Wednesday, July 30, 2014

लखनऊ में बलात्‍कार और हत्‍या की जघन्‍य घटना पर सोचते हुए मृत्‍युदण्‍ड के बारे में कुछ विचार


--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

मैं मानवाधिकारवादियों के इस निरपेक्ष मानवतावादी स्‍टैण्‍ड से खुद को सहमत नहीं पाती हूँ कि फाँसी की सजा पूरी तरह समाप्‍त कर दी जानी चाहिए। यह सही है कि हर मनुष्‍य का जीवन कीमती होता है और न्‍यायतंत्र को चाहिए कि हर व्‍यक्ति को सुधरने का मौका दे। यह भी सही है कि दण्‍ड-विधान का उद्देश्‍य प्रतिशोध नहीं हो सकता। लेकिन जो सामाजिक परिवेशगत कारणों से ही पूरी तरह विमानवीकृत हो चुके हों, मनुष्‍य रह ही न गये हों और पाशविक जघन्‍यता और ठण्‍डेपन के साथ बलात्‍कार और हत्‍या के दोषी हों, उन्‍हें फाँसी क्‍यों नहीं दी जानी चाहिए? ऐसे लोग सुधारे नहीं जा सकते। उन्‍हें सुधरने का मौका देना समाज के दूसरे निर्दोष लोगों को ख़तरे में डालना है। जहाँ तमाम लोग भूख, ग़रीबी और अत्‍याचार से यूँ ही मर रहे हों, वहाँ ऐसे नराधमों के जीवन की चिन्‍ता बकवास है। जानवरों को समझाया नहीं जा सकता, सिर्फ डराया जा सक‍ता है। पशु बन चुके 16 दिसम्‍बर के दिल्‍ली बलात्‍कार काण्‍ड, बदायूँ बलात्‍कार काण्‍ड और 17 जुलाई के लखनऊ बलात्‍कार की घटना के अपराधियों को यदि गोली मार दी जाये, तो ऐसी ही मानसिकता वाले दूसरे वहशियों में कम से कम भय का संचार तो होगा। बलात्‍कार या हत्‍या के ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जिनमें अपराधी को बर्बर पशु जैसा न माना जाये। ऐसे मामलों में फाँसी उचि‍त नहीं, लेकिन कुछ मामले तो ऐसे होते ही हैं, जिनमें अपराधी का जीने का हक़ छीन लेना ही समाज और मानवता के हक़ में होता है।
मानती हूँ कि ऐसे पशु बन चुके लोग भी सामाजिक ढाँचे की ही उपज होते हैं, लेकिन इस तर्क के आधार पर दिल्‍ली बलात्‍कार काण्‍ड और लखनऊ बलात्‍कार काण्‍ड के अपराधियों को छुट्टा नहीं छोड़ा जा सकता। और फिर यह भी तो एक तथ्‍य है कि इसी सामाजिक व्‍यवस्‍था में उनसे जेल भुगतकर सुधर जाने की भी आशा नहीं की जा सकती।
नोयडा में बच्चि‍यों के साथ बलात्‍कार और हत्‍या के बाद उनका मांस खाने वाले वहशियों को भी जिन्‍दा रखने का कोई औचित्‍य नहीं।
राजनीतिक प्रतिबद्धता के चलते की गयी हथियारबंद कार्रवाई में यदि कोई इंसान की जान लेता है या आतंकवादी कार्रवाई करता है तो उसे फाँसी की सजा देना तो राज्‍यसत्‍ता का प्रतिशोध है, लेकिन सुवि‍चारित तरीके से यदि कुछ लोग नस्‍ली जनसंहार करते हैं तो उन्‍हें तो गोली से उड़ाया ही जाना चाहिए। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ऐतिहासिक न्‍यूरेम्‍बर्ग मुकदमे में जिन शीर्ष नात्‍सी नेताओं को फाँसी दी गयी, वह सर्वथा उचि‍त थी।
हम कम्‍युनिस्‍ट, राज्‍यसत्‍ता के विरुद्ध किसी भी रूप में युद्ध चलाने वालों को राजनीतिक बंदी का दर्जा देने और उनके मामले में जेनेवा कन्‍वेंशन के प्रावधानों को लागू करने की माँग करते हैं और ऐसे किसी मामले में फाँसी की सजा का विरोध करते हैं। यह हमारी वर्गीय पक्षधरता है। लेकिन हर मामले में फाँसी की सजा का विरोध करना एक निरपेक्ष मानवतावादी स्‍टैण्‍ड है।

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