Wednesday, April 09, 2014

मत्‍स्‍य-कन्‍या और पियक्‍कड़ों की पौराणिक कथा



यह सब लोग वहाँ अन्‍दर थे
जब वह वहाँ पहुँची, सिर से पैर तक नंगी,
यह सब लोग सुरा-पान कर रहे थे, और उसपर थूकने लग गये थे।
नदी से निकलकर नयी आयी अभी-अभी, वह कुछ न समझ सकी।
वह राह भूल गयी एक मत्‍स्‍य-कन्‍या थी।
व्‍यंग-ही-व्‍यंग से सराबोर हो रही थी उसकी दमकती देह।
अश्‍लीलता-ही-अश्‍लीलता से लांछित हो रहे थे उसके कंचन-कुच।
आँसुओं से नावाकिफ, वह न रोयी।
कपड़ों से नावाकिफ, न पहने थे उसने कपड़े,
उन्‍होंने उसके जिस्‍म को गोद-गोद दिया
सिगरेट के बचे टुकड़ों और कार्क के जले टुकड़ों से,
और मारे हँसी के लोट-पोट हो गये वह कलवरिया के फर्श पर
वह न बोली क्‍योंकि बोलने से वह नावाकिफ थी।
स्‍वप्निल प्रेम के रंग से अनुरंजित थीं उसकी आँखें,
पुखराजों से मेल खाती थीं उसकी बाहें।
मूँगिया प्रकाश में उसके ओठ निश्‍शब्‍द चल रहे थे,
और अंत में वह द्वार से निकल कर वहाँ से चली गयी।
नदी में धँसते ही, सिर से पैर तक पोर-पोर से स्‍वच्‍छ और शुद्ध हो गयी,
फिर एक बार वह दमम उठी वृष्टि में धुले सफेद पत्‍थर के समान;
और बिना सिंहावलोकन किये, फिर एक बार वह तैरी-तिरी,
तैरी-तिरी न-कुछ-की ओर, तैरी-तिरी अपने अवसान की ओर।

-- पाब्‍लो नेरूदा
(अनुवाद: केदारनाथ अग्रवाल)

2 comments:

  1. कल 11/04/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  2. यादगार कविता -बेहतरीन अनुवाद! आभार आपका भी!

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