Saturday, January 18, 2014

अमूर्त-अकर्मक विमर्श-कर्मरत विद्वानों को समर्पित


इन दिनों अमूर्त-अकर्मक (या अकर्मी) मार्क्‍सवादी विमर्शों की चतुर्दिक् धूम है। भाँति-भाँति के कूपमण्‍डूक बुद्धिजीवी और पण्डित, नाना प्रजातियों के किताबी कीड़े मार्क्‍सवाद में कुछ न कुछ इजाफा कर देने के लिए बेचैन हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिन्‍होंने मार्क्‍सवाद बस नाम-मात्र ही पढ़ा है। कुछ ऐसे हैं जिन्‍होंने मार्क्‍सवादी क्‍लासिक्‍स तो छुआ तक नहीं है, पर मार्क्‍सवादी-नवमार्क्‍सवादी-उत्‍तरमार्क्‍सवादी प्रोफेसरों-पण्डितों-भाष्‍यकारों को चुटिया बाँधकर घोख रखा है। यह सभी एक साथ मार्क्‍सवाद का ''विकास'' करने के लिए  पिल पड़े हैं। रोज़ ही ऐसी कुछ ''नयी प्रस्‍थापनाएँ'' और अटकलें सामने आती हैं कि आदमी का माथा घूम जाये। ''दार्शनिकों ने विभिन्‍न विधियों से विश्‍व की केवल व्‍याख्‍या ही की है, लेकिन प्रश्‍न विश्‍व को बदलने का है।'' -- मार्क्‍स की इस प्रसिद्ध उक्ति का नया मर्म उदघाटित करने में ही कई प्रोफेसरों-पण्डितों ने इधर पन्‍ने के पन्‍ने रंग डाले हैं। उनकी सारी बौद्धिक क़वायद का लक्ष्‍य शायद यह प्रतिपादित करना है कि नयी दुनिया की नयी सच्‍चाइयों की जो नयी व्‍याख्‍याएँ वे कर रहे हैं, वह भी दुनिया बदलने का ही एक ज़रूरी काम है। ऐसे बहुतेरे मार्क्‍सवादी पण्डित हैं जो अपनी सोच को लेकर संगठित होकर सामाजिक व्‍यवहार में तो उतरते नहीं, बस अब क्रान्ति न कर पाने के लिए काम करने वाले कम्‍युनिस्‍टों को कोसते-धिक्‍कारते हैं, इतिहास के अध्‍ययन के नाम पर इतिहास का शवोच्‍छेदन करते रहते हैं, महापुरुषों के कान का मैल इकट्ठा करते रहते हैं, या फिर कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारियों को सलाह देने के लिए 'कंसेल्‍टेंसी फर्में' खोलकर बैठ जाते हैं (जिनके 'एक्‍सटेंशन काउण्‍टर' सोशल मीडिया पर दीख जाते हैं) और ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए ज़ोर-ज़ोर से हाँक लगाने लगते हैं। तरह-तरह की नयी प्रस्‍थापनाओं-प्रकाशनाओं(इल्‍युमिनेशंस) से वैचारिक सफाई का उजाला फैलने जगह एकदम 'है गगन उगलता अंधकार...' वाला माहौल हो गया है।
पूँजीवादी दुनिया शायद उतनी तेज़ी से नहीं बदल रही है, जितनी तेज़ी से नयी-नयी व्‍याख्‍याएँ आ रही हैं, और उतनी भी नहीं बदली है, जितनी ज्‍यादातर नौदौलतिये चिन्‍तकों की व्‍याख्‍याएँ बताती हैं। दुनिया की तरह-तरह की व्‍याख्‍या करने को ही जिन लोगों ने दुनिया बदलने का काम बना दिया है, उनके बारे में कात्‍यायनी की इन कविताओं को पढ़ना दिलचस्‍प होगा और प्रासंगिक भी।

कात्‍यायनी की कविताएँ

दुनिया बदलने के बारे में कतिपय सुधीजनों के विविध विचार

(एक)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है,
मानता हूँ।
लेकिन फिलहाल मैं असन्‍तुष्‍ट हूँ
दुनिया की व्‍याख्‍याओं से
और मानता हूँ कि
नये बदलावों की हो रही व्‍याख्‍याएँ
या तो नाकाफी या फिर ग़लत हैं
और यह कि
रुका हुआ है आज
दुनिया को बदलने का काम भी।
इसलिए अभी तो मैं
दुनिया की एक और व्‍याख्‍या कर रहा हूँ।

(दो)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है,
मानता हूँ।
मेरे लिए मगर मुमकिन नहीं रह गया है,
बदलना इसे।
इसलिए अब मैं
सलाहकार बन गया हूँ
दुनिया बदलने वालों का।
आओ, दुनिया बदलने वालों!
मेरे अनुभव का लाभ उठाओ,
अन्‍यथा बदलते रह जाओगे
नहीं बदलेगी यह दुनिया।

(तीन)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
अब चूँकि दुनिया बदलना
मेरे वश की बात नहीं
इसलिए मैं इसकी
एक और व्‍याख्‍या कर रहा हूँ
और जो भी थोड़ी-बहुत कोशिशें हो रही हैं
दुनिया बदलने की
उनकी समीक्षा कर रहा हूँ।

(चार)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है,
लेकिन मुकम्मिल तौर पर
बदलना इस दुनिया को
मेरे बूते की बात नहीं।
इसलिए मैं पैबन्‍द लगाता हूँ।

(पाँच)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
अब चूँकि इसे बदलना
मेरे वश की बात नहीं
इसलिए बदलने वालों को तैयार करता हूँ
एकदम आम लोगों के लिए
पत्रिका निकालता हूँ,
लोहे से लोहे पर वार करता हूँ।
सीमाएँ हैं मेरी कुछ अपनी
इसलिए थोड़ा पढ़ता हूँ बहुत समझता हूँ।
जटिल व्‍याख्‍याएँ समझता नहीं,
सरल व्‍याख्‍याएँ खुद ही कर लेता हूँ।
जनता को बताता हूँ
सीधा-सादा रास्‍ता बदलाव का
एकदम चनाज़ोर ग़रम जैसा
मुलायम, मज़ेदार, कुरमुरा
जो लपककर ले जाये जनता
और यूँ चुटकी बजाते
बदल डाले पूरी की पूरी दुनिया।

(छ:)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
लेकिन हम ख़ुद सोचेंगे
सभी सवालों पर फिर से,
नये ढंग से।
हर पुरानी चीज़ पर
सवाल उठाना है हमें
जैसे कि इस कथन पर भी
कि दार्शनिकों ने ... ...।

(सात)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
कठिन है लेकिन बदलना इस दुनिया को
काहिल, बेवकूफ और स्‍वार्थी
जनता पर निर्भर रहकर,
आज मैं पाता हूँ,
इसीलिए तो इस-उस एन.जी.ओ.के
दरवाज़े खटखटाता हूँ।

(आठ)
दार्शनिकों ने
दुनिया की तरह-तरह से व्‍याख्‍या की है
पर सवाल उसको बदलने का है।
अब जो समस्‍याएँ हैं
दुनिया को बदलने में
इ‍तनी अधिक और इतनी विराटकाय,
उनकी जड़ में है
सिर्फ़ एक बात मेरे भाय,
कि दुनिया बदलने वाले
नहीं लेते हैं मेरी राय!
हाय!!





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