Tuesday, May 06, 2014

राजेश जोशी चौर-लेखन प्रसंग में (कुछ आपत्तियों के जवाब में) कुछ और बातें



--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

राजेश जोशी और 'पखावज-वृत्‍तांत' प्रसंग पर मैंने जो कुछ भी लिखा, उससे कई लोग काफी रुष्‍ट और क्षुब्‍ध हुए हैं। मेरा ख़याल है कि हर बात ठोस तथ्‍यों की रोशनी में होनी चाहिए।
कुछ लोगों ने यह आपत्ति की है कि राजेश जोशी के साहित्यिक चौर्य कर्म की चर्चा करते हुए मैंने कई दूसरे लोगों को भी क्‍यों घसीट लिया? मेरा कहना है, आप ध्‍यान से पढ़ि‍ये, इसका मूल तर्क मेरी पोस्‍ट में मौजूद है। मेरा मानना है कि ऐसे मामलों में जो गणमान्‍य जनवादी और प्रगतिशील साहित्‍यकार गण चुप रहते हैं, वह एक सोची-समझी अवसरवादी चुप्‍पी होती है। गर्हित से गर्हित कुकर्म पर न कोई निन्‍दा होती है, न कोई बॉयकाट। और फिर कुछ दिनों बाद सबकुछ भुला दिया जाता है। यह ''मौसेरे भाइयों'' का और ''हम्‍माम के नंगों'' का आपसी व्‍यवहार नहीं, तो और क्‍या है? उदय प्रकाश, नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह, केदारनाथ सिंह, आलोकधन्‍वा आदि के जिन प्रसंगों की मैंने चर्चा की है, उन्‍हें सभी जानते हैं। काशीनाथ सिंह ने पहले बी.बी.सी. को दिये साक्षात्‍कार में मोदी का परोक्ष समर्थन किया था और अब वे पैंतरापलट करके बनारस में मोदी-विरोधी अभियान चलाने वाले संस्‍कृतिकर्मियों के साथ  खड़े हैं। कह रहे हैं कि बी.बी.सी. वालों ने उनका साक्षात्‍कार काट-छाँटकर दिखाया। बी.बी.सी. के संवाददाता ने उनका पूरा असंपादित साक्षात्‍कार सोशल मीडिया पर डाल दिया है, उसे सभी ने देखा ही होगा। अब काशीनाथ उक्‍त संवाददाता का फोन ही नहीं रिसीव कर रहे हैं, काट दे रहे हैं। गुहा नियोगी के हत्‍यारों के संस्‍थान से पुरस्‍कृत होने वाले केदारनाथ सिंह ने सैफई महोत्‍सव में पहुँचकर यह बयान दिया कि यदि 'नेताजी' प्रधानमंत्री बन जायें तो पूरे देश को सैफई जैसा खुशहाल बना देंगे। इस पर भी कहीं उनकी निंदा नहीं हुई। और भी ढेरों घटनाएँ हैं, कहाँ तक गिनाई जायें!
कौशल किशोर बहुत क्षुब्‍ध हैं कि मैने पूरी जनवादी और प्रगतिशील धारा को ही खारिज कर दिया है। उन्‍होंने मेरे ऊपर अराजकतावादी होने का ठप्‍पा लगा दिया है। वैसे तो अराजकतावाद  एक सुनिश्चित राजनीतिक सोच है और बिना सोचे-समझे किसी शब्‍द का लेबल के रूप में इस्‍तेमाल नहीं करना चाहिए। कौशल किशोर जी मुझे सर्वनि‍षेधवादी कहते तो शायद उनके आरोप के अनुकूल लेबल होता। वैसे मैं सर्वनिषेधवादी नहीं हूँ। प्रलेस, जलेस, जसम के दायरे के बाहर बहुत सारे वामपंथी रचनाकार-संस्‍कृतिकर्मी ईमानदारी से जनता के संघर्षों के साथ खड़े हैं और अपना सृजन कर्म कर रहे हैं, हम-आप उनकी राजनीतिक सोच से भले असहमत हों, पर उनके ऊपर पद-पीठ-पुरस्‍कार की जोड़तोड़ का, सत्‍ता-प्रतिष्‍ठानों के साथ मधुयामिनी का या किसी प्रकार के अवसरवाद का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
कौशल किशोर जी, अच्‍छी बात है कि आप 'रेवान्‍त' के जरिए साहित्यिक अवसरवाद के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है, आप तो जसम के भी एक जिम्‍मेदार सदस्‍य हैं! वाराणसी के विद्याश्री न्‍यास के तत्‍वावधान में (स्‍वामी करपात्री के) धर्मसंघ शिक्षा मंडल में भाजपा सांसद और धुर वाम विरोधी दक्षिणपंथी साहित्‍यकार विद्यानिवास मिश्र के जन्‍मदिन के उपलक्ष्‍य में आयोजित राष्‍ट्रीय लेखक शिविर के आयोजन में प्रलेस, जलेस के साथ ही जसम की वाराणसी इकाई की भी अग्रणी भूमिका थी। इसपर 'समयांतर' में विस्‍तृत रिपोर्ट आयी थी, जिसमें वहाँ के जसम प्रभारी बलराज पाण्‍डेय के घटिया अवसरवाद की भी चर्चा की गयी है। यदि उस आयोजन में जसम की वाराणसी इकाई की अग्रणी भागीदारी को पूरा जसम ठीक मानता है, तो पूरे जसम की राजनीति पर ही सवाल है। और यदि इस घटना पर जसम ने चुप्‍पी साध ली और अपनी वाराणसी इकाई के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की तो यह क्‍या घटिया और चालाक किस्‍म का अवसरवाद नहीं है? वैसे जसम की वैचारिक समझ का यह आलम है कि मैनेजर पाण्‍डेय से लेकर प्रणयकृष्‍ण तक को आज अज्ञेय के लेखन में भी प्रगतिशीलता के तत्‍व दीखने लगे हैं (एकमात्र अजय सिंह ने इस अवस्थिति का विरोध किया था और प्रदीप सक्‍सेना तथा मंगलेश डबराल ने भी अलग अवस्थिति से लेख लिखे थे)!
इन तीनों संगठनों में अवसरवाद को बढ़ावा मिलने का बुनियादी कारण यह है कि इनकी विचारधारात्‍मक-राजनीतिक-सांस्‍कृतिक लाइन ही दिवालिया है और ये सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य पर जनहितपूर्ति के लिए उतने ही अप्रासंगिक हो चुके हैं, जितने राजनीतिक परिदृश्‍य पर अपने-अपने संसदीय जड़वामनपंथ के चलते भाकपा, माकपा और भाकपा(मा-ले) लिबरेशन!
एक सुशीला पुरी भी हैं, जो कौशल किशोर के सुर में सुर मिलाते हुए, 'पखावज-वृत्‍तांत' प्रसंग में मेरे द्वारा वामपंथी साहित्‍यजगत में व्‍याप्‍त अवसरवादी घटाटोप की चर्चा को अराजकतावादी ही नहीं, निंदनीय मानती है! 'सूप तो सूप, बहत्‍तर छेद वाली चलनी भी हँस रही है।' सुशीला पुरी जी का सुर तो हर जगह मिल जाया करता है। लखनऊ में प्रलेस, जलेस, जसम के हर आयोजन में जोर-शोर से शिरक़त करती हैं, दूसरी ओर उदय प्रकाश की प्रचण्‍ड प्रशंसिका हैं। फेसबुक पर उदय प्रकाश से चल रही मेरी बहस में उदय प्रकाश की हर टिप्‍पणी को 'लाइक' मार रही थीं, पर फासिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ से उदय प्रकाश के सम्‍मान पाने, उस मामले में उदय प्रकाश के झूठ और गोल-मोल की पोल खुल जाने और समाजवाद और समाजवादी यथार्थवाद पर तोहमत लगाने के लिए उनके द्वारा एकदम ग़लत-सलत तथ्‍य दिये जाने पर (जिन्‍हें मैंने संदर्भों और तथ्‍यों सहित सिद्ध किया था) सुशीला पुरी ने कोई स्‍टैण्‍ड नहीं लिया। चुप लगा गयीं। पता ही नहीं चला कि उदय प्रकाश के इन कारनामों को उन्‍होंने कितना 'लाइक' किया!
सुशीला पुरी जी, आपसे यह सवाल तो बनता ही है कि 'पार्टनर, तुम्‍हारी पॉलिटिक्‍स क्‍या है?' बल्कि सवाल यह भी बनता है कि विचारधारा को ताक पर रखकर हर धारा और हर खेमे के लब्‍ध प्रतिष्‍ठों से सम्‍पर्क बनाने के अतिरिक्‍त आपकी कोई 'पॉलिटिक्‍स' की समझ है भी या नहीं?
कौशल किशोर जी, यदि साहित्यिक अवसरवाद विरोधी आपकी मुहिम को ऐसे ही बेपेंदी के लोटों के समर्थन से आगे बढ़ना है, तब तो उसका बंटाढार हुआ ही समझिए!
कुछ अन्‍य साथियों की यह धारणा है कि रचनाकार को रचना के आधार पर आँका जाना चाहिए, न कि उसके व्‍यक्तिगत आचरण से। मैं इससे सहमत नहीं। पहली बात, यदि कोई सिद्धहस्‍त रचनाकार फासिस्‍ट हत्‍यारों के साथ किसी भी रूप में खड़ा हो तो उसकी और कठोर शब्‍दों में निन्‍दा होनी चाहिए। जुबिन मेहता चाहे जितने बड़े कलाकार हों यदि वे दुनियाभर के जनवादी कलाकारों द्वारा इस्रायल के बहिष्‍कार का साथ देने के बजाय इस्रायल के साथ खड़े हैं, या उसकी बर्बरता पर चुप हैं तो उसकी कठोर निन्‍दा होनी चाहिए। यदि कोई बड़ा कवि घोर गुण्‍डा फासिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ से सम्‍मान ग्रहण करता है, यदि कोई वरिष्‍ठ कवि घोर नारी विरोधी, घोर जातिवादी मुलायम सिंह की भूरि-भूरि प्रशंसा करता है, यदि वामपंथी आलोचना का शलाका पुरुष आर.एस.एस. के फासिस्‍ट बौद्धिक से लेकर एक गुण्‍डे तक की पुस्‍तक का विमोचन करते हुए उनका प्रशस्ति-वाचन करता है और यदि कुछ जनवादी एक भाजपाई सांसद और दक्षिणपंथी लेखक की जन्‍मतिथि पर होने वाले आयोजन में बढ़-चढ़कर भागीदारी करते हैं तो उनकी व्‍यापकतम और कठोरतम भर्त्‍सना होनी चाहिए। यही नहीं, भर्त्‍सना के पात्र वे भी हैं जो इस मामले में चतुर चुप्‍पी साध लेते हैं, लेकिन दूसरी ओर भर्त्‍सना करने वालों का ही मीन-मेख निकालकर प्रसंगान्‍तर करते हैं और प्रकारान्‍तर से पूरे मामले को 'डाइल्‍यूट' कर देने की कोशिश करते हैं।
इसी संदर्भ में, दूसरी बात। ऐसा नहीं है कि अपने निजी और सामाजिक जीवन में जो सुसंगत अवसरवादी होते हैं, उनकी रचना पर उनके जीवन का प्रभाव नहीं पड़ता। किसी बड़े यथार्थवादी कलाकार के दार्शनिक-राजनीतिक विचार और उसकी रचना में अन्‍तरविरोध हो सकते हैं (जैसे बाल्‍जाक, तोल्‍स्‍तोय, दोस्‍तोयेव्‍स्‍की आदि), पर जीवन और रचना में अन्‍तरविरोध होना मुश्किल होता है।यदि कोई कायर,गलीज,समझौतापरस्‍त सत्‍ताधर्मी है, तो (भले ही कुछ एक अच्‍छी रचनाएँ दे दे) उसकी सर्जनात्‍मकता और कला भी क्षयमान होगी ही। दूसरे, आज के समय में, विचार और रचना के बीच अन्‍तरविरोधों का निर्वहन भी एक जनपक्षधर रचनाकार के लिए संभव नहीं। हम बाल्‍जाक और तोल्‍स्‍तोय के युग से आगे निकल आये हैं।
आलोक धन्‍वा और उदय प्रकाश की ही बात ले लें, क्‍योंकि उन्‍हीं के उदाहरणों से कुछ साथियों ने आपत्तियाँ उठाई हैं। यह सही है कि जब वाम के नाम पर घोर राजनीतिक नारेबाजी वाली कविताओं का दौर था, तब आलोक धन्‍वा की कविताओं में एक ईमानदार जनपक्षधरता के अतिरिक्‍त कलात्‍मक सौष्‍ठव भी था। पर उस दौर में भी उनकी 'गोली दागो पोस्‍टर' जैसी कविताएँ भी पेटी-बुर्जुआ रोमैंटिसिज्‍़म के प्रभाव से मुक्‍त नहीं थी। क्रान्तिकारी वाम आंदोलन के बिखराव-गतिरोध का दौर आने के बाद उनकी कविताओं से वह 'पेटी-बुर्जुआ रोमैंटिक' आवेग तो क्षरित हो गया, लेकिन कलात्‍मक तराश का आग्रह शेष रह गया। नतीजतन मिसाल के तौर पर, उनकी और केदारनाथ सिंह की कविताई में कोई फ़र्क नहीं रह गया। उनकी अन्‍तर्वस्‍तु भी वर्ग संघर्ष से शांतिवाद तक जा पहुँची। और अब हाल की कविताओं में तो न अन्‍तर्य की समृद्धि है, न ही कोई अभिव्‍यंजना का अनूठापन। जहाँ तक उदय प्रकाश की बात है, अपने कई अन्‍तरविरोधों के बावजूद 'सुनो कारीगर' और 'अबूतर-कबूतर' के दौर की उनकी कहानियाँ और कविताएँ कलात्‍मक वैभव के साथ ही स्‍पष्‍ट जनपक्षधरता और सत्‍ता विरोध की रचनाएँ थीं। 'उत्‍तर-आधुनिक टर्न' लेने और मार्क्‍सवाद से मोहभंग के बाद, उनकी रचनाओं में जो कलात्‍मकता है, उनपर मार्खेज, बोर्खेज, ग्‍युंटर ग्रास आदि से लेकर पूर्वी यूरोप के कम्‍युनिस्‍ट-विरोधी कविताओं-फिल्‍मों और सार्त्र-काफ्का आदि तक के प्रभाव को लक्षित किया जा सकता है। निस्‍संदेह, उनमें कलात्‍मक तराश होती है और सतह पर देखने पर ऐसा ही लगता है कि ये रचनाएँ मानवद्रोही वृत्तियों और सत्‍ता के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं। लेकिन ध्‍यान से देखने पर एक आम प्रवृत्ति दिखती है और वह यह है कि सत्‍य का अन्‍वेषण करने वाला, न्‍याय के प्रति आग्रह रचने वाला प्राय: उदय प्रकाश की रचनाओं में अकेला होता है या अकेला पड़ जाता है और ''मारा जाना'' उसकी नियति होती है। सत्‍ता के आतंक की कलात्‍मक सृष्टि प्राय: उदय प्रकाश जादुई ढंग से करते हैं, पर जनता की अदृश्‍य समष्टिगत शक्ति और सर्जनात्‍मकता का संधान कर पाने में उनका वह शिल्‍प एकदम विफल सिद्ध होता है, क्‍योंकि उदय प्रकाश वास्‍तव में वह विश्‍वास खो चुके हैं। (जैसा कि वे स्‍वयं स्‍वीकार करते हैं) उत्‍तरआधुनिकतावादियों के इस विचार को वे मान चुके हैं कि दमनकारी सत्‍ता का हर प्रतिरोध दमनकारी सत्‍ता को ही जन्‍म देता है, वर्चस्‍व का हर प्रतिरोध वर्चस्‍व को ही जन्‍म देता है और सत्‍ता अप्रतिरोध्‍य है। अब इसी बात को वह कलात्‍मक और प्रभावी ढंग से कविता और कहानी में कहते हैं(और जनता की समष्टिगत शक्ति के प्रति अनास्‍थाशील पेटी-बुर्जुआ अवचेतन वाले एक मार्क्‍सवादी पाठक को भी वे सहज अच्‍छी लगने लगती हैं) तो इसके लिए उनकी प्रशंसा नहीं, बल्कि आलोचना ही की जायेगी। वस्‍तुओं की प्रतीति से उनका अन्‍तर्य नहीं तय होता। मार्क्‍सवाद चीजों के साथ आलोचनात्‍मक सम्‍बन्‍ध बनाने की बात करता है। मुक्तिबोध ज्ञानात्‍मक संवेदन और संवेदनात्‍मक ज्ञान की बात करते हैं। उदय प्रकाश किसी को अच्‍छे लगते हैं, इससे नहीं, बल्कि चीज़ें रचना के वैज्ञानिक विश्‍लेषण से तय होंगी।

तात्‍पर्य यह कि रचनाकार के जीवन और उसके सृजनकर्म के बीच, कुल मिलाकर, फाँक सम्‍भव नहीं। यदि वह फाँक हमें नहीं दीखती, तो हमारी दृष्टि का दोष है। दूसरे, आज के युग में एक यथार्थवादी रचनाकार की वैचारिक-राजनीतिक अवस्थिति और उसकी कलात्‍मक सर्जना के बीच भी फाँक, समग्रता में, आम तौर पर, सम्‍भव नहीं है। तीसरे, यदि कोई रचनाकार हमें प्रिय है या श्रेष्‍ठ रचनाकार लगता है(या यूँ कहें कि हम अपनी वर्गीय स्थिति से निर्मित अवचेतन एवं अभिरुचि के कारण या वैज्ञानिक विश्‍लेषण क्षमता के अभाव के कारण उसकी रचना की विसंगतियों-कमजोरियों को नहीं पकड़ पाते),तो इसका मतलब यह कत्‍तई नहीं कि अपने सामाजिक-राजनीतिक आचरण में वह यदि कोई गर्हित, अवसरवादी या प्रतिक्रियावादी आचरण करता है तो हम उसकी मुखर होकर भर्त्‍सना न करें। यदि कोई बड़ा या स्‍थापित माना जाने वाला कलाकार जीवन में जनविरोधी आचरण करता है तो उसकी तो और कठोर शब्‍दों में भर्त्‍सना की जानी चाहिए, क्‍योंकि आम लोग ऐसे कलाकार के जीवन एवं आचरण को भी अनुकरणीय मानते हैं और इससे विभ्रम का कुहासा और अधिक फैलता है।

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