Friday, January 17, 2014

हमारे समय की सभ्‍यता-समीक्षा के बारे में


--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

आज से तकरीबन आठ-नौ दशक पहले, जब जर्मनी और इटली में फासीवाद बर्बरता के नये कीर्तिमान स्‍थापित कर रहा था, उससमय समूचे यूरोपीय और अमेरिकी समाज में चरम मानवद्रोही और सर्वनिषेधवादी प्रवृत्तियों ने अपने चपेट में ले लिया था। दर्शन-कला-साहित्‍य-संस्‍कृति के क्षेत्र में मानवता के उज्‍ज्‍वल भविष्‍य की कामनाओं और स्‍वप्‍नों के स्‍थान पर मनुष्‍यता के अन्‍धकार युग की विरुदावलियों और चरम निराशावाद का बोलबाला था। मानवीय उदात्‍तताओं के स्‍थान पर मानवीय तुच्‍छताओं को प्रतिष्‍ठापित करते हुए 'तुच्‍छता  का सौन्‍दर्यशास्‍त्र' रचा जाने लगा था। गहन अवसाद और निराशा में डूबे फिलिस्‍टाइन बुद्धिजीवी ने घोषणा कर डाली थी कि 'हमारा समय बड़े-बड़े कार्यभारों का समय नहीं है।' भविष्‍य के प्रति पूर्ण अनास्‍थाशील, आत्‍म-अलगाव, आत्‍मरति और पाशविक आनंदोपभोग के शिकार तथा आत्मिक बंजरता से ग्रस्‍त इस फिलिस्‍टाइन के बारे में तब मक्सिम गोर्की ने लिखा था: ''फिलिस्‍टाइन कालातीत हो चुकी सच्‍चाइयों के क़ब्रिस्‍तान का एक जराजीर्ण रात्रिकालीन प्रहरी बन चुका है और जो स्‍वयं ही इतना अशक्‍त है कि न तो अपने काल की सीमा को लाँघकर, जो अतिजीवी के रूप में बचा हुआ है, उसमें पुन: प्राण‍प्रतिष्‍ठा  कर सकता  है और न कुछ ऐसा सृजित कर सकता है जो नवीन हो।''
उस समय यदि कहीं कुछ नया और सकारात्‍मक सृजित हो रहा था, यदि जिजीविषा और युयुत्‍सा का कोई नया सौन्‍दर्यशास्‍त्र रचा जा रहा था, तो पृथ्‍वी के उन भूभागों में, जहाँ राष्‍ट्रीय मुक्ति युद्ध  चल रहे थे, या जहाँ समाजवाद आगे डग भर रहा था। पश्चिम में भी सिर्फ उन्‍हीं बुद्धिजीवियों में कुछ रचनात्‍मकता बची थी, जो समाजवाद के आदर्शों से प्रभावित थे।
आज से आधी शताब्‍दी या एक शताब्‍दी बाद कोई यदि वर्तमान समय की सभ्‍यता-समीक्षा लिखने की कोशिश करेगा तो इसे पूँजीवादी सभ्‍यता के बर्बरतम-जघन्‍यतम-अनुर्वरतम अंधकार युग के रूप में ही चित्रित करेगा। बीसवीं शताब्‍दी की प्रथम समाजवादी प्रयोग-श्रृंखला की पराजय के बाद और राष्‍ट्रीय मुक्ति-संघर्षों के गौरव के धूल धूसरित होने के बाद पूँजी के भूमण्‍डलीय वर्चस्‍व के इस दौर में एक बर्बर अमानवीय परिदृश्‍य हमारे सामने है। विज्ञान और तकनोलॉजी का हर विकास मेहन‍तक़शों की ज़‍न्‍िदगी के अँधेरे को और गहरा बना देता है, उनके असह्य दु:खों के सागर में निर्मित ऐश्‍वर्य के द्वीपों की चकाचौंध और बढ़ा देता है। अकूत सम्‍पदा युद्धास्‍त्रों के उत्‍पादन और रुग्‍ण विलासिता पर ख़र्च होती है। समृद्धि के शिखरों के अंधकारमय साये में लाखों बच्‍चे भूखे मरते रहते हैं, लाखों स्त्रियाँ बिकती रहती हैं। मुनाफे़ की अंधी हवस पकृति को उस हद तक तबाह कर चुकी है कि आने वाले दिनों में पृथ्‍वी पर जीवन के लिए ही संकट पैदा हो सकता है। तरह-तरह की मनोरुग्‍णता, अवसाद, आत्‍मनिर्वासन, बर्बर यौन अपराध, मनोरोगी बनाता मनोरंजन उद्योग -- ये सभी सार्विक प्रवृत्तियाँ हैं। दर्शन-कला-साहित्‍य-संस्‍कृति के क्षेत्र में 'महाख्‍यानों के विसर्जन'' का उदघोष करके तुच्‍छताओं के नये आख्‍यान रचे जा रहे हैं, सामाजिक सरोकारों को गुज़रे ज़माने की चीज़ बताया जा रहा है। भविष्‍य-स्‍वप्‍न तिरोहित हो चुके हैं। बुद्धिजीवी जनता के साथ ऐतिहासिक विश्‍वासघात कर चुके हैं। चतुर्दिक मृत्‍यु संगीत, विचारहीन उल्‍लास और सत्‍ता के चारण-गीतों का गगनभेदी शोर है।
इस अंधकार-युग की सभ्‍यता-समीक्षा एक दिन वही करेंगे, जो आज के बुर्ज़ुआ समाज के अ-नागरिक हैं। बुर्ज़ुआ सभ्‍यता के आधुनिक दास यूँ ही बेबस-बेदम नहीं पड़े रहेंगे। आज के ये उजरती गुलाम अपने विमानवीकरण से अवगत हैं, इसलिए वे इसके विरुद्ध विद्रोह करेंगे ही। आने वाले दिनों में अँधेरे रसातल के अभिशप्‍त निवासियों के खौलते आक्रोश का लावा धरती की छाती फोड़कर ऊपर उठेगा और विसूवियस के विस्‍फोट की तरह आज के पाम्‍पेई की विलासिता को जलाकर राख कर देगा। यह सर्वहारा का ऐतिहासिक मिशन है। श्रम और  पूँजी के बीच विश्‍व-ऐतिहासिक-महासमर का दूसरा चक्र निर्णायक होगा और इसी शताब्‍दी में होगा। मानव सभ्‍यता का नाश नहीं होगा। मानवता पूँजीवाद का नाश कर अपने को बचायेगी, मानवीय सारतत्‍व को बचायेगी।
हर जनपक्षधर बुद्धिजीवी का दायित्‍व है कि बाँझ-अनर्गल-अकर्मक बहसों और सारहीन आत्‍ममुग्‍ध रचना-कर्म के दायरे से वह बाहर निकले, जनसमुदाय को वैज्ञानिक दृष्टि और इतिहास-बोध दे और पूँजीवादी समाज और सभ्‍यता की आलोचना उस रूप में प्रस्‍तुत करे जैसे आलोचना की क्रिया को बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट ने परिभाषित किया था:
बहुत से लोगों को
आलोचनात्‍मक रवैया कारगर नहीं लगता
क्‍योंकि वे पाते हैं
सत्‍ता पर उनकी आलोचना का कोई असर नहीं पड़ता।
लेकिन इस मामले में जो रवैया कारगर नहीं है
वह दरअसल कमज़ोर रवैया है।
आलोचना को हासिल कराये जायें
अगर हाथ और हथियार
तो राज्‍य नष्‍ट किये जा सकते हैं उससे
नदी को बाँधना
फल के पेड़ की छँटाई करना
आादमी को सिखाना
राज्‍य को बदलना
ये सब काम है कारगर आलोचना के नमूने
साथ ही कला के भी।
--बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट(आलोचनात्‍मक रवैये पर)



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