पूँजीपति ने लोकतंत्र का जाल बिछाया
फिर चुनाव का मौसम आया।
चोर, लुटेरे, डाकू सारे
घूम रहे हैं द्वारे-द्वारे
हाथ पसारे दाँत चियारे।
फिर संसद में जा पहुँचेगे
सूअर बनकर लोट लगाने।
पूँजी की सेवा कर-करके
सोने के कुछ सिक्के पाने।
इनका कपट समझना होगा।
मार्ग क्रान्ति का गढ़ना होगा।
*
पूँजी खेले ओक्का-बोक्का
सत्ता बोले तीन तलोक्का।
नेता, गाड़ी, भोंपा, झाँसा
सट्टा,जूआ, चौपड़, पाँसा।
दारू, चिकना, बोटी, ता-धा
चमचे-गुण्डे आदा-पादा।
धूमधड़क्का, पों पों पों
फट्टक फैंया, धम्मक धों।
यह चुनाव का खेला है
सोनपुर का मेला है।
मेला फिर उठ जावैगा
सब पहले सा हो जावैगा।
सुन भाई जग्गू सुन-सुन-सुन
काम की बातें मन में गुन।
कोई दल जीते-हारे
हरदम जनता ही हारे।
पर ऐसा दिन आवैगा
मेहनतक़श सबक सिखावैगा।
महाक्रान्ति की ताल बजेगी
पूँजी की फिर चिता सजेगी।
जनता की यह मति होगी
यही जगत की गति होगी।
*
आ गये फिर से चुनाव
बढ़ गये हैं सभी गुण्डों-मवालियों-दलालों-हरामियों के भाव ।
यह लोकतंत्र है मेहनतक़शों के लिए बस एक ख़ौफ़नाक कहर
सुनना छल-कपट, झूठ भरे भाषण और मतपत्रों पर लगाना मुहर ।
फिर पाँच साल सूअर लगायेंगे संसद में लोट
सरकार करेगी पूँजी की ताबेदारी और जनता पर चोट पर चोट ।
पूँजी का होता रहेगा विस्तार
जनता के दुखों का नहीं कोई निस्तार ।
बढ़ती रहेगी परजीवियों की बेनामी सम्पत्ति, चर्बी और मोटापा
बारी-बारी से झेलेंगे हम मनमोहनापा, मोदियापा या कोई और चूतियापा ।
यह सिलसिला तो जारी रहेगा जनाब!
सोचना ही होगा आपको, चुनना ही होगा: 'इलेक्शन या इंकलाब'!
*
ख़तम करो पूँजी का राज,
फिर चुनाव का मौसम आया।
लोकतंत्र की चादर ओढ़े
पूँजी ने ड्रामा फैलाया।
चोट्टे और हरामी आये
गुण्डे, शोहदे नामी आये।
दारू आयी, कम्बल आये
भाँति-भाँति के नारे आये।
जनता तो इतने वर्षों से
नौटंकी यह देख रही है।
कौन दिखाये इंक़लाब की
राह, यही बस सोच रही है।
और देर करना असह्य है
उठो, चलो, निष्क्रियता छोड़ो।
लामबंद कर मेहनतक़श को
धारा का रुख पलटो, मोड़ो।
ख़तम करो पूँजी का राज,
लड़ो, बनाओ लोक-स्वराज।
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-- कविता कृष्णपल्लवी
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