Tuesday, March 18, 2014



मेहनतक़शों से इंसानों की तरह जीने की हर शर्त छीनकर वैभव-विलास का नन्‍दन-कानन रचने वाले पूँजीपति और तमाम परजीवी वर्ग सोचते हैं कि समाजवाद के सपनों को हमेशा के लिए दफ्न कर चुके हैं। पर सपने कभी मरते नहीं। जबतक अन्‍याय रहेगा, तबतक न्‍याय के स्‍वप्‍न जीवित रहेंगे। क्रान्तियाँ हारेंगी, रुकेंगी, बिखरेंगी, पीछे हटेंगी, पर फिर वे ताक़त जुटाकर आगे बढ़ेंगी। इतिहास की यात्रा जारी रहेगी। 
जैसा भगतसिंह ने दशकों पहले कहा था, पूँजीवादी समाज एक ज्‍वालामुखी के दहाने पर बैठा है। भूगर्भ की हलचलों का विलासरत शासकों और विमर्शरत बौद्धिकों को बहुत कम अहसास है। यह ज्‍वालामुखी फटेगा और दहकता लावा ऐश्‍वर्य-द्वीपों को धरती के गर्भ में दफ्न करके नयी मानव-सभ्‍यता की पारिस्थितिकी का सृजन करेगा। भविष्‍य की इस पुकार को क्‍या आप सुन पा रहे हैं?

शोलों के पैकरों से लिपटने की देर हैआतिशफिशां पहाड़ के फटने की देर है।
(जोश मलीहाबादी)

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