Friday, May 30, 2014

सुधीश पचौरी की ''उत्‍तर'' - ग्रंथि


--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

सुधीश पचौरी के अख़बारी कॉलमों को अब मैं नहीं पढ़ती हूँ। यदि साहित्‍य और राजनीति के सुधी पाठक सुधीश पचौरी को गम्‍भीरता से पढ़ने लगें तो भाषा और विचारों की दुनिया में भी वह उतना ही गन्‍द फैलाने में कामयाब हो जायेंगे, जितनी उन्‍होंने दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय  के  कुलपति नये मुहम्‍मद तुग़लक के खा़स-उल-ख़ास सिपहसालार बनकर वहाँ प्रशासन (विशेषकर नियुक्तियाँ) के क्षेत्र में फैला रखी है।
लेकिन आज आदतन अख़बार बिछाकर खाना खाते हुए, करीब तीन माह पुराने 'राष्‍ट्रीय सहारा' के उनके स्‍तम्‍भ पर निगाह पड़ी जिसमें उन्‍होंने एक नया शब्‍द उछाला है -- उत्‍तर-उपभोक्‍तावाद, यानी 'पोस्‍ट-कंज्‍यूमरिज्‍़म'! उन्‍होंने ऑनलाइन पुराने सामान ख़रीदने-बेचने वाली एक एजेंसी के एक मानवद्रोही विज्ञापन की चर्चा की है जिससे यह मजाकिया संदेश लक्षित होता है कि पुराने सामान बेचने की झोंक में, आदतन, अपने बूढ़े बाप तक को आप ठिकाने न लगा दें! बेशक़ यह विज्ञापन पूँजीवाद की मानवद्रोही संस्‍कृति के चरम का एक उदाहरण है, पर यह उत्‍तर-उपभोक्‍तावाद क्‍या बला है?
पूँजीवाद की संस्‍कृति अपने जन्‍मकाल से ही, प्राकृतिक सम्‍पदा, मानवीय श्रम शक्ति और संस्‍कृति, विचार सहित समग्र मानवीय आत्मिक सम्‍पदा को ख़रीद-फ़रोख्‍़त की वस्‍तु  के  रूप में देखती है। इसी से पूँजीवादी समाज में पण्‍य पूजा (कमोडिटी फेटिशिज्‍़म) का वर्चस्‍व स्‍थापित होता है और इसी को हम उपभोक्‍तावाद या बाज़ार संस्‍कृति के रूप में जानते हैं। पूँजीवाद की यह संस्‍कृति सामाजिक प्राणी को केवल किसी पण्‍य वस्‍तु के विक्रेता या ख़रीदार के रूप में ही देखती पहचानती है। जब ख़रीद-फरोख्‍़त ही समाज की धुरी बन जाती है तो थोक और फुटकल व्‍यापार, वायदा कारोबार, सट्टेबाजी और माल बेचने के लिए प्रचार के नित नये रूप विकसित होते हैं और बिचौलियों के विभिन्‍न संस्‍तर अस्तित्‍व में आते हैं। ऑन लाइन खरीद-बिक्री और प्रचार की जो एजेंसियाँ अस्तित्‍व में आयी हैं, ये उपभोक्‍तावाद के विकास और विस्‍तार का एक नया रूप हैं। यह उतभोक्‍तावाद के आगे की कोई चीज़ नहीं है, बल्कि उपभोक्‍तावाद का ही चरम रूप है, अत: इसे किसी भी तरह से उत्‍तर-उपभोक्‍तावाद नहीं कहा जा सकता। लेकिन सुधीश पचौरी की उत्‍तर-विचार सरणियों से मोहात्‍पक्ति के अतिरेक से जो ''उत्‍तर''-ग्रंथि पैदा हुई है, उसके चलते वे हर शब्‍द के पीछे ''उत्‍तर''-जोड़ देने के लिए लेखनी लिए उसी तरह घूमते रहते हैं जैसे 'मॉडर्न टाइम्‍स' फिल्‍म में चार्ली चैप्लिन प्‍लायर्स लिए नट-बोल्‍ट जैसी दीखने वाली हर चीज़ को कसकर टाइट कर देने के लिए उसके पीछे भागते हैं। काश, सुधीश पचौरी जब मार्क्‍सवादी थे तो उन्‍होंने पूँजीवाद के राजनीतिक अर्थशास्‍त्र और संस्‍कृति-सिद्धान्‍तों को ध्‍यान से पढ़ा होता। तब वे शायद उत्‍तर-उपभोक्‍तावाद जैसा हास्‍यास्‍पद जुमला नहीं उछालते।
हमें प्रतीक्षा है कि सुधीश पचौरी कब स्‍वयं को ही उत्‍तर-सुधीश पचौरी घोषित करेंगे। तब उनकी व्‍याख्‍या कुछ इस प्रकार होगी -- मार्क्‍सवादी बनने के प‍हले जब वे मथुरा के 'पण्‍डीजी' थे तो प्राक्-सुधीश पचौरी थे, जलेस और शिक्षक आंदोलन में जब वे सक्रिय थे तो सुधीश पचौरी थे, जब वे देरिदा, फूको, ल्‍योतार आदि की पुस्‍तकों से अंश का अंश उठाकर उत्‍तर-आधुनिकतावाद पर थोक भाव से किताबें और मीडिया पर अख़बारी कॉलम लिखने लगे तथा दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय की भ्रष्‍ट प्रशासनिक निरंकुशता के एक पुरजे के रूप में अंधेरगर्दी मचाये हुए थे तो उत्‍तर-सुधीश पचौरी में रूपांतरित हो चुके थे।
अब उत्‍तर-आधुनिकतावाद, उत्‍तर-मार्क्‍सवाद आदि नवनीत्‍शेवादी विचार-सरणियाँ भी तीस-पैंतीस वर्षों का जीवन जीकर मंच से विदा हो रही हैं। पश्चिम में उनका बाज़ार-भाव समाप्‍त हो चुका है। जल्‍दी ही पूरब में भी इनका सिक्‍का घिस जायेगा। शायद तब बुर्जुआ विचारधारा फिर किसी नये रंग-रोगन के साथ अवतरित हो। सुधीश पचौरी तबतक दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से रिटायर हो चुके रहेंगे। तब वे फुलटाइम मीडिया-विशेषज्ञ हो जायेंगे। शायद तब वे विज्ञापन फिल्‍में भी बनाने लगें, या फिल्‍मों के स्क्रिप्‍ट लिखने लगें, या सेंसर बोर्ड के सदस्‍य या पुणे फिल्‍म-टी.वी. इंस्‍टीट्यूट के अति‍थि प्राध्‍यापक हो जायें या म.गा.हि.वि.वि. के कुलपति, या  फिर साहित्‍य अकादमी के अध्‍यक्ष! उस सुधीश पचौरी को उत्‍तरोत्‍तर-सुधीश पचौरी के रूप में जाना जायेगा!

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