पाँच साल के बाद साथियों
फिर चुनाव का मौसम आया।
लोकतंत्र की चादर ओढ़े
पूँजी ने ड्रामा फैलाया।
चोट्टे और हरामी आये
गुण्डे, शोहदे नामी आये।
दारू आयी, कम्बल आये
भाँति-भाँति के नारे आये।
जनता तो इतने वर्षों से
नौटंकी यह देख रही है।
कौन दिखाये इंक़लाब की
राह, यही बस सोच रही है।
और देर करना असह्य है
उठो, चलो, निष्क्रियता छोड़ो।
लामबंद कर मेहनतक़श को
धारा का रुख पलटो, मोड़ो।
ख़तम करो पूँजी का राज,
लड़ो, बनाओ लोक-स्वराज।
-कविता कृष्णपल्लवी
No comments:
Post a Comment