Friday, January 17, 2014

(एक पुरानी दोस्‍त को एक पत्र, जो उसकी इजाजत से आप भी पढ़ सकते हैं)


प्रिय दोस्‍त .........,
मोबाइल और चैटिंग के ज़माने में तुम्‍हारा पत्र पाकर अच्‍छा लगा। अप्रत्‍याशित होने के कारण सुखआश्‍चर्य भी हुआ। पुराने दिन याद आये। कभी-कभी 'नास्‍टैल्जिक' होना तो किसी को भी अच्‍छा लगता है।
नहीं, मैं निजी दुखों-सुखों से ऊपर उठी हुई कोई स्थितप्रज्ञ प्राणी नहीं हूँ। स्थितप्रज्ञ प्राणी के सामाजिक सरोकार नहीं होते। हर व्‍यक्ति के पास निजी सुख-दुख का, कमियों-कमज़ोरियों का, ग़लतियों, त्रासदियों, अतृप्‍त चाहतों और अधूरेपन का एक गुप्‍त ख़जाना होता ही है। क्रान्तिकारी राजनीति में लगे लोग इसके अपवाद नहीं होते।
जो लोग स्‍वयं को एक द्वीप बना ले‍ते हैं, जो भीड़ में अकेले समान होते हैं, वे यदि मार्क्‍सवाद और क्र‍ान्तियों के इतिहास की ढेरों कि‍ताबें पढ़ भी लें तो भी उनकी संतुष्टि, उनके सुख, उनके उप‍लब्धि-बोध का सारा स्रोत स्‍वयं उनके जीवन और निजी सपनों के आसपास केन्द्रित होता है। राजनीतिक जीवन में ऐसे लोग भी जाते हैं तो अहंमात्रवाद और 'लाइमलाइट मेण्‍टैलिटी' के शिकार बने रहते हैं। निजी ज़ि‍न्‍दगी की कमियाँ, राजनीतिक विफलताएँ, विश्‍व सर्वहारा क्र‍ान्ति की पराजय और उसके बाद पैदा हुई परिस्थितियाँ -- कोई भी कमी उन्‍हें निराश कर देती है और उसकी आड़ लेकर वे घर वापसी की राह पकड़ लेते हैं।
अलगावग्रस्‍त, अवसादग्रस्‍त ऐसे लोगों की तो बात ही क्‍या की जाये, जिनकी कोई स्‍पष्‍ट जीवन दृष्टि, राजनीति या सामाजिक सरोकार नहीं होते। इण्‍टरनेट की आभासी दुनिया, उच्‍छृं इन्द्रिय-भोग, शराब और डिप्रेशन की गोलियों के सहारे दिन काटते निरर्थकता-बोध से ग्रस्‍त लोग मध्‍यवर्गीय समाज में तो, ऐसा लगता है, 50-60 फीसदी के आसपास पहुँच गये हैं। बाक़ी एक भारी आबादी उनकी है, जिन्‍होंने एक अदद नौकरी, एक बीवी, कुछ बच्‍चों और कुछ छोटे-छोटे निजी सपनों का पीछा करते हुए टुच्‍चई, ओछापन और कूपमण्‍डूकता भरी ज़ि‍न्‍दगी काट देने के लिए अपने दिमाग को अनुकूलित कर लिया है। उनके बारे में तुलसी बाबा काफी पहले कह गये हैं: 'सबसे भले वे मूढ़ जिन्‍हें व्‍यापै जगत-गति।' और जो सुरक्षित जीवन के चौहद्दी में प्रचुर सुख-सुविधाओं में लोट लगाते नौकरशाह, प्रोफेसर, पत्रकार, डॉक्‍टर, इंजीनियर वगैरह-वगैरह हैं -- उनकी ज़ि‍न्‍दगी अन्‍दर से देखोगी तो पाओगी कि तमाम क्‍लब, पार्टियाँ, शराब, पर्यटन, आवारागर्दी -- उनकी शाश्‍वत ऊब और बोरियत को दूर नहीं कर पातीं। पूँजी पूँजीपति को पटककर उसी को दुलकी चाल से दौड़ाती रहती है, चैन उसे भी नहीं है। पर ये लोग अपना जीवन छोड़ने की कल्‍पना भी नहीं कर सकते। वर्ग-स्‍वभाव इनके रोम-रोम में बसा होता है, इनका संस्‍कार होता है। पूँजीवादी शोषण के अतिरिक्‍त अलगाव और सांस्‍कृतिक रिक्‍तता मेहनतक़शों से भी इंसान की तरह जीने की बुनियादी शर्तें छीन लेती है, विमानवीकरण का शिकार उनका भी एक हिस्‍सा होता है। उनके पास अन्‍य वर्गों की तरह जीवन को कोई भी (मिथ्‍याभासी या रुग्‍ण) विकल्‍प नहीं होता, इसलिए वे विद्रोह करते हैं। फिर एक वैज्ञानिक विचारधारा को पकड़ते हैं और क्रान्ति की दिशा में आगे बढ़ते हैं। जबतक वे लड़ते नहीं, तब‍तक उनकी ज़ि‍न्‍दगी असह्य घुटन भरी होती है। यदि वे स्‍फुट, छोटे-छोटे आन्‍दोलनों में भी उतरने लगते हैं तो सक्रिय एकजुटता उनके जीवन में व्‍याप्‍त अलगाव का विष पीने लगती है और 'भविष्‍य की कविता' उनके जीवन को संवेदित करने लगती है।
तुम्‍हारे जीवन में आयी निरुद्देश्‍यता, थकावट और अवसाद तुम्‍हारे ही द्वारा चुनी गयी राह की तार्किक परिणति है। पुरुषवर्चस्‍ववाद द्वारा कुटिल अमानुषिक उत्‍पीड़न के विरुद्ध तुमने एक व्‍यक्तिगत विद्रोह का रास्‍ता चुना -- 'अपने बूते जीकर दिखा दूँगी, मर्द समाज को दिखा दूँगी'... कुछ ऐसा भाव था! पहली बात, तुम किसके सामने साबित करना चाहती थी? क्‍या उस पुरुषवर्चस्‍ववादी मानस और असम्‍पृक्‍त समाज के सामने, जिसे तुम्‍हारी कोई परवाह नहीं? दूसरी बात, स्‍वावलंबी और स्‍वतंत्र जीवन बिताते हुए क्‍या अपने स्‍कूल में, बस में, सड़क-चौराहे पर, अपने मुहल्‍ले में तुम्‍हें मर्दवाद का सामना नहीं करना पड़ता? और जिन स्त्रियों को घर-बाहर चतुर्दिक् मर्दवाद की चक्‍की में अहर्निश पिसते देखती हो, उनके बारे में क्‍या कभी सोचती हो? तुम नृतत्‍वशास्‍त्र की छात्रा रही हो, मॉर्गन और फ्रेडरिक एंगेल्‍स को पढ़ा है। मैं तो बस इतना ही जानती हूँ कि निजी सम्‍पत्ति और वर्गों के उद्भव के साथ स्‍त्री-दासता पैदा हुई और उनकी समाप्ति के साथ ही स्‍त्री-मुक्ति का भवितव्‍य जुड़ा हुआ है। बेशक़ आर्थिक स्‍वावलंबिता और निजी आज़ादी की तुम्‍हारी लड़ाई साहसिक थी और ज़रूरी भी, पर व्‍यापक सामाजिक मुक्ति से इसे जोड़े बगैर निजी ज़ि‍न्‍दगी में भी कोई ताज़गी और ऊर्जस्विता का स्रोत नहीं बचा रह जायेगा। फिर मैं वही कहूँगी जो एक दशक पहले कहा था, 'मनुष्‍य कोई द्वीप नहीं होता।'
तुम जानती हो, राजनीतिक जीवन में मैं महज एक रूमानी जोश के आवेग में नहीं गयी। मेरा तो बचपन ही कम्‍युनिस्‍ट परिवेश में बीता है। मैंने कम्‍युनिस्‍टों को कभी देवता की छवि में, किसी आदर्शवादी नज़रिये से नहीं देखा। कुछ लोग यदि लगातार अपने आदर्शों पर जीने की कोशिश करते दीखे, तो कुछ लोग व्‍यक्तिवादी, पाखण्‍डी, मनहूस, क्‍लर्कनुमा, बासी या घिेसे-पिटे कठमुल्‍ला भी। मैंने यदि कुछ लोगों को लगातार ऊर्जस्‍वी, सरलहृदय, दत्‍तचित्‍त और बार-बार पुनर्नवा होते देखा, तो कुछ लोगों को अपनी अहम्‍मन्‍यता और पाखण्‍ड की बलि चढ़ते और पतित होते भी देखा, बहुतों के पैर उखड़ते देखे, बहुतों को लौटकर घोंसले बनाते देखे। मैंने एकदम यथार्थवादी ढंग से, पहले अचेतन और फिर सचेतन तौर पर, इन अनुभवों पर सोचा और क्रान्तिकारी जीवन को चुना। इसीलिए एकदम सच्‍ची बात है कि मैंने कभी पीछे मुड़कर देखा, ही मुझे कभी अपने निर्णय पर पुनर्विचार की आवश्‍यकता ही महसूस हुई। स्‍पष्‍ट कर दूँ कि अतृप्तियाँ-असंतुष्टियाँ, कमियाँ-कमज़ोरियाँ, दु:-उदासी, त्रासदियाँ कहाँ नहीं होती! इनके बिना तो कोई अच्‍छा  जीवन बनता है, कोई उदात्‍त महाकाव्‍य! लेकिन यह मैं  दावे से कह सकती हूँ कि अवसाद या निराशा मेरे जीवन का स्‍थायी भाव तो दूर, दीर्घावधि तक हावी भाव भी कभी नहीं रहा।
मेरा मानना है कि यदि आपके साथ हर समय कुछ समान लक्ष्‍य, समान विचार और समान कार्यदिशा वाले लोग हों (बेशक़ उनमें से कुछ साथ छोड़ते रहेंगे, कुछ पतित भी होते रहेंगे) यदि आप उन साथियों को लेकर समाज के सबसे दबे कुचले लोगों के बीच काम करते हों, उनके जीवन, संघर्षों और सपनों से जैविक ढंग से जुड़े हों, और यदि, पूर्वज पीढ़ि‍यों के विचारों और संघर्षों की विरासत से आपने इतिहास-बोध एवं वैज्ञानिक दृष्टि हासिल की हो, तो आप कभी भी अवसाद या अकेलेपन के हाथों मारे नहीं जायेंगे। आप उनका मुकाबला करने में सक्षम होंगे। ऊर्जा के यही तीन अक्षय स्रोत हैं -- जन समुदाय से एकता, समान लक्ष्‍य वाले साथियों का साथ और जनता के जीवन और संघर्षों के इतिहास से अर्जित जीवन दृष्टि। वर्ग समाज में परवरिश ने हमें संस्‍कार दिये हैं कि हम जीवन में भी  ''नियंत्रित अनुकूलित विद्रोह'' चाहते हैं, क्रान्ति को जीने का तरीक़ा बनाने के बजाय गारण्‍टीशुदा समयबद्ध क्रान्ति की स्‍कीम चाहते हैं, उड़ान भरना भी चा‍हते हैं तो चौहद्दी नापकर, साम्‍पत्तिक व्‍यवस्‍‍था की आपदाओं-अभिशापों से लड़ना भी चाहते हैं तो सम्‍पत्ति-सम्‍बन्‍धों से निर्णायक तो क्‍या आंशिक त‍क विच्‍छेद किये बिना।
शायद मैं एक हद तक यह स्‍पष्‍ट कर सकी हूँ कि संन्‍यासी या स्थितप्रज्ञ या सुख-दुख की अनुभूतियों से ऊपर उठी प्राणी मैं नहीं हूँ, फिर भी ऊर्जस्विता से लबरेज हूँ, मेरे पास सपने और योजनाएँ हैं, मेरे पास कॉमरेडशिप और प्‍यार-दोस्‍ती निभाने की क्षमता है और दुश्‍मनों से, गद्दारों और पतितों से दुश्‍मनी निभाने की कूव्‍वत है। पीछे मुड़कर मैं भी देखती हूँ, पर ग़लतियों-कमज़ोरियों को समझने के लिए, वापस लौटने के लिए नहीं, क्‍योंकि किसी और ज़ि‍न्‍दगी की कल्‍पना तक मुश्किल है मेरे लिए।
मेरे लिए यह बात महत्‍वपूर्ण नहीं कि क्रान्ति कब होगी? इसका कोई टाइम टेबुल नहीं तय किया जा सकता। हाँ, दिशा बताई जा सकती है। सतत् प्रयास, प्रयोग और खोज से लक्ष्‍य की दूरी घटाई जा सकती है। पूँजीवाद का आज का संकट असाध्‍य ढाँचागत संकट है ज‍बकि सर्वहारा क्रान्ति की ने‍तृत्‍वकारी शक्तियों के बिखराव का संकट असाध्‍य ढाँचागत संकट नहीं है। हाँ, नये हालात के हिसाब से रणनीति के पुनर्निर्धारण का सवाल है, बीसवीं शताब्‍दी की प्रथमचक्रीय सर्वहारा क्रान्तियों की पराजयों से सबक निकालने का सवाल है। इन सवालों का, सिद्धान्‍त और व्‍यवहार में, हल निकलने में कुछ समय तो लगेगा। पर पूँजीवाद का कोई भविष्‍य नहीं है। मेरी आशा का, ताज़गी का स्रोत मेरे जीने और सोचने के तरीक़े में है।
तुम्‍हें मैं कोई झूठी तसल्‍ली या दिलासा नहीं दूँगी। या तो निजी मुक्ति के संघर्ष को सामाजिक मुक्ति के संघर्ष से जोड़ो या थोड़ा ''लचीला'' होकर बुर्ज़ुआ नागरिक समाज में व्‍यवस्थित हो जाओ। इतने दिनों की नौकरी में कुछ पैसे जोड़ ही लिये होंगे। एक ''प्रगतिशील जनवादी गृहस्‍थ'' या ''पालतू'' टाइप नागरिक ढूँढ लो, आजकल काफी मिल जाते हैं। फिर क्‍या? कुछ बचत, एक आशियाना, एक-दो बच्‍चे। एक-दो साल में दाम्‍पत्‍य की गर्मी ठण्‍ढी जब पड़ जाये और सब-कुछ जब औपचारिकता और रुटीन बन जाये तो बच्‍चे के सपनों को अपना बनाकर (या अपने सपने उसपर लादकर) उसे बड़ा करने में लग जाना। बुढ़ापा आने तक यदि आस्तिक हो जाओगी तो जीना और आसान हो जायेगा। आखिर बहुत लोग ऐसे जी ही रहे हैं। और मैं क्‍या राय दूँ। मुझे तो अपने जीने का तरीक़ा ही अच्‍छा लगता है फिर मैं कोई और राय कैसे दूँ?
इसी उम्र में ब्‍लडप्रेशर? दवा नियमित लेना और एहतियात भी बरतना। मैं, इधर तो नहीं, हाँ, अगले वर्ष जून में समय निकालकर आ सकती हूँ तुम्‍हारी तरफ। हाँ, तुम चाहे जब भी पधार जाओ दीवानों-बंजारों की सराय में। बस, मुझे दस दिन पहले ख़बर कर देना।
प्‍यार सहित,

-कविता

1 comment:

  1. "राज़ की बातें लिखीं और ख़त खुला रहने दिया"!!!

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