Friday, March 07, 2014

चुनावी अफरातफरी और भगदड़ के बीच बुर्ज़ुआ वर्ग के वि‍कल्‍प और मोदीत्‍व के मायने


--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

दलितवादी संसदीय राजनीति के धुरंधरों ने एक बार फिर अपना घृणित चेहरा दिया दिया। उदित राज तो सीधे भाजपा में जा कूदे। रामविलास पासवान ने मोर्चा बना लिया। उधर द्रमुक भी भाजपा के प्रति नरम रुख दिखा रहा है।
मोदी 'हुंकार', 'विजय', 'फतह', 'रणघोष' आदि-आदि नामों की रैलियाँ करते हुए देश भर में उड़ रहे हैं। मंदिर कार्ड, मुस्लिम कार्ड, दलित कार्ड, पिछड़ा कार्ड, विकास के लुभावनों सपनों के कार्ड -- अलग-अलग चेहरों और मोर्चों या अनुषंगी संगठनों को आगे करके संघ परिवार ये सभी कार्ड एक साथ खेल रहा है। रावण दस मुँहों से एक साथ हँसता था, संघ परिवार का फासिस्‍ट राक्षस अठारह मुँहों से अठारह बातें बोलता है।
भारतीय पूँजीपति वर्ग दुविधा और संशय के बावजूद फिलहाल मुख्‍य दाँव मोदी पर ही खेल रहा है। 'स्‍ट्रांग नियोलिबरिज्‍़म वर्सेज़ क्‍लीन नियोलिबरिज्‍़म' -- इन विकल्‍पों में फिलहाल पहले का पलड़ा कुछ भारी है। यदि तीसरा मोर्चा उभरता है तो उसे 'क्‍लीन नियोलिबरिज्‍़म' के नये मसीहा केजरीवाल का भी साथ ''भ्रष्‍टाचार मुक्ति'' की शर्तों पर मिल सकता है। उधर अन्‍ना हजारे समर्थित ममता बनर्जी भी हैं, जो किसी भी ओर लुढ़क सकती हैं। व्‍यवस्‍था का संकट चुनावी परिदृश्‍य पर साफ दीख रहा है, पर इन सब नाटकीय घटनाक्रमों के बीच सामाजिक राजनीतिक ज़मीन पर धार्मिक कट्टरपंथी फासीवाद तेजी से मजबूत हो रहा है और अभूतपूर्व गति से फैल रहा है।
मोदी के तौर-तरीके काफी हद तक हिटलर और मुसोलिनी वाले हैं। मोदी की मूर्खताओं और झूठों की खिल्‍ली उड़ाये जाने मात्र से कुछ नहीं होने वाला है। हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद के विरुद्ध ज़मीनी स्‍तर पर व्‍यापक अभियान चलाने होंगे,पर्चे निकालने होंगे, गली-कूचों में अभियान चलाने होंगे, राहुल सांकृत्‍यायन और भगतसिंह की परम्‍परा को पुनर्जीवित करते हुए जुझारू प्रगतिशील, सेक्‍युलर युवाओं-छात्रों को संगठित करना होगा। असली लड़ाई फासिस्‍टों के साथ चुनावी दायरे से बाहर सड़कों पर होगी।
मुजफ्फरनगर में भड़कायी  गयी आग को जिलाये रखने के लिए अब दंगा भड़काने के आरोपियों को स्‍टार बनाकर घुमाया जा रहा है। भाजपा को उम्‍मीद है कि इस बार जाट वोट बैंक लूट लेने की पूरी उम्‍मीद है। फिर अजीत सिंह का क्‍या, वे अपने दो-तीन लोगों के लिए उनकी थाली में लुढ़क ही आयेंगे। एक ओर भाजपा अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह अतीत की गलतियों के लिए मुस्लिम आबादी से ''माफी'' माँग रहे हैं दूसरी ओर उसके खिलाफ आर.एस.एस. का प्रचारतंत्र ज़मीनी स्‍तर पर बेहद सक्रिय है। पूरे देश में यह व्‍यापक प्रचार किया जा रहा है कि 'लव जेहाद' चलाकर मुस्लिम युवाओं को हिन्‍दू लड़कियों को फुसला-बहकाकर शादी के लिए मना लेने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यह प्रचार फिर जोरों पर है कि मुस्लिम ज्‍यादा बच्‍चे पैदा करते हैं और 2050 तक देश एक मुस्लिम बहुल देश हो जायेगा। बांग्‍ला देश से आये आप्रवासी मुस्लिमों की संख्‍या को दस गुने तक बढ़ाकर बताया जा रहा है। संघ प्रमुख और विहिप प्रमुख हिन्‍दुओं को कम से कम पाँच बच्‍चे पैदा करने की सलाह दे रहे हैं। आम फासिस्‍ट रणनीति के ही अनुसार, मोदी अपनी आर्थिक नीति की तफ़सीलों का खुलासा किये बिना मँहगाई, भ्रष्‍टाचार और बेरोजगारी से तंग मध्‍यवर्गीय आबादी को, इन समस्‍याओं को चुटकी बजाते हल कर देने के लोकरंजक हवाई नारे-नुस्‍खे देकर लुभा रहा है। निम्‍न मध्‍यवर्गीय निराश युवाओं के अतिरिक्‍त इतिहास बोध से रहित, जड़ों से कटी हुई, कारपोरेट संस्‍कृति में रची-पगी महानगरीय खुशहाल मध्‍यवर्गीय युवा पीढ़ी को भी मोदी के सुप्रबंधन, तरक्‍की आदि के खोखले दावे काफी अपील कर रहे हैं। गाँवों में तेजी से फली-फूली धनी और खुशहाल मध्‍यम किसान आबादी अपनी प्रकृति से ही जनवादी नहीं है। उसे मोदी की राजनीति अपील कर रही है। पटेल का ''नायकत्‍व'' उभारकर मोदी जाति का कार्ड भी (ज्‍यादातर खाते-पीते मालिक किसान मध्‍य जातियों के हैं) बखूबी खेल रहा है। चरण सिंह से लेकर टिकैत तक की पारम्‍परिक, नरोदवादी किसानी राजनीति के विघटन के बाद, मालिक किसानों का बड़ा हिस्‍सा आज फासीवाद का सामाजिक आधार बन रहा है। उधर पंजाब में अकाली दल और हरि‍याणा में चौटाला की इनेलोद भाजपा के साथ खड़ी ही है। भाजपा का पारम्‍परिक सामाजिक आधार जो एक हद तक सवर्णों में (सवर्ण भूस्‍वामी और मध्‍यवर्ग) और काफी हद तक वणिक जातियों में था, उसे बनाये रखने में विहिप जैसे आर.एस.एस. के अनुषंगी संगठनों के अतिरिक्‍त बाबा रामदेव हैं, पूर्वी उत्‍तर-प्रदेश में योगी आदित्‍यनाथ हैं और महाराष्‍ट्र में शिवसेना जैसे सहयोगी हैं। इधर दलितों को भरमाने और मुसलमानों को ''अन्‍यथा'' वाली धमकी के साथ पुचकारना भी जारी है।
नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने मज़दूरों की एक बड़ी आबादी को अंशत: या पूर्णत: उत्‍पादन प्रक्रिया से बाहर कर दी गयी मज़दूरों की जो ''अतिरिक्‍त आबादी'' विमानवीकरण की चपेट में आ रही है, उसे भी मिथ्‍याभासी चेतना देकर हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍ट तेजी से अपने प्रभाव में ला रहे हैं।
असाध्‍य ढाँचागत संकट से त्रस्‍त और मुनाफे की घटती दर की क्रॉनिक समस्‍या से जूझता हुआ भारतीय पूँजीपति वर्ग मज़दूरों से डंडे के जोर पर अधिशेष निचोड़ने के लिए व्‍यग्र है। साम्राज्‍यवादियों की भी यही स्थिति है। इसके चलते भारतीय बुर्ज़ुआ राजनीति और समाज में बर्ज़ुआ जनवादी स्‍पेस सिकुड़ रहा है, श्रम कानून बेमानी हो चुके हैं। देशी-विदेशी पूँजी नवउदारवादी नीतियों को सरपट दौड़ाने के लिए एक निरंकुश दमनकारी सत्‍ता चाहते हैं। गुजरात का मॉडल उन्‍हें लुभा रहा है। इसीलिए ज्‍यादातर कारपोरेट घराने इसबार मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पक्ष में हैं। वे फासीवाद का जंजीर से बँधे कुत्‍ते के समान इस्‍तेमाल करना चाहते हैं, पर जंजीर छुड़ाकर ये कुत्‍ता उत्‍पात भी मचा सकता है। हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍टों का मुख्‍य मकसद साम्‍प्रदायिक उन्‍माद भड़काकर मज़दूर वर्ग और समूची मेहनतकश आबादी की रही-सही वर्गीय एकजुटता को भी तोड़ना है, ताकि आने वाले पूँजीवादी संकट के दौर में होने वाले जन विस्‍फोटों की सम्‍भावनाएँ क्षीण की जा सकें और ऐसे जनउभारों को आसानी से कुचला जा सके। मोदी के असली निशाने पर, हिटलर, मुसोलिनी की ही तरह मज़दूर वर्ग है। पूँजीपति यह नहीं चाहेंगे कि साम्‍प्रदायिक रक्‍त-पात पूरे देश में पूँजी निवेश का माहौल बिगाड़ दे। लेकिन फासीवादी रणनीति के परिणाम उनकी चाहत और नियंत्रण से स्‍वतंत्र होकर पूरे देश को विनाश की खाई में धकेल सकते है।
भारतीय पूँजीपतियों की मुख्‍य पार्टी कांग्रेस की समस्‍या यह है कि नवउदारवादी नीतियों पर अमल के सारे दुष्‍परिणामों का ठीकरा उसके सिर फूटना ही है। असीम भ्रष्‍टाचार की गलाजत की जिम्‍मेदारी उसके मत्‍थे आना ही है। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों पर मनरेगा, खाद्य सुरक्षा आदि के जरिए जो ''मानवीय मुखौटा'' लगाने की कोशिश की गयी, विफलता उसकी नियति थी। भाजपा के गाढ़े भगवा की जगह हल्‍के भगवा की जो राजनीति कांग्रेस पहले खेल चुकी है, उसकी अब गुंजाइश नहीं है और मुस्लिम आबादी का एकजुट वोट अपने पक्ष में ला पाना उसके लिए असम्‍भवप्राय है। नरेन्‍द्र मोदी के ''कल्‍ट'' के सामने वह राहुल गाँधी का ''कल्‍ट'' खड़ा करने की विफल कोशिश कर रही है।
भाकपा, माकपा आदि संसदीय वामपंथी पार्टियाँ फासीवाद के खिलाफ चीख-पुकार तो खूब मचा रही हैं, लेकिन तदविषयक विश्‍व ऐतिहासिक अनुभवों को तकिये के नीचे दबाकर ये महज तीसरे मोर्चे की चुनावी रणनीति के जरिए और साम्‍प्रदायिकता-विरोधी सम्‍मेलन का अनुष्‍ठान करके फासीवाद का मुकाबला करना चा‍हती है। ज़मीनी तैयारी पर कोई ध्‍यान नहीं है। इनके छात्र-युवा संगठन कहीं भी फासिस्‍टों के खिलाफ जुझारू मुकाबले की तैयारी में नहीं है। मज़दूर वर्ग के बीच कहीं भी फासीवाद विरोधी प्रचार का कोई कार्यक्रम तृणमूल स्‍तर पर अमल में नहीं दीखता। इन दलों के बुद्धिजीवी मुखपत्रों में और बौद्धिक पत्रों में फासीवाद के खिलाफ (प्राय: अंग्रेजी भाषा में) लेख आदि खूब लिखते हैं, सेमिनार में खूब बोलते हैं (हालांकि वहाँ भी फासीवाद विरोधी सामाजिक-जनवादी रणनीति ही पेश करते हैं), लेकिन आम लोगों के लिए पर्चे आदि निकालकर व्‍यापक जन-राजनीतिक अभियान एकदम नहीं चलाये जाते। यही वे पार्टियाँ हैं जो पंजाब में खालिस्‍तानी आंदोलन के दौर में माँदों में दुबक गयी थीं। इनके नेता कमाण्‍डों सुरक्षा में चलने  लगे थे। सड़कों पर खालिस्‍तानी दहशतगर्दों से मोर्चा केवल और केवल, बिखरे होने के बावजूद, कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी ताकतों ने ही लिया था। दरअसल ये संशोधनवादी पार्टियाँ अपने क्रान्तिकारी चरित्र को खोने के साथ ही, फासिस्‍टों से सड़कों पर मुकाबला करने का दमखम पहले ही खो चुकी हैं। इनका सेक्‍युलरिज्‍म दंतनखहीन है, सूफियाना मिजाज़ का है। ये गहरे पराजय बोध से ग्रस्‍त हैं। ये सिर्फ भारतीय संविधान और बुर्ज़ुआ जनवाद की दुहाई देते हुए उन्‍हीं चौहद्दियों के भीतर हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद का विरोध करते रहेंगे। इनका चरित्र और व्‍यवहार 1920 और 1930 के दशक के यूरोपीय सामाजिक जनवादियों से ज़रा भी भिन्‍न नहीं लग रहा है।
वामपंथियों द्वारा तीसरे मोर्चे के नाम पर जो 'भानुमती का कुनबा' जोड़ा जा रहा है, उसके संघटक दलों पर निगाह डालना दिलचस्‍प होगा। दिल्‍ली में इनके जमावड़े में दक्षिण के जितने दल थे, वे कभी न कभी भाजपा के साथ सेज सजा चुके हैं। नीतिश कुमार अभी तक भाजपा के साथ थे। गुजरात नरसंहार के समय भी वे केन्‍द्र की राजग सरकार में मंत्री थे। उन्‍हें केवल मोदी ही हिटलर लगता है। अयोध्‍या से हिन्‍दुत्‍ववादी उभार के प्रथम चरण का शंखनाद करने वाले आडवाणी भी आज उन्‍हें 'सेक्‍युलर' लगते हैं। उनकी खुद की धर्मनिरपेक्षता का आलम यह है कि केसरिया (पूर्वी चंपारण) में 110 एकड़ में 'संसार के सबसे बड़े मंदिर' के दावे के साथ राम मंदिर बनने की जो घोषणा हुई है, पिछले दिनों पटना के महावीर मंदिर में आयोजित समारोह में उन्‍होंने शंकराचार्य स्‍वामी स्‍वरूपानंद सरस्‍वती की उपस्थि‍ति में उसके स्‍वरूप  का अनावरण किया। यह है नीतिश कुमार की धर्मनिरपेक्षता! 'संसार के सबसे बड़े मंदिर' से वे एक ओर 'संसार की सबसे बड़ी मूर्ति' का जवाब दे रहे हैं, दूसरी ओर केसरिया के राम मंदिर से अयोध्‍या के राममंदिर की राजनीति का जवाब देते हुए खुद को भी रामभक्‍त साबित करना चाहते हैं। दरअसल, लोहिया-जयप्रकाश के ज़माने से ही, नीतिश-ब्राण्‍ड समाजवादियों को हिन्‍दुत्‍ववादियों के साथ मौका पड़ते ही गलबँहियाँ डालने की आदत रही है। मोदी का साथ यदि नीतिश ने छोड़ा है, तो इसका एकमात्र कारण आज के बिहार का चुनावी गणित है और राष्‍ट्रीय राजनीति में नीतिश की अपनी छुपी हुई महत्‍वाकांक्षाएँ हैं।
जहाँ तक मुलायम सिंह की पार्टी का सवाल है, उत्‍तर प्रदेश में उसकी राजनीति भी वोटों के साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण पर ही टिकी है। मुजफ्फनगर की आँच पर भाजपाई रोटियाँ ही नहीं, सपाई रोटियाँ भी सिंक रही हैं। अयोध्‍या की गर्मी से सपाई चुनावी गोट भी लाल होगी।
इन्‍हीं दुरंगे मौकापरस्‍त क्षेत्रीय बुर्ज़ुआ पार्टियों और पुराने सामाजिक जनवादियों की पतित जारज संतानों को लेकर नये सामाजिक जनवादी -- संसदीय वामपंथी हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद के नये उभार का मुकाबला करना चाहते हैं। भाकपा (मा-ले) लिबरेशन  को भी इन नीतियों से कोई बुनियादी परहेज नहीं है। आखिर ''व्‍याप‍क वाम एकता'' के पुराने पैरोकार जो ठहरे (भले ही कोई उन्‍हें घास न डाले)। उनकी शिकायत तो मात्र इतनी ही थी कि उन्‍हें न्‍यौता ही नहीं गया। उनकी शिकायत मात्र इतनी थी कि दिल्‍ली के साम्‍प्रदायिकता विरोधी सम्‍मेलन में भाजपा के साथ हाल तक सरकार चलाने वाले नीतिश कुमार तो स्‍टार वक्‍ता थे, लेकिन लालू और पासवान तक को नहीं बुलाया गया। पासवान के लिए तो यह अच्‍छा ही रहा। अन्‍यथा भाजपा से गाँठ जोड़ने में उन्‍हें दिक्‍कत होती।
आज स्थिति चाहे जितनी खराब हो अन्‍ततोगत्‍वा संगठित मज़दूर वर्ग और उनकी अगुवाई में अन्‍य मेहनतकश वर्गों और निम्‍न मध्‍यवर्ग का मोर्चा ही ज़मीनी स्‍तर पर फासीवाद का मुकाबला करेगा और उसे धूल चटायेगा। हमारा सर्वोपरि जोर इस समय अर्थवाद-संशोधनवाद द्वारा राजनीतिक रूप से निश्‍शस्‍त्र कर दिये गये मज़दूर वर्ग को राजनीति देने और राजनीतिक संघर्षों में उतारने पर होना चाहिए। फिर सांस्‍कृतिक वैचारिक प्रचार कार्य को सघन और व्‍यापक बनाना होगा। छात्रों-युवाओं-स्त्रियों के नये जन संगठन ही नहीं 'मुकाबला दस्‍ते' भी बनाने होंगे। फासीवाद विरोधी जो विशिष्‍ट कार्यभार हैं, वे पूँजीवाद विरोधी संघर्ष की नये सिरे से तैयारी के कार्यभारों से अलग नहीं है, उसी का अविभाज्‍य अंग है।

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