्‍तजार करता है, तो, निश्‍चय ही, वह कभी नहीं उठ खड़ा होगा, और वह उसे कभी नहीं देख पायेगा।''
जिज़ेक से आगे हम इतना ज़रूर जोड़ना चाहेंगे कि ठण्‍डे दिनों में जो लोग क्रांतिकारियों  को क्रांति में ''विलम्‍ब'' और ''लापरवाही'' के लिए कोसते-धिक्‍कारते रहते हैं, तरह-तरह की सलाहें और नसीहतें देते रहते हैं, उनका क्रांतिकारी तूफान के उठ खड़े होने पर प्राय: क्रांति से मोहभंग हो जाता है। क्रांति‍ में शोषितों-उत्‍पीड़ि‍तों के विद्रोह की हिंसात्‍मक प्रचण्‍डता उन्‍हें सुहाती नहीं। क्रांति को वे जैसा शुद्ध-बुद्ध, काव्‍यात्‍मक और सौन्‍दर्यात्‍मक देखना चाहते थे, वे उन्‍हें वैसी लगती ही नहीं। वे क्रांति की गलतियों के छिद्रान्‍वेषण में जुट जाते हैं और वे उन्‍हें मिल ही जाती हैं क्‍योंकि हर क्रांति ऐतिहासिक वर्ग-विद्रोह होती है और उसमें अतिरेक और गलतियाँ होती ही हैं। फिर भावुकतावादी क्रांतिवादी का क्रांति से मोहभंग हो जाता है, उसके भीतर डॉ. जिवागो की आत्‍मा प्रविष्‍ट हो जाती है और वह किसी पश्चिमी देश का वीज़ा जुगाड़ने या बिना वीज़ा के ही भाग निकलने की जुगत में लग जाता है। 1917 से 1922 के बेहद कठिन दिनों में बहुतेरे प्र‍गतिशील बुद्धिजीवी भी समाजवाद का पतन अ‍वश्‍यम्‍भावी जानकर सोवियत संघ से भाग खड़े हुए थे। फिर 1930 के बाद, प्रगति और शान्ति के दिनों में उनमें से बहुतेरे वापस भी लौट आये थे।
भावुकतावादी क्रांतिवादी क्रांति की जय-यात्रा में बैण्‍ड-बाजा बजाते आगे-आगे चलते हैं। सामने से शत्रु सेना की धूल उड़ते ही वे एकदम पीछे हो जाते हैं। पराजय और बिखराव के दिनों में वे खूसट बु‍ढ़ि‍या की तरह कोसते-सरापते हैं, रुदालियों की तरह सियापा करते हैं या कूपमण्‍डूक गँवईं सयाने की तरह राय देने और फैसला सुनाने लगते हैं। क्रांति का समर्थन करने के बदले ऐसे बुद्धिजीवी चाहते हैं कि समाजवाद उनके विशेषाधिकारों को अक्षुण्‍ण बनाये रखे, बौद्धिक श्रम-शारी‍रिक श्रम का अंतर बना रहे और दर्शन-कला-साहित्‍य और व्‍यवस्‍था के कामों में व्‍यस्‍त वे हमेशा उत्‍पादक कार्रवाइयों से दूर बने रहें, वे विशेषज्ञता को उन्‍नत चेतस जनता की सामूहिक सर्जनात्‍मकता से विस्‍थापित होते नहीं देखना चाहते, 'लाल' के ऊपर हमेशा 'विशेषज्ञ' पर बल देते हैं। ऐसे ही लोगों के बीच से समाजवाद की अवधि के दौरान 'पूँजीवादी पथगामी' पैदा होते हैं।

1 comment:

  1. आपकी लिखी रचना शनिवार 12 जुलाई 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

    ReplyDelete