वामपंथ को कलंकित करने, हिन्दी साहित्य की अप्रतिम दुर्दशा करने और जे.एन.यू. के हिन्दी विभाग की छीछालेदर करने के लिए महाविद्वान चिन्तक, अवसरवादी नामवर सिंह के अवदान अनन्य हैं। मार्क्सवाद के साथ गुरु-चेलावाद, जातिवाद, पोंगापंथ और सत्ता-दरबार संस्कृति का उन्होंने 'विचित्र किन्तु सत्य' समागम कराया। विष्णु खरे ने ठीक लिखा था -- प्रकाशक सेठों के घर के 'रामू काका'। अब नामवर सिंह वाचिक परम्परा के संत हो गये हैं। कब किसी के बारे में अपना पुराना मूल्यांकन बदल दें, कब किसको पुदीने के झाड़ पर चढ़ा दें, कब किसको 'चुप्पी के षड्यंत्र' का शिकार बना दें और कब 'नरो वा कुंजरों' की भाषा में दी गयी स्थापना से सभा को चकित-विस्मित कर दें -- यह कोई नहीं बता सकता। जीवन, साहित्य और राजनीति में छद्म वाम से अधिक घटिया-घिनौना और कुछ नहीं होता।
--कविता कृष्णपल्लवी
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