Sunday, January 05, 2014

'गुजरात-2002' श्रृंखला -- कात्‍यायनी


(नरेन्‍द्र मोदी की अगुवाई में संघ परिवार का हिन्‍दुत्‍ववादी फासीवाद ज्‍यादा उग्र, ज्‍यादा मुखर चेहरा लेकर राष्‍ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर उभर रहा है।भारतीय ऑशवित्‍ज़ -- 2002 के गुजरात नरसंहार को भूलना नहीं होगा। मुजफ्फरनगर-2013 हमारे सामने है।  --कविता कृष्‍णपल्‍लवी)


गुजरात - 2002

ऑसवित्ज़ के बाद
कविता सम्भव नहीं रह गयी थी।
इसे सम्भव बनाना पड़ा था।
शान्ति की दुहाई ने नहीं,
रहम की गुहारों ने नहीं
दुआओं ने नहीं, प्रार्थनाओं ने नहीं,
कविता को सम्भव बनाया था
न्याय और मानवता के पक्ष में खड़े होकर
लड़ने वाले करोड़ों ने अपनी क़ुर्बानियों से।
लौह-मुष्टि ने ही चूर किया था वह कपाल
जहाँ बनती थी मानवद्रोही योजनाएँ
और पलते थे नरसंहारक रक्तपिपासु सपने।

गुजरात के बाद कविता सम्भव नहीं।
उसे सम्भव बनाना होगा।
कविता को सम्भव बनाने की यह कार्रवाई
होगी कविता के प्रदेश के बाहर।
हत्यारों की अभ्यर्थना में झुके रहने से
बचने के लिए देश से बाहर
देश-देश भटकने या कहीं किसी ग़ैर देश की
सीमा पर आत्महत्या करने को विवश होने से
बेहतर है अपनी जनता के साथ होना
और उन्हें याद करना जिन्होंने
जान बचाने के लिए नहीं, बल्कि जान देने के लिए
कूच किया था अपने-अपने देशों से
सुदूर स्पेन की ओर।
कविता को यदि सम्भव बनाना है 2002 में
गुजरात के बाद
और अफगानिस्तान के बाद
और फिलिस्तीन के बाद,
तो कविता के प्रदेश से बाहर
बहुत कुछ करना है।
चलोगे कवि-मित्रो,
इतिहास के निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना?

                                      (अप्रैल 2002)



गुजरात - 2002

भूतों के झुण्ड गुजरते हैं
कुत्तों-भैसों पर हो सवार
जीवन जलता है कण्डों-सा
है गगन उगलता अंधकार।
यूँ हिन्दू राष्ट्र बनाने का
उन्माद जगाया जाता है
नरमेध यज्ञ में लाशों का
यूँ ढेर लगाया जाता है।
यूँ संसद में आता बसंत
यूँ सत्ता गाती है मल्हार
यूँ फासीवाद मचलता है
करता है जीवन पर प्रहार।
इतिहास रचा यूँ जाता है
ज्यों हो हिटलर का अट्टाहास
यूँ धर्म चाकरी करता है
पूँजी करती वैभव-विलास।  

                      (अप्रैल 2002)



आह मेरे लोगो! ओ मेरे लोगो!
(गुजरात - 2002)

धुँआ और राख और जली-अधजली लाशों
और बलात्कृत स्त्रियों-बच्चियों और चीर दिये गर्भों
और टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये शिशु-शरीरों के बीच,
कुचल दी गयी मानवता, चूर कर दिये विवेक और
दफ़्न कर दी गयी सच्चाई के बीच,
संस्कृति और विचार के ध्वंसावशेषों में
कुछ हेरते, भटकते,
रुदन नहीं, सिसकी की तरह,
उमड़ते रक्त से रुंधे गले से
बस निकल पड़ते हैं नाजिम हिक़मत के ये शब्द:
'आह, मेरे लोगो।'
'साधो, ये मुरदों का गाँव'
-- सुनते हैं कबीर की धिक्कार।
नहीं है मेरा कोई देश कि रोऊँ उसके लिए:
'आह, मेरे देश!'
नहीं है कोई लगाव इस श्मशान-समय से, कि कहूँ:
'आह, मेरे समय!'
इन दिनों कोई कविता नहीं,
सीझते-पकते फैसलों के बीच,
बस तीन अश्रु-स्वेद- रक्तस्नात शब्द:
'आह, मेरे लोगो!'


दर-बदर भटकते ब्रेष्ट का टेलीग्राम कल ही
कहीं से मिला,
अभी आज ही सुबह आया था
कॉडवेल, रॉल्फ फॉक्स, डेविड गेस्ट आदि का
भेजा हुआ हरकारा
पूछता हुआ यह सवाल कि एक अरब लोगों के इस देश में
क्या उतने लोग भी नहीं जुट पा रहे
जितने थे इण्टरनेशनल ब्रिगेड में?
क्या हैं कुछ नौजवान इंसानियत की रूह में
हरकत पैदा करने के लिए
कुछ भी कर गुजरने को तैयार? -- पूछा है भगतसिंह ने।
गदरी बाबाओं ने रोटी के टुकड़े पर रक्त से
लिख भेजा है सन्देश।

महज मोमबत्तियाँ जलाकर, शान्ति मार्च करके,
कहीं धरने पर बैठने के बाद घर लौटकर
हम अपनी दीनता ही प्रकट करेंगे
और कायरता भी और चालाकी भरी हृदयहीनता भी।
शताब्दियों पुराने कल्पित अतीत की ओर देश को घसीटते
हत्यारों का इतिहास तक़रीबन पचहत्तर वर्षों पुराना है।
धर्म-गौरव की उन्मादी मिथ्याभासी चेतना फैलती रही,
शिशु मन्दिरों में विष घोले जाते रहे शिशु मस्तिष्कों में,
विष-वृक्ष की शाखाएँ रोपी जाती रहीं मोहल्ले-मोहल्ले,
वित्तीय पूँजी की कृत्या की मनोरोगी सन्तानें
वर्तमान की सेंधमारी करती हुई,
भविष्य को गिरवी रखती हुई,
अतीत का वैभव बखानती रहीं
और हम निश्चिन्त रहे
और हम अनदेखी करते रहे
और फिर हम रामभरोसे हो गये
और फिर कहर की तरह बरपा हुआ रामसेवक समय।
अभी भी हममें से ज़्यादातर रत हैं
प्रतीकात्मक कार्रवाइयों और विश्लेषणों में, पूजा-पाठ की तरह
अपराध-बोध लिये मन में।

यह समय है कि
वातानुकूलित परिवेश-अनुकूलित
गंजी-तुंदियल या छैल-छबीली वाम विद्वताओं से
अलग करें हम अपने-आप को,
संस्कृति की सोनागाछी के दलालों के साथ
मण्डी हाउस या इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर में
काफ़ी पीने का लम्पट-बीमार मोह त्यागें,
हमें
निश्चिय ही,
निश्चिय ही,
निश्चिय ही,
अपने लोगों के बीच होना है।
हमें उनके साथ एक यात्रा करनी है
प्रतिरक्षा से दुर्द्धर्ष प्रतिरोध तक।
इस फ़ौरी काम के बाद भी
हमें सजग रहना होगा।
ये हमलावर लौटेंगे बार-बार आगे भी, क्योंकि
विनाश और मृत्यु के ये उन्मादी दूत,
पीले-बीमार चेहरों की भीड़ लिये अपने पीछे
चमकते चेहरों वाले ये लोग ही हैं
इस तंत्र की आखिरी सुरक्षा-पंक्ति।

सहयात्रियों का हाथ पकड़कर कहना चाहते हैं हम उनसे,
साथियो! दूरवर्ती लक्ष्य तक पहुँचने के रास्ते और रणनीति के बारे में
अपने मतभेद सुलझाने तक,
तैयारी के निहायत ज़रूरी, लेकिन दीर्घकालिक काम निपटाने तक
हम स्थगित नहीं रख सकते
अपना फौरी काम।
गुजरात को न समझें एक गुजरी हुई रात।
इस एक मुद्दे पर हमें
एक साथ आना ही होगा।
'आह मेरे लोगो!' इतना कहकर
अपनी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करें
कि एक स्वर से आवाज़ दें: 'ओ मेरे लोगो!'
-- यह तय करना है हमें
अभी, इसी वक्त।

                   (अप्रैल 2002)

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