Sunday, January 05, 2014

एक प्रवर्गीकरण


-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

एक आम मेहनतक़श जनसमुदाय होता है, दूसरा उसका हिरावल या क्रान्तिकारी नेतृत्‍वकारी दस्‍ता होता है। वर्ग चेतना के हिसाब से मज़दूर वर्ग और अन्‍य मेहनतक़श वर्ग के भी कई संस्‍तर होते हैं और क्रान्ति के विज्ञान की समझ के हिसाब से हिरावल दस्‍ता के भी कई संस्‍तर होते हैं
इनके अतिरिक्‍त 'कन्‍फ्यूज्‍़ड', अटकलपच्‍चू और सटोरिये ''वामपंथी'' बुद्धिजीवियों की एक इन्‍द्रधनुषी जमात होती है, इनमें कुछ पढ़े-लिखे अकर्मक विमर्शवादी होते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो दर्शन-इतिहास-राजनीति पढ़े जाने बिना 'अंदाज़ीफिकेशन' से कुछ मौलिक सिद्धान्‍त देते रहते हैं, कुछ खोज और आविष्‍कार करते रहते हैं। वर्ग-विश्‍लेषण करते हुए उनकी स्थिति कभी-कभी ऐसी होती है  जैसे जीवों का प्रवर्गीकरण करते हुए कोई व्‍यक्ति मनमाने ढंग से शेर को चीता या बकरी को भेड़ बता दे। कभी-कभी कुछ की स्थिति ऐसी होती है कि वर्षों की मेहनत के बाद वे खुरपी का आविष्‍कार करते हैं और उन्‍हें पता नहीं होता कि यह आविष्‍कार तो हज़ारों वर्षों पहले हो चुका है। कुछ ऐसे बुद्धिजीवी होते हैं जो अपने घर-बार, रोजी-रोटी से फ़ारिग होते ही खूँटी पर टँगा दोन किहोते का अंगरखा और नेपोलियन की टोपी पहनकर क्रान्ति के बौद्धिक काम निपटाने निकल पड़ते हैं, या अबतक ''कुछ न कर पाने'' वाले क्रान्तिकारियों को उपदेश देने के लिए व्‍यासगद्दी पर जा बैठते हैं।
एक और श्रेणी ऐसे लोगों की होती है, जिनकी चेतना या राजनीतिक समझ तो जनता की होती है, पर वे अपने को हिरावल समझने के मुग़ालते में जीते हैं। इस प्रजाति का मस्तिष्‍क घुटनों में होता है। वे टाँगों से ही सारा काम करते हैं और चन्‍द रटे हुए राजनीतिक जुमलों और रुटीनी कवायद में ज़ि‍न्‍दगी काट देते हैं। उनका सूत्रवाक्‍य होता है, 'जबतक बौद्ध भिक्षु रहेंगे, घण्‍टा डोलाते रहेंगे।' जनता के साथ उनका रिश्‍ता इन शब्‍दों में बयान किया जा सकता है: 'अन्‍धा अन्‍धहूँ ठेलिया, दोनहुँ कूप पड़ंत। 

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