Wednesday, March 19, 2014

गरुड़ की उड़ान





- कविता कृष्‍णपल्‍लवी


"बौद्धिक विमर्श के आँगन में घरेलू मुर्गियों ने काफ़ी चीख-पुकार मचा रखी है। 
पर्वतीय गरुड़ शत्रु से जूझते हुए लहूलहुान, घायल , एक चट्टान पर पंख फैलाये पड़ा है। वह शत्रु के हाथों पाये जख्‍़मों से अधिक आने वाले दिनों के अभियानों और संघर्षों के बारे में सोच रहा है।
शायद वह स्‍वस्‍थ होकर फिर से आकाश की ऊँचाइयों को चूमने के बारे में सोच रहा है। शायद वह अपने बच्‍चों के बड़े होकर शत्रुओं से जूझने के भविष्‍य-स्‍वप्‍नों में डूबा हुआ है।
आँगन की कुछ मुर्गियाँ उसके पागलपन पर हँस रही हैं...
क्‍या फ़ायदा इसतरह के जोखिम उठाने में, यह भी भला जीने का कोई तरीक़ा है, मौत के ख़तरों और अनिश्‍चय से भरा हुआ!!
कुछ मुर्गियाँ आसमान में उड़ने के ही विरुद्ध हैं।
कुछ सीमित ऊँचाई और सीमित दायरे का आसमान चुनकर उड़ने के पक्ष में हैं।
कुछ गारण्‍टीशुदा सुरक्षित उड़ानों और बिना कोई जोखिम लिये शत्रु पर फ़तह हासिल करने की तरक़ीब खोज निकालने का दावा कर रही हैं।
कुछ का कहना है कि अब समय वैसी उड़ानों और युद्धों का नहीं रहा।
कुछ का कहना है कि फिलहाल ऐसी चीज़ें मुमकिन नहीं।
कुछ का कहना है कि पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण जल्‍दी ही पर्वतीय गरुड़ विलुप्‍त हो जायेंगे।
फिर ज़माना सिर्फ़ आँगन की मुर्गियों का, बत्‍तखों, बुलबुलों, बटेरों और पण्‍डूकों का होगा।
विमर्श लगातार जारी है।
सेमिनार-सिम्‍पोजियम-कोलोक़ियम हो रहे हैं।
पुस्‍तकालयों में बस मुर्गियों की कुड़क-कुड़क ही सुनाई दे रही है।
पर्वतीय गरुड़ पुरानी चोटों से उबर कर नयी ओजस्विता और तूफ़ानी वेग के साथ फिर से शत्रु पर टूट पड़ने के संकल्‍प बाँध रहा है।

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