Friday, January 17, 2014

सुधीश पचौरी की व्‍यंग्‍य शैली: गंभीर चिंतन और सामाजिक सरोकारों पर एक छिछोरी चोट



--कविता कृष्‍णपल्‍लवी

समाज, संस्‍कृति और राजनीति की नकारात्‍मक प्रवृत्तियों पर चोट करने के लिए और 'पोलेमिकल' लेखन के लिए व्‍यंग्‍य की शैली का प्राय: इस्‍तेमाल किया जाता रहा है। विश्‍व साहित्‍य में सर्वांतेस और दिदेरो से लेकर मार्क ट्वेन, ब्रेष्‍ट और लूशुन तक कई नाम उदाहरण के तौर पर लिये जा सकते हैं। हिन्‍दी साहित्‍य में महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय से ही व्‍यंग्‍य-लेखन की एक समृद्ध परम्‍परा रही है। पिछली आधी सदी के दौरान, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्‍ल, मनोहर श्‍याम जोशी आदि ने उत्‍कृष्‍ट व्‍यंग्‍य-लेखन किया।
लेकिन आज यदि हिन्‍दी साहित्‍य के परिदृश्‍य पर निगाह डालें तो लगता है कि व्‍यंग्‍य-लेखन की स्थिति स्‍वयं हास्‍य-व्‍यंग्‍य (और उससे भी अधिक क्षोभ का) विषय होकर रह गयी है। व्‍यंग्‍य सुधीश पचौरी के लेखन का स्‍थायी भाव है। अख़बारों में विभिन्‍न विषयों पर लिखते हुए और मीडिया समीक्षा करते हुए सुधीश पचौरी स्‍थायी तौर पर व्‍यंग्‍य या यूँ कहें कि हँसी-ठिठोली की छिछोरी शैली का सहारा लेते हैं। ऐसा करते हुए वे पाठक को चीज़ों पर अनालोचनात्‍मक ढंग से सोचने के अलावा, वैचारिक पहलू की गहराई में उतरने से बचने और गम्‍भीर से गम्‍भीर मसले को भी हल्‍के-फुल्‍के मज़ाकिया ढंग से लेने की आदत डालते हैं। सुधीश पचौरी का व्‍यंग्‍य एक सर्वनिषेधवादी, अराजकतावादी किस्‍म का व्‍यंग्‍य होता है जो  हर चीज़ को खारिज करता है, हर चीज़ का मज़ाक उड़ाता है और विशेष तौर पर वाम विचारधारा की खिल्‍ली उड़ाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ता। वह हर प्रकार की गम्‍भीरता और संजीदगी के खिलाफ है। इसके लिए सुधीश पचौरी ने एक ख़ास किस्‍म की भाषा तैयार की है। यह भाषा एक छिछोरी, सड़क छाप, टपोरी भाषा है, जिसमें मज़ाकिया ढंग से वे अंग्रेज़ी शब्‍दों का हिन्‍दीकरण करते हैं और नये-नये शब्‍द गढ़ते हैं। बेशक़ हर जीवंत भाषा दूसरी भाषाओं से शब्‍द लेती है, लेकिन सुधीश पचौरी की तरह से यदि लेने लगे, तो वह भाषा मौलिक वैचारिक चिन्‍तन और अभिव्‍यक्ति की क्षमता ही खो देगी।
सुधीश पचौरी पॉपुलर को पॉपुलिस्‍ट का समानार्थक बना देते हैं। उनके लिए भीड़(मॉब) और जनसमुदाय (पीपुल) में कोई अंतर नहीं है। वे 'पॉपुलर' (जो वास्‍तव में छिछोरा पॉपुलिस्‍ट लेखन होता है) लेखन को वैचारिक लेखन के बरक्‍स खड़ा करते हैं और पहले के द्वारा दूसरे को ख़ारिज करने की कोशिश करते हैं। भाषा का अपना वर्गचरित्र नहीं होता, पर भाषा स्‍वयं में वर्ग संघर्ष का एक क्षेत्र बन जाती है (वोलोशिनोव)। भाषा केवल वैचारिक अभिव्‍यक्ति का माध्‍यम ही नहीं, वैचारिक संघर्ष का एक उपकरण भी है। स्‍तरीय शिक्षा, वैश्विक वैचारिक विनिमय और मानविकी के क्षेत्र में शोध-अध्‍ययन लेखन का मुख्‍य माध्‍यम भारत में यदि आज भी अंग्रेजी बनी हुई है, तो यह भारतीय समाज की एक ऐतिहासिक क्षति है, बौद्धिक सम्‍पदा से आम जनता को दूर रखने का एक षड्यंत्र है और आन्‍तरिक मानसिक नव उपनिवेशन का एक दुश्‍चक्र है। ठीक इसी तरह, यदि कोई लेखक जनता की भाषा को विकृत-विरूपित करता है, तो वह जनसमुदाय को गंभीर विचार, अभिव्‍यक्ति और सम्‍प्रेषण के माध्‍यम से वंचित करने का आपराधिक दुष्‍कृत्‍य करता है। उत्‍पादन के साधनों के विकास के साथ-साथ मानव-चेतना का धरातल भी उन्‍नत होता है। ऐसी स्थिति में लोकप्रिय लेखन का क्षितिज विस्‍तारित होता है, तथा साथ ही भाषा में अमूर्तन की क्षमता का, गहन एवं सटीक वैज्ञानिक-वैचारिक अभिव्‍यचक्ति की क्षमता का भी विस्‍तार होता है। समाज में जबतक श्रम-विभाजन का और मानसिक तथा शारीरिक श्रम विभाजन का अस्तित्‍व बना रहेगा तबतक वैचारिक और 'पॉपुलर' के बीच का अंतर भी बना रहेगा। 'पॉपुलर' पर अतिशय वैचारिकता का बोझ लादना जनता को विचार-विमुख बनाता है। दूसरी ओर वैचारिक को पॉपुलर में पूरी तरह उल्‍था कर देने या वैचारिक को पूरी तरह पॉपुलर बना देने की कोशिश, या अतिसरलीकरण की हर लोकरंजक कोशिश विचार पक्ष को तनु (डाइल्‍यूट) बना देता है और यह भी जनता के पक्ष की ऐतिहासिक क्षति है। यही कारण है कि मार्क्‍सवादी साहित्‍य में भी सैद्धान्तिक-दार्शनिक लेखन, प्रोपेगैण्‍डा-लेखन और एजिटेशनल-लेखन के बीच के अंतर बने रहते हैं और इन्‍हें मात्र मनोगत प्रयासों से मिटाया नहीं जा सकता।
सुधीश पचौरी का भाषाई लोकरंजकतावादी विरूपण भाषा की चौहद्दी के भीतर जारी वर्ग संघर्ष में जनता के वैचारिक पक्ष पर एक ख़तरनाक हमला है। ऐसी भाषा-शैली अपने पाठकों को छिछोरेपन और खिलंदड़ेपन का आदी बनाती है और उनसे उनके सोचने-विचारने की क्षमता, उनका आलोचनात्‍मक विवेक सेंधमारी करके चुरा लेती है।
सुधीश पचौरी वही व्‍यक्ति हैं जो कभी मार्क्‍सवादी आलोचक और माकपा-सम्‍बद्ध जलेस के अगियाबैताल सिद्धान्‍तकार-प्रवक्‍ता हुआ करते थे। फिर इन्‍हें 'ग्‍लास्‍नोस्‍त-पेरेस्‍त्रोइका' का जूड़ी-ताप चढ़ा और 'इतिहास के अंत' की हवा लगी। फिर तो ये सज्‍जन उत्‍तर-आधुनिकतावाद, उत्‍तर-संरचनावाद आदि-आदि की कथरी-गुदड़ी लपेटकर चौराहे पर  जा  बैठे और पश्चिम का  सेकेण्‍ड हैण्‍ड वैचारिक माल बेचने के लिए एक पर एक कई किताबें लिख मारी। इन्‍होंने (और गोपीचंद नारंग ने भी) उत्‍तर-संरचनावाद और उत्‍तर-आधुनिकतावाद जैसी विचार सरणियों पर (होमी भाभा या गायत्री चक्रवर्ती स्पिवॉक की तरह) कुछ भी नया और मौलिक नहीं लिखा है, बल्कि महज हल्‍के-फुल्‍के किस्‍म का भाष्‍य लिखा है और सिर्फ भाष्‍य ही नहीं लिखा है बल्कि चौर-लेखन भी किया है। यह बताया जा सकता है कि सुधीश पचौरी ने कहाँ-कहाँ अपनी किताबों में देरिदा, फूको, ल्‍योतार या बौद्रिला की 'पैराफ्रेजिंग'की है और कहाँ-कहाँ  उन्‍हें लगभग हूबहू टीप दिया है। सुधीश पचौरी यह लहर लेकर भारत में तब आये, जब पश्चिमी बौद्धिक बाज़ार से उत्‍तर-विस्‍तार सरणियों के सिक्‍के चलन से बाहर हो रहे थे। दिलचस्‍प बात यह है कि किंचित् भिन्‍नताओं के साथ, मार्क्‍सवादी अवस्थिति से, टेरी ईगल्‍टन, फ्रेडरिक जेम्‍सन, अलेक्‍स कैलिनिकोस, एजाज़ अहमद, डेविड मैक्‍चेस्‍नी, जॉन बेलेमी फॉस्‍टर आदि-आदि ने उत्‍तर-आधुनिकतावाद की  समालोचनाएँ प्रस्‍तुत की हैं, उनपर सुधीश पचौरी ने कहीं कुछ लिखा-बोला नहीं है। लेकिन उन्‍हें इतना तो लग ही गया था कि मार्क्‍सवाद  के बरक्‍स उत्‍तर-आधुनिकतावाद का झण्‍डा लेकर हिन्‍दी आलोचना में नया चक्रवर्ती सम्राट बन पाना सम्‍भव नहीं। ऐसी स्थिति में उन्‍होंने वैचारिकता से चलताऊपन की ओर संक्रमण किया और अखबारी समीक्षाएँ-टिप्‍पणियाँ लिखते हुए वैचारिक खिलंदड़ेपन को खिलंदड़ी भाषा के ज़रिए स्‍थापित करने में लग गये।
ऐसे ही एक पूर्व मार्क्‍सवादी अशोक चक्रधर भी हैं, जो मंचीय हास्‍य-व्‍यंग्‍य कवियों के सिरमौर हैं, शीला दीक्षित सरकार के ख़ास-उल-ख़ास बौद्धिक दरबारी रहे हैं। वे अकादमिक दुनिया  को बाय-बाय कर चुके हैं और कवि सम्‍मेलनों के धंधे में डूब गये हैं, क्‍योंकि वहाँ गधे सेठों-मारवाड़ि‍यों और नेताओं-अफसरों की कृपा से लक्ष्‍मी बरसती है। इधर अशोक चक्रधर भी हास्‍य-व्‍यंग्‍य के अख़बारी स्‍तम्‍भ लिखने लग गये हैं। सुधीश पचौरी दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में विभागाध्‍यक्ष और संकाय-अध्‍यक्ष तक की पद-प्रतिष्‍ठा का स्‍वाद चख चुके हैं। पर इस शिखर पर पहुँचकर भी वे क्षुब्‍ध और अवसादग्रस्‍त हैं। उन्‍हें पता है कि उत्‍तर-आधुनिकतावाद एक पिटा हुआ मोहरा है। मार्क्‍सवाद का ही ''बाज़ार'' है। अब मार्क्‍सवाद के किसी शिविर की ओर उनकी वापसी सम्‍भव नहीं। नामवर सिंह की जो व्‍यासगद्दी खाली हो रही है, उसपर मैनेजर पाण्‍डेय को प्रतिष्ठित करने की कोशिशें जारी हैं। अख़बारी लेखन से तो साहित्‍य-अकादमी में भी घुस पाना सम्‍भव नहीं। वे धंधेबाज मार्क्‍सवादियों से क्षुब्‍ध हैं, पर यह क्षोभ इस बात का है कि उन जैसा धंधेबाज उनसे मात कैसे खा गया! नतीज़तन, वे 'तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब' की भावना से ओतप्रोत होकर हिन्‍दी अख़बारों के स्‍तंभों में अपने कथित व्‍यंग्‍य लेखन की तलवार भाँजते रहते हैं। इस बौखलाहट में विचारहीनता का गर्दों-गुबार उड़ाने के साथ ही कभी-कभी वे  बहुत नीच कोटि का काम भी कर बैठते हैं। पिछले दिनों कैंसरग्रस्‍त कवि वीरेन डंगवाल के सम्‍मान में मित्र कवियों-पाठकों की अंतरंग गोष्‍ठी का मज़ाक उड़ाते हुए उन्‍होंने  अपने इसी घटियापन की एक बानगी पेश की थी।
सुधीश पचौरी और अशोक चक्रधर जैसों के हास्‍य व्‍यंग्‍य लिखे अख़बार के पन्‍नों से माँएँ बस अपने बच्‍चों के लिए टॉयलेट पेपर का काम ले सकती हैं या उनका ठोंगा बनाकर चनाज़ोरगरम खाया जा सकता है। लेकिन बड़े पैमाने पर पाठकों की रुचि विकृत करने, भाषा की दुर्गति करने और व्‍यंग्‍य-लेखन की समृद्ध हिन्‍दी परम्‍परा को लांछित करने के अभियोग से इन भाषाई भाँड़ों को बरी भला कैसे किया जा सकता है।

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