Friday, November 08, 2013

7 नवम्‍बर: जीतों के दिन की शान में गीत

(अक्‍टूबर क्रान्ति की 96वीं वर्षगाँठ के अवसर पर)

-पाब्‍लो नेरूदा

यह दोहरी वर्षगाँठ*, यह दिन, यह रात,
क्‍या वे पायेंगे एक खाली-खाली सी दुनिया, क्‍या उन्‍हें मिलेगी
उदास दिलों की एक बेढब सी घाटी?
नहीं, महज एक दिन नहीं घण्‍टों से बना हुआ,
जुलूस है यह आईनों और तलवारों का,
यह एक दोहरा फूल है आघात करता हुआ रात पर लगातार
,जबतक कि फाड़कर निशा-मूलों  को पा न ले सूर्योदय !

स्‍पेन का दिन आ रहा है
दक्षिण से, एक पराक्रमी दिन
लोहे के पंखों से ढका हुआ,
तुम आ रहे हो उधर से, उस आखिरी आदमी के पास से
जो गिरता है धरती पर अपने चकनाचूर मस्‍तक के साथ
और फिर भी उसके मुँह में है तुम्‍हारा अग्निमय अंक!

और तुम वहाँ जाते हो हमारी
अनडूबी स्‍मृतियों के साथ:
तुम थे वो दिन, तुम हो
वह संघर्ष, तुम बल देते हो
अदृश्‍य सैन्‍य दस्‍ते को , उस पंख को
जिससे उड़ान जन्‍म लेगी, तुम्‍हारे अंक के साथ!

सात नवम्‍बर, कहाँ रहते हो तुम?
कहाँ जलती हैं पंखुडि़याँ , कहाँ तुम्‍हारी फुसफुसाहट
कहती है बिरादर से : आगे बढ़ो, ऊपर की ओर !
और गिरे हुए से : उठो!
कहाँ रक्‍त से पैदा होता है तुम्‍हारा जयपत्र
और भेदता है इंसान की कमज़ोर देह को और ऊपर उठता है
गढ़ने के लिए एक नायक?

तुम्‍हारे भीतर , एक बार फिर, ओ सोवियत संघ,
तुम्‍हारे भीतर , एक बार फिर, विश्‍व की जनता की बहन,
निर्दोष और सोवियत पितृभूमि। लौटता है तुम्‍हारे तक तुम्‍हारा बीज
पत्‍तों की  एक बाढ़ की शक्‍ल में, बिखरा हुआ समूची धरती पर!

तुम्‍हारे लिए नहीं हैं आँसू, लोगो, तुम्‍हारी लड़ाई में!
सभी को होना है लोहे का, सभी को आगे बढ़ना है और जख्‍़मी
होना है,
सभी को, छुई न जा सकने वाली चुप्‍पी को भी, संदेह को भी,
यहाँ तक कि उस संदेह को भी जो अपने सर्द हाथों से
जकड़कर जमा देता है हमारे हृदय और डुबो देता है उन्‍हें,
सभी को, खुशी को भी, होना है लोहे का
तुम्‍हारी मदद करने के लिए, विजय में, ओ माँ, ओ बहन!

थूका जाए आज के गद्दार के मुँह पर!
नीच को दण्‍ड मिले आज, इस विशेष
घण्‍टे के दौरान, उसके सम्‍पूर्ण कुल को,
कायर वापस लौट जायें
अँधेरे में, जयपत्र जायें पराक्रमी के पास,
एक पराक्रमी प्रशस्‍त पथ, बर्फ और रक्‍त के
एक पराक्रमी जहाज के पास, जो हिफ़ाजत करता है दुनिया की

आज के दिन तुम्‍हें शुभकामनाएँ देता हूँ सोवियत संघ,
विनम्रता के साथ: मैं एक लेखक हूँ और एक कवि।
मेरे पिता रेल मज़दूर थे: हम हमेशा ग़रीब रहे।
कल मैं तुम्‍हारे साथ था, बहुत दूर, भारी बारिशों वाले
अपने छोटे से देश में। वहाँ तुम्‍हारा नाम
तपकर लाल हो गया, लोगों के दिलों में जलते-जलते
जबतक कि वह मेरे देश के ऊँचे आकाश को छूने नहीं लगा।

आज मैं उन्‍हें याद करता हूँ, वे सब तुम्‍हारे साथ हैं!
फैक्‍ट्री दर फैक्‍ट्री घर दर घर
तुम्‍हारा नाम उड़ता है लाल चिडि़या की तरह ।
तुम्‍हारे वीर यशस्‍वी हों और हरेक बूँद
तुम्‍हारे ख़ून की। यशस्‍वी हों हृदयों की बह-बह निकलती बाढ़
जो तुम्‍हारे पवित्र और गौरवपूर्ण आवास की रक्षा करते हैं!

यशस्‍वी हो वह बहादुरी भरी और कड़ी
रोटी जो तुम्‍हारा पोषण करती है, जब समय के द्वार खुलते हैं
ताकि जनता और लोहे की तुम्‍हारी फौज मार्च कर सके, गाते हुए
राख और उजाड़ मैदानों के बीच से ,हत्‍यारों के खिलाफ़,
ताकि रोप सके एक ग़ुलाब चाँद जितना विशाल
जीत की सुंदर और पवित्र धरती पर!

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*7नवम्‍बर  को दोहरी वर्षगाँठ  बतलाये जाने का कारण यह है कि सोवियत समाजवादी क्रान्ति दिवस होने के साथ ही, इसी दिन मैड्रिड के द्वार से तानाशाह फ्रांको की राष्‍ट्रवादी सेना को (अस्‍थाई तौर पर) पीछे लौटने को बाध्‍य कर दिया गया था। यह कविता नेरूदा ने 1941 में लिखी थी, जब अक्‍टूबर क्रान्ति की 24वीं वर्षगाँठ और स्‍पेनी गणराज्‍य की उपरोक्‍त  विजय की पाँचवीं वर्षगाँठ थी।

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