Wednesday, June 04, 2014

''उफ! ये पागल कम्‍युनिस्‍ट!!''




--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

पूँजी के कलमघसीटुओ और पूँजीवादी प्रचार मशीनरी द्वारा अनुकूलित दिलो-दिमाग वाले भद्र जनो! आप कहते हैं कि हम कम्‍युनिस्‍ट कितने अलग-थलग पड़ गये हैं, कि आपस में किस तरह खण्‍ड-खण्‍ड में बँट गये हैं, कि जनता से कट गये हैं, कि कितने खब्‍ती हैं जो अभी भी समाजवाद लाने के दिवास्‍वप्‍न देखते हैं!
सही है, हम आज पहले की अपेक्षा अलग-थलग पड़ गये हैं, पर यह युद्ध में फिलहाली हार का सामना करने वाले सेनापतियों और नई सच्‍चाइयों का संधान करते वैज्ञानिकों के साथ हमेशा होता है। वक्‍त की लहर के साथ चलने वाले अवसरवादियों, भेड़ों और बत्‍तखों के साथ नहीं होता। याद है, युद्ध लम्‍बा खिंचने और दमन तथा पराजय का सिलसिला लम्‍बा खिंचने पर जूडिया के किसानों ने भी कुछ समय के लिए अपने हरावल -- ओदोन बिन मटाथियास के पाँच बेटों को ईफ्रेम के जंगलों में अकेला छोड़ दिया था, लेकिन वे फिर लौटकर आये और उनके नेतृत्‍व में लड़े क्‍योंकि मुक्ति के लिए लड़ने और अपने उन्‍हीं सेनापतियों के पीछे चलने के अतिरिक्‍त उनके पास और कोई विकल्‍प नहीं था (समरगाथा: हावर्ड फास्‍ट)।
वैज्ञानिकों के सामने कोई नई सच्‍चाई आती है, तो उसे समझने और व्‍याख्‍यायित कर पाने  की कोशिश में उनमें मतभेद पैदा हो जाते हैं और वे आपस में बँट जाते हैं। लेकिन तर्कणा और प्रायोगिक सत्‍यापन के ज़रिए वे फिर एक साझा समझ या आम सहमति तक पहुँचते हैं। वैचारिक मतभेदों के चलते भेड़े और भेड़चाल के आदी लोग अपनी राहें अलग नहीं करते। ऐसा सिर्फ वैज्ञानिक और अन्‍वेषक ही करते हैं।
ऐसा भी होता है कि युद्ध के कुछ मोर्चे हारने के बाद 'कमाण्डिंग स्‍टॉफ' में फूट पड़ जाती है और कई बार पुराने सेनापति को हटाना भी पड़ता है और कमाण्डिंग स्‍टॉफ में नयी भरती भी करनी पड़ती है। ऐसे ही समयों में सेना से बहुतेरे भगोड़े घर का रुख कर लेते हैं, युद्ध की व्‍यर्थता पर बौद्ध भिक्षुओं की तरह उपदेश देने लगते हैं और दु:ख को चिरंतन सत्‍य बताने लगते हैं तथा कुछ ऐसे होते हैं जो बिना कोई युद्ध लड़े रक्षा-विशेषज्ञ बनकर पराजय के कारणों पर भाषण देने और शोध पत्र लिखने का काम करने लगते हैं।
सच्‍चाई यह है कि ''अतिव्‍यावहारिक'' दुनियादार सद् गृहस्‍थ दुनिया नहीं बदला करते।  दुनिया बदलने के लिए कुछ-कुछ सनकी और खब्‍ती होना ही पड़ता है। 'हमन तो इश्‍क मस्‍ताना, हमन को होशियारी क्‍या'(खुसरो)। हम समाजवाद का सपना नहीं देखते, बल्कि तर्कसंगत ऐतिहासिक आधार पर यह मानते हैं कि या तो समाजवाद या फिर मनुष्‍यता का विनाश -- मनुष्‍यता के सामने मात्र दो ही विकल्‍प हैं। यदि बलात् राज्‍यसत्‍ता का ध्‍वंस करके उत्‍पादन के साधनों के निजी स्‍वामित्‍व को समाप्‍त नहीं किया जायेगा और उनपर समूची जनता का स्‍वामित्‍व स्‍थापित नहीं किया जायेगा तो बाइसवीं सदी आने तक मुनाफे की अंधी हवस इंसान के साथ ही प्रकृति को तबाह कर देगी और उसे मुनष्‍य के रहने लायक नहीं छोड़ेगी। यदि क्रांतियों की धारा आगे नहीं बढ़ेगी तो दिशाहीन विद्रोहों, अराजकता और आत्‍मघाती खून खराबों तथा युद्धों से मानव सभ्‍यता का अस्तित्‍व ज्‍यादा से ज्‍यादा   संकटग्रस्‍त होता चला जायेगा। मानव चेतना के उन्‍नत धरातल के इस युग में देर-सबेर बहुसंख्‍यक जनसमुदाय इस बात को समझेगा और सभ्‍यता के विनाश की जगह समाजवाद का ही विकल्‍प चुनेगा। कम्‍युनिस्‍ट इस निर्णय तक पहुँचने की अवधि को सचेतन प्रयासों से कम से कम करने की कोशिश करते हैं ताकि मानवता की दुस्‍सह पीड़ा की अवधि घटाई जा सके।
अबतक का ज्ञात इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है और आगे भी वर्ग संघर्ष ही इतिहास के अग्रवर्ती विकास की कुंजीभूत कड़ी बने रहेंगे। प्रयोगों के महज प्रथम चक्र की विफलता  को विज्ञान की विफलता नहीं माना जा सकता। बीसवीं शताब्‍दी की सर्वहारा क्रांतियों की पराजय को विचारधारा की पराजय नहीं माना जा सकता। श्रम और पूँजी के बीच जारी विश्‍व ऐतिहासिक महासमर का अभी मात्र पहला चक्र समाप्‍त हुआ है। दूसरा चक्र तो अभी शुरु भी नहीं हुआ, आज हम उसकी तैयारियों के मध्‍यांतर में जी रहे हैं। प्रकृति की हर चीज़ और हर सामाजिक व्‍यवस्‍था की ही तरह पूँजीवाद भी अजर-अमर नहीं है। विश्‍व पूँजीवाद का असाध्‍य ढाँचागत संकट इसकी जराजीर्णता का ही द्योतक है। अतीत में भी क्रांतियों के प्रारम्भिक संस्‍करण अपनी महाकाव्‍यात्‍मक गरिमा और भव्‍यता के बावजूद विफल होते रहे हैं और अगले चरण की निर्णायक क्रांतियों की विजय का मार्ग प्रशस्‍त करते रहे हैं। सर्वहारा क्रांतियों के साथ भी यही हो रहा है।
जिन्‍हें कुछ करना-धरना नहीं होता, वे अपने निठल्‍लेपन के औचित्‍य-प्रतिपादन के लिए क्रांतिकर्मरत लोगों का बस नुक्‍स निकालते रहते हैं, अकर्मक सिद्धान्‍त गढ़ते रहते हैं, पराजयों पर छाती पीट-पीटकर विलाप करते रहते हैं और लड़ने वालों को ग़लतियाँ करने और हारने के लिए कोसते-सरापते रहते हैं।
आँधी में तो तिनके भी उड़ते हैं। जब क्रांति की लहर आती है तो राजनीतिक लफंगे भी क्रांतिकारी बन जाते हैं। विपर्यय और गतिरोध के ठण्‍डे समय में भी जो दिशा-संधान और प्रयोगों में अडिग-अकुण्‍ठ भाव से संलग्‍न रहते हैं, वे ही सच्‍चे क्रांतिकारी होते हैं!

No comments:

Post a Comment