--कविता कृष्णपल्लवी
यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि सत्ता प्रतिष्ठानों, मीडिया और चुनावी पार्टियों के जनविरोधी चरित्र को उजागर किया जाये। वे तो पहले से ही नंगे हैं। हमारे सामने सबसे महत्व का सवाल यह है कि इस आंदोलन को व्यावहारिक कैसे बनाया जाये? इसे किस प्रकार व्यापक आधार पर संगठित किया जाये और आगे कैसे बढ़ाया जाये?
सबसे पहले तो हमें यह समझना और स्वीकार करना होगा कि आंदोलन का सवाल किताबी या अकादमिक सवाल नहीं है। कुछ जुमले, कुछ गरमागरम हवाबाजी और सामान्य सूत्रीकरण आंदोलन की ठोस समस्याओं का हल नहीं हुआ करते। इसे अकादमिक दृष्टिकोण से केवल वही लोग देख सकते हैं जो यदा-कदा किताबों के पन्नों से निकलकर आंदोलनों में शिरकत किया करते हैं। हम पहले ही स्पष्ट कर दें कि हमारा मकसद उनकी नीयत या भावना पर सवाल उठाना नहीं वरन् उनकी पद्धति के दोष को इंगित करना है।
हमारा मानना है कि इस घटना के तीन पहलू हैं। सबसे पहले यह स्त्रियों के दमन और बर्बर उत्पीड़न से जुड़ी हुई है। दूसरे, इसका जातिगत पहलू है और चूँकि पीड़ित खेत मज़दूर हैं इसीलिए यह मज़दूर दमन-उत्पीड़न की भी घटना है। ऐसे में सबसे पहले इसे आधी आबादी के दमन-उत्पीड़न के तौर पर देखना-समझना होगा और मज़दूर संघर्षों के मुद्दों से जोड़ना होगा। जहाँ तक इसके जातिगत पहलू का प्रश्न है, निश्चय ही यह 'समान नागरिक अधिकार' का उल्लंघन है और उस हद तक इसका जनवादी अधिकार आंदोलन का चरित्र भी बनता है लेकिन इसे एक जाति विशेष का मसला बना देना या फिर जाति के पहलू पर अतिशय जोर देना एक संकीर्णतावादी दृष्टिकोण होगा। ऐसा दृष्टिकोण इस आंदोलन की समस्त संभावनाओं को बेहद संकरे दायरे में कैद करेगा और अंतत: घातक साबित होगा। दलित उत्पीड़न को केवल दलितों की लड़ाई या ब्राह्मणवादी वर्चस्व का नतीजा समझना और बताना एक अवैज्ञानिक और संकीर्णतावादी नज़रिया होगा। यह व्यापक जनवादी अधिकार आंदोलन का मसला है। यह पूँजीवादी व्यवस्था विरोधी संघर्ष का मसला है। इसी के साथ अंत में यह भी जोड़ना चाहेंगे कि अलग-अलग ग्रुपों, संगठनों की आपसी खींचातानी न सिर्फ अशोभन दृश्य पैदा करती है बल्कि पूरे आंदोलन को एक संयुक्त कमान में चलाने की पूरी प्रक्रिया को ही नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।
अब व्यावहारिक प्रश्न यह है कि इस आंदोलन को आगे कैसे चलाया जाये और एक व्यापक आधार कैसे दिया जाये! महज जंतर-मंतर से संसद मार्ग तक प्रदर्शन की सीमाओं को हम सभी जानते हैं। हरियाणा और दिल्ली में लोकसभा चुनाव हो चुके हैं, इसलिए भी चुनावी पार्टियों को भगाणा काण्ड जैसी घटनाओं पर फिलहाल ध्यान देने की ज़रूरत नहीं महसूस हो रही है। इसलिए अब हरियाणा भवन पर एक और जुझारू प्रदर्शन के बाद आंदोलन का दायरा हरियाणा में स्थानांतरित कर देना चाहिए। हरियाणा के हर जिला मुख्यालय पर भगाणा के पीड़ितों और समर्थक साथियों की टीमें संगठित करके प्रदर्शन किये जाने चाहिए और पर्चे बाँटे जाने चाहिए। यह घटना दलित उत्पीड़न के नाते जनवादी अधिकार का प्रश्न है, साथ ही यह स्त्री उत्पीड़न और मज़दूर उत्पीड़न का भी प्रश्न है, अत: सभी इंसाफपसंद और जनवादी चेतना वाले नागरिकों से साथ आने का आग्रह किया जाना चाहिए। हिसार जिला मुख्यालय पर जारी प्रदर्शन के अतिरिक्त रोहतक में हुड्डा के निवास पर भी धरना प्रदर्शन संगठित किया जाना चाहिए।
अब प्रश्न यह उठता है कि हमारी ठोस माँगें क्या होनी चाहिए? हमारे ख़याल से हमारी ये माँगें होनी चाहिए:
(1) भगाणा के सभी आरोपियों की अविलम्ब गिरफ्तारी की जाये और फास्ट ट्रैक कोर्ट में मुक़दमा चलाकर त्वरित न्याय किया जाये।
(2) इस पूरे मामले की उच्चतम न्यायालय द्वारा कमेटी गठित करके न्यायिक जाँच कराई जाये या केन्द्रीय एजेंसी द्वारा न्यायिक जाँच कराई जाये।
(3) अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति आयोग तथा महिला आयोग भी इस मामले में अविलम्ब कार्रवाई करे। साथ ही, इन दोनों आयोगों के कानूनी अधिकारों को बढ़ाकर इन्हें प्रभावी बनाने की भी माँग उठाई जानी चाहिए।
(4) हरियाणा में नवम्बर 2014 में विधानसभा चुनाव होने हैं। अत: सभी चुनावी पार्टियों को यह चेतावनी दी जानी चाहिए कि यदि इस मामले में यथाशीर्घ न्याय नहीं मिला तो पूरे हरियाणा के दलित मेहनतकश चुनाव का बहिष्कार करेंगे या 'नोटा' का बटन दबायेंगे और कोशिश की जायेगी कि अन्य मेहनतकश और इंसाफपसंद नागरिक भी ऐसा ही करें। इस चेतावनी को अमल में लाने के लिए योजनाबद्ध व्यापक 'मोबिलाइजेशन' शुरू किया जाये।
हम लोग इस पूरे आंदोलन में सक्रिय भागीदारी करते रहने के लिए तैयार हैं। हमारी अपेक्षा है कि अन्य सहभागी साथी भी इसमें सक्रिय भागीदारी बनायें रखें। केवल एक-दो दिन जंतर-मंतर या हरियाणा भवन पर पहुँचने से बात नहीं बनेगी।
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