Tuesday, March 18, 2014

नई सदी में भगत सिंह की स्मृति



एक दुर्निवार इच्छा है
या एक पागल-सा संकल्प
कि हमें तुम्हारा नाम लेना है एक बार
किसी शहर की व्यस्ततम सड़क के बीचो-बीच खड़ा होकर
एक नारे, एक विचार, एक चुनौती
या एक स्वगत-कथन की तरह,
जैसे कि पहली बार,
और अपने को एकदम नया महसूस करते हुए.
नहीं,
यह कोई क़र्ज़ उतारना नहीं,
देश की छाती से कोई बोझ हटाना भी नहीं
विस्मृति की ग्लानि का,
(वह यूं कि जब स्मृति थी
तब भी कितना था परिचय वास्तव में?)
यह तो महज़
अंधेरे में रख दिए गए एक दर्पण के बारे में
कुछ बातचीत करनी है अपने-आप से.
सोचना है कि अंधेरे तक
किस तरह ले जाया गया था वह दर्पण
और किस तरह अंधेरा लाया जा रहा है आज
हर उस जगह
जहां कोई दर्पण है.
जहां भी परावर्तन की संभावना,
किरणों का प्रवेश वर्जित है
और कहीं आग लग रही है
कहीं गोली चल रही है.*

हमें तुम्हारा नाम लेना है
उठ खड़े होने की तरह,
देश को धकापेल बनाने या
वाशिंगटन डी.सी. का कूड़ाघर बनाने की
बर्बर-असभ्य या
कला-कोविद कोशिशों के विरुद्ध.
नहीं, यह कोई भाव-विह्वल श्रद्धांजलि नहीं,
यह नीले पानी वाली उस गहरी झील तक
फिर एक यात्रा है
उग आए झाड़-झंखाड़ों के बीच
खो गया रास्ता खोजने की कोशिश करते हुए,
या शायद, कोई भी राह बनाकर वहां तक पहुंचने की जद्दोजहद भी है,
या शायद ऐसा कुछ
जैसे हम किसी विचार के छूटे हुए सिरे को
पकड़ते हैं
आगे खींचने के लिए.

हमें तुम्हारा नाम लेना है
इसलिए नहीं कि तुम्हारे नामलेवा नहीं.
संसद के खम्भे भी तुम्हारा नाम लेते हैं
बिना किसी उच्चारण दोष के
और वातानुकूलित सभागारों में
तुम्हारी तस्वीरें हैं और फूल मालाएं हैं
और धूपबत्तियों का खुशबूदार धुआं है.
एक ख्यातिलब्ध राजनयिक कहता है
कि तुम प्रयोग कर रहे थे क्रांति के साथ
और बाज़ार सुनता है
और रक्त-सने हत्यारे हाथों से
विमोचित हो रही है
तुम्हारी शौर्य-गाथा पर आधारित नई बिकाऊ किताब
और एक बूढ़ा विलासी पियक्कड पत्रकार
अपने अखबारी कालम में तुम्हें याद करता हुआ
अपने पूर्वजों के पाप धो रहा है.

हमें तुम्हारा नाम लेना है
कि वे लोग खूब ले रहे हैं तुम्हारा नाम
जिन्हें खतरा है
लोगों तक पहुंचने से तुम्हारा नाम
सही अर्थों में.
इसलिए सुनिश्चित ऐतिहासिक अर्थों का
संधान करते हुए
हमें फिर थकी हुई नींद में डूबे
घरों तक जाना है लेकर तुम्हारा नाम.
कई बार हमें विचारों को कोई नाम देना होता है
या को संकेत-चिह्न
और हम मांगते हैं इतिहास से ऐसा ही कोई नाम
और उसे लोगों तक
विचार के रूप में लेकर जाते हैं.

हमें तुम्हारा नाम लेना है
एक बार फिर
गुमनाम मंसूबों की शिनाख्त करते हुए
कुछ गुमशुदा साहसिक योजनाओं के पते ढूंढते हुए
जहां रोटियों पर मांओं के दूध से अदृश्य अक्षरों में लिखे
पत्र भेजे जाने वाले हैं, खेतों-कारखानों में दिहाड़ी पर खटने वाले पच्चीस करोड़ मज़दूरों,
बीस करोड़ युवा बेकारों,
उजड़े बेघरों और आधे आसमान की ओर से.
उन्हें एक दर्पण, नीले पानी की एक स्वच्छ झील,
एक आग लगा जंगल और धरती के बेचैन गर्भ से
उफनने को आतुर लावे की पुकार चाहिए.
गंतव्य तक पहुंचकर
अदृश्य अक्षर चमक उठेंगे लाल टहकदार
और तय है कि लोग एक बार फिर इंसानियत की रूह में
हरक़त पैदा करने के बारे में सोचने लगेंगे.**

तुम्हारा नाम हमें लेना है
उस समय के विरुद्ध
जब सजीव चीज़ों में निष्प्राणता भरी जा रही है
एक उज्ज्वल सुनसान में
जहां रहते हैं शिल्पी और सर्जक बस्तियां बसाकर,
और कभी दिन थे, जब हालांकि अंधेरा था,
पर अनगिन कारीगर हाथों ने
मिटटी, राख, रक्त, पानी, धूप और कामनाओं-संकल्पों से-
स्मृतियों-सपनों को गूंथकर गढे थे लोग
विचारों ने बनाया था जिन्हें सजीव-गतिमान.
तुम्हारा नाम हमें लेना है
कि अधबने रास्ते कभी खोते नहीं,
हरदम कचोटते रहते हैं वे दिलों में
जागते रहते हैं
और पीढ़ियों तक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा के बाद
वे फिर आगे चल पड़ते हैं
और जब भी
पहुंचते हैं अपनी चिर वांछित मंज़िल तक,
तो वहां से
एक नई राह आगे चलने लगती है.

तुम्हारा नाम हमें लेना है
विस्तृत और आश्चर्यजनक सागर पर विश्वास करते हुए और
इतिहास का लंगर छिछले पानी में डालने की***
कोशिशों के खिलाफ़,
और विचारों के खिलाफ़ जारी
चौतरफ़ा युद्ध के खिलाफ़
और उम्मीद जैसे शब्दों को
संग्रहालयों में रख देने के खिलाफ़.
...या तो हमें कविता में लानी है यह बात
या फिर किसी भी तरह की काव्यकला के
आग्रह के बिना ही कह देना है कि
यह सत्ता पलट देनी होगी
जो पूरी नहीं करती हमारी बुनियादी ज़रूरतें
और छीनती है हमारे बुनियादी अधिकार****
और विद्वज्जन हैं कि मुख्य सडकें छोड़कर
पिछवाड़े की गंदगी और कूड़े भरी गलियों से होकर
आ-जा रहे हैं
ढूंढते हुए कविता का अर्थात
मेर्कूरी अव्देविच की तरह*****
और तकिये में सोने की गिन्नियां छुपाए
तीर्थाटन पर निकलने को तैयार हैं भिक्षुवेश में
यदि समय कोई ऐसा वैसा आ-जाए तो.
...बल्कि सबसे अच्छा तो यह होगा कि
बेहद ईमानदार निजी दुखों, प्यार, राग, आदिम सरोकारों,
शब्दों, तरलता, मौन, चिंतन के अकेलेपन,
जनता के सुनसान, पुरस्कार-कामना-बोझिल मन,
सीढ़ियों, रस्सियों, नक़बजनी के औज़ारों और
निर्लिप्त खबरों से भरी
धूसर, चमकीली या सांवली-सलोनी निर्दोष-सी कविताओं के
पाठ के बाद, किसी शाम, जब अपनी बारी आए
तो बस दुहरा दिए जाएं
तुम्हारे ये सीधे-सादे शब्द :
"इंकलाब जिंदाबाद!"

शशिप्रकाश

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