Saturday, July 20, 2013

आधुनिक ऐतिहासिक विकासों ने इतिहास के विज्ञान को सम्‍भव बनाया




जब हम प्रकृति या मानव-जाति के इतिहास पर या अपने मन की प्रक्रियाओं पर विचार करते हैं तब पहले हमें क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं, सम्बन्धों, विभिन्न तत्वों के योग और संयोजन से बना हुआ एक जाल-सा दिखाई देता है, जो कहीं ख़त्म नहीं होता, जिसमें कोई वस्तु स्थिर नहीं रहती, जो जहाँ जैसा था, वह वहाँ वैसा नहीं रहता, हर वस्तु गतिशील है, परिवर्तनशील है, हर वस्तु का निर्माण होता है और नाश होता है। इस प्रकार हम इस चित्र को पहले समग्र रूप में देखते हैं, उसके अलग-अलग हिस्से हमारी नज़र में नहीं पड़ते, वह न्यूनाधिक पृष्ठभूमि में ही रहते हैं। हम गति, संक्रमण और परस्पर सम्बन्धों को देखते हैं, किन्तु जिन वस्तुओं की यह गति है, यह योग और सम्बन्ध हैं, हम उन्हें नहीं देख पाते। विश्व की यह धारणा आदिम और भोली-भाली है, लेकिन मूलतः वह ग़लत नहीं हैं, और प्राचीन यूनानी दर्शन की धारणा भी यही थीं, जिसे स्पष्ट रूप से सबसे पहले हेराक्लाइटस ने प्रतिपादित किया था। उसने कहा था - हर वस्तु है और नहीं भी है, क्योंकि हर वस्तु अस्थिर है, सतत परिवर्तनशील है, सतत निर्माण और नाश की अवस्था में है।
लेकिन यह धारणा कुल मिलाकर दृश्य-जगत के चित्र के सामान्य स्वरूप को तो सही-सही व्यक्त करती है, लेकिन जिन तफ़सीलों से यह चित्र बना है, उनका विवरण देने के लिए पर्याप्त नहीं है। और जब तक हम इन्हें नहीं समझें, हम पूरे चित्र को साफ़ तौर पर समझ नहीं सकते। इन तफ़सीलों को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि हम उन्हें उनके प्राकृतिक या ऐतिहासिक सम्बन्धों से अलग करें और हर तफ़सील पर, चित्र के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंग पर अलग-अलग विचार करें; उसके स्वरूप, उसके विशेष कारणों, कार्यों इत्यादि की, पृथक् रूप से परीक्षा करें। यह काम ख़ास तौर पर प्रकृति-विज्ञान और ऐतिहासिक अनुसन्धान का है, और यही विज्ञान की वह शाखाएँ हैं, जिन्हें प्राचीन काल के यूनानियों ने एक निचले दरजे में डाल दिया था, और इसका यथेष्ट कारण भी था, क्योंकि उन्हें सबसे पहले इन विज्ञानों के लिए सामग्री एकत्र करनी थी, जिसके आधार पर वह कार्य कर सकें। प्रकृत्ति और इतिहास के सम्बन्ध में जब तक पहले कुछ सामग्री एकत्र न हो ले, तब तक आलोचनात्मक विश्लेषण, तुलना और वर्गों, श्रेणियों और जातियों के रूप में वर्गीकरण नहीं हो सकता। इसलिए वास्तविकता का यथातथ्य वर्णन करनेवाले प्रकृति-विज्ञान का आधार सबसे पहले अलेक्ज़ेण्ड्रियन काल* के यूनानियों ने और बाद में मध्ययुग के अरबों ने स्थापित किया। अपने यथार्थ रूप में प्रकृति-विज्ञान का आरम्भ पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही होता है, और तब से इस विज्ञान ने लगातार बढ़ती हुई रफ़्तार से तरक्‍की की है। प्रकृति का विश्लेषण करके उसके अलग-अलग भाग करना, विभिन्न वस्तुओं और प्रक्रियाओं को निश्चित वर्गों या समूहों में एकत्र करना, अपने विविध रूपों में कार्बनीय पिण्डों की आन्तरिक शरीर-रचना का अध्‍ययन करना - पिछले चार सौ वर्षों में प्रकृति सम्बन्‍धी हमारे ज्ञान में जो विराट प्रगति हुई है, उसकी यह बुनियादी शर्ते थीं। परन्तु इस कार्य-प्रणाली ने हमारे लिए एक विरासत भी छोड़ी है - उसने हमारे अन्दर ऐसी आदत डाल दी है कि हम प्राकृतिक वस्तुओं और प्रक्रियाओं को, सम्पूर्ण वास्तविकता से उनके सम्बन्ध को विच्छिन्न करके देखते हैं, उन्हें गति की नहीं विराम की स्थिति में, मूलत: परिवर्तनशील नहीं बल्कि स्थिर अवस्था में, जीवन की नहीं मृत्यु की अवस्था में देखते हैं। और जब बेन और लाक इस दृष्टिकोण को प्रकृति-विज्ञान के क्षेत्र से दर्शन के क्षेत्र में ले आये, तब उस संकीर्ण, अधिभूतवादी विचार-प्रणाली का जन्म हुआ, जो पिछली शताब्दी की एक विशेषता रही है।
धिभूतवादी के लिए वस्तु और वस्तुओं के मानस-चित्र, अर्थात् विचार, एक दूसरे से विच्छिन्न और स्वाधीन हैं। वह उन्हें अनुसन्‍धान की स्थिर, निश्चित और अपरिवर्तनीय सामग्री मानता है; उन्हें एक दूसरे से अलग करके और एक के बाद एक देखता है। उसका चिन्तन ऐसे प्रतिवादों के रूप में होता है, जिनका परस्पर सामंजस्य हो ही नहीं सकता। ''ह बात करता है, तो 'हाँ' में, या 'नहीं' में, और जो न 'हाँ' में है, और न 'नहीं' में, वह शैतान की शरारत है।'' उसकी दृष्टि में या तो किसी वस्तु का अस्तित्व है या नहीं है, कोई वस्तु एक ही समय में जो वह है, उससे भिन्न नहीं हो सकती, भाव और अभाव पक्ष दोनों एक दूसरे से बिलकुल अलग हैं, दोनों में उभयनिष्ठ कुछ नहीं है। कार्य और कारण की कोटियाँ एक दूसरे के विपरीत हैं, और दोनों में कड़ा विरोध है।
पहली नज़र में यह विचार-प्रणाली अत्यन्त परिष्कृत और स्पष्ट मालूम होती है, क्योंकि यह प्रणाली तथाकथित स्वस्थ व्यवहार-बुद्धि की प्रणाली है। परन्तु यह स्वस्थ व्यवहार-बुद्धि अपने घर की चहारदीवारी के अन्दर तो एक विश्वसनीय सहायक के रूप में बड़े मज़े से रह लेती है, लेकिन जहाँ उसने अनुसन्‍धान के विशाल जगत में पदार्पण किया नहीं कि वह बड़े ख़तरे में पड़ जाती है। कुछ क्षेत्रों में, जिनका विस्तार इस बात पर निर्भर है कि अनुसन्‍धान के विशिष्ट विषय का स्वरूप क्या है, अधिभूतवादी विचार-प्रणाली आवश्यक और उचित भी है, परन्तु न्यूनाधिक काल के बाद यह प्रणाली एक ऐसी सीमा पर पहुँच जाती है जिसके आगे ले जाने पर वह एकांगी, संकुचित, अमूर्त और अवास्तविक हो जाती है, और अमिट विरोधों के भँवर में पड़कर अपना रास्ता खो बैठती है। अलग-अलग वस्तुओं पर विचार करते समय अधिभूतवादी उनके परस्पर सम्बन्‍धों को भूल जाता है, उनके अस्तित्व पर विचार करते समय वह उस अस्तित्व के आरम्भ और अन्त को भूल जाता है, उन्हें विराम-स्थिति में देखता है, लेकिन उनकी गति को भूल जाता है। वह वृक्षों के पीछे वन को नहीं देख पाता।
मिसाल के तौर पर अपने रोजमर्रा के काम के लिए हम यह जानते हैं और कह सकते हैं कि कोई प्राणी जीवित है या नहीं। लेकिन गौर से देखने पर यह मालूम होता है कि यह अक्सर एक बहुत पेचीदा सवाल होता है। कानूनदाँ इस बात को अच्छी तरह जानते हैं। उन्होंने इस बात को लेकर बहुत माथापच्ची की है कि वह मुनासिब हद कौन-सी है, जिसके आगे माँ के गर्भ के बच्चे को नष्ट करने का मतलब है हत्या करना; और फिर भी वह इसको निश्चित नहीं कर पाये हैं। इसी प्रकार मृत्यु के क्षण को सम्पूर्ण रूप से निश्चित करना असम्भव है, क्योंकि शरीर-विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है कि मृत्यु कोई आकस्मिक और क्षणभर में हो जाने वाली घटना नहीं है, वह एक बहुत लम्बी प्रक्रिया है।
इसी प्रकार प्रत्येक कार्बनीय पदार्थ हर क्षण में, जो वह है, उससे भिन्न भी है। वह हर क्षण बाहर से कुछ पदार्थ ग्रहण करता है और भीतर से कुछ अन्य पदार्थ खारिज करता है। हर क्षण उसके शरीर के कुछ जीव-कोष मरते रहते हैं और कुछ नये जीव-कोष पुनर्निर्मित होते रहते हैं और इस तरह न्यूनाधिक समय में उसके शरीर का पदार्थ फिर से बिल्कुल नया हो जाता है, पुराने पदार्थ की जगह नये पदार्थ के अणु ले लेते हैं और इसलिए हम कह सकते हैं कि प्रत्येक कार्बनीय पदार्थ किसी समय में जो वह है, उससे भिन्न भी है।
इतना ही नहीं, सूक्ष्मतर निरीक्षण के बाद यह भी पता चलता है कि किसी प्रतिवाद के दोनों छोर, भाव-पक्ष और अभाव-पक्ष, जैसे एक-दूसरे के विरोधी हैं, वैसे ही अभिन्न भी, और अपने सारे विरोध के बावजूद वे एक-दूसरे में अन्‍तरव्याप्त हैं। और इसी प्रकार हम देखते हैं कि कार्य तथा कारण की धारणाएँ तभी सार्थक हैं, जब हम उन्हें विशेष घटनाओं पर लागू करें। लेकिन जहाँ हम इन विशेष घटनाओं को समग्र रूप में अर्थात विश्व के साथ सम्बद्ध रूप में देखते हैं, वे एक-दूसरे से टकरा जाते हैं, और उनमें खासकर तब और भी गड़बड़ हो जाती है, जब हम उस विश्व-व्यापी क्रिया और प्रतिक्रिया पर ध्‍यान देते हैं जिनमें कारण और कार्य निरन्तर स्थान बदलते रहते हैं। जो एक समय और एक स्थान पर कार्य है, वही दूसरे समय और दूसरे स्थान पर कारण बन जाता है। और इसी तरह जो कारण है, वह कार्य बन जाता है।
धिभूतवादी तर्क-पद्धति का ढाँचा तैयार करने में इन विचार-प्रक्रियाओं और प्रणालियों का कोई हाथ नहीं है। इसके विपरीत द्वन्द्ववाद वस्तुओं और उनके मानस-चित्रों, अर्थात विचारों को, उनके बुनियादी सम्बन्ध, गति, आरम्भ और अन्त को ध्‍यान में रखकर ही ग्रहण करता है। इसलिए ऊपर जिन प्रक्रियाओं का हमने उल्लेख किया है, वे द्वन्द्ववाद की अपनी कार्यप्रणाली का समर्थन करती हैं।
द्वन्द्ववाद का प्रमाण प्रकृति है, और यह मानना ही होगा कि आधुनिक विज्ञान ने इस प्रमाण के लिए अत्यन्त मूल्यवान सामग्री प्रस्तुत की है और यह सामग्री प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस प्रकार विज्ञान ने यह दिखा दिया है कि अन्तत: प्रकृति अधिभूतवादी रूप से नहीं, द्वन्द्वात्मक रूप से कार्य करती है; वह एक सदा पुनरावर्तित वृत्त के अपरिवर्तनशील क्रम में चक्कर नहीं काटती, बल्कि वास्तविक ऐतिहासिक विकास के क्रम से गुजरती है। इस सम्बन्ध में सबसे पहले डार्विन का नाम लेना होगा। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि सभी कार्बनीय सत्ताएँ-वनस्पति, जीव तथा स्वयं मनुष्य विकास की एक ऐसी प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न हुई हैं, जो करोड़ों साल से चलती आ रही है। इस तरह उन्होंने प्रकृति की अधिभूतवादी धारणा पर सबसे कठोर आघात किया। परन्तु ऐसे प्रकृतिज्ञानी बहुत कम हैं, जिन्होंने द्वन्द्वात्मक रूप से विचार करना सीख लिया है, और अनुसन्‍धान के निष्कर्षों तथा पूर्वकल्पित विचार-पद्धतियों के बीच इस विरोध के कारण प्रकृति-विज्ञान के सैद्धान्तिक क्षेत्र में बेहद गड़बड़ी फैली हुई है, जिससे शिक्षक तथा शिक्षार्थी, लेखक तथा पाठक, सभी को निराशा होती है।
इसलिए विश्व का, उसके विकास का, मानव-जाति के विकास का, और मानव-मन पर इस विकास के प्रतिबिम्ब का, सच्चा चित्र द्वन्द्वात्मक प्रणाली के द्वारा ही मिल सकता है क्योंकि यही प्रणाली जीवन और मृत्यु, पुरोगामी और प्रतिगामी परिवर्तनों की असंख्य क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को सदा ध्‍यान में रखती है। नवीन ज़र्मन दर्शन इसी भावना को लेकर चला है। अपना दार्शनिक जीवन आरम्भ करते ही काण्ट ने न्यूटन की एक स्थायी सौर-मण्डल की धारणा को बदल डाला न्यूटन का विचार था कि यह सौर-मण्डल, एक बार आरम्भ में उसे जो वेग मिला - प्राथमिक वेग का यह सिद्धान्‍त प्रसिद्ध हो चुका है - उसके बाद से एक शाश्वत सतत अपरिवर्तनशील क्रम से चल रहा है। लेकिन काण्ट ने कहा कि यह सौर-मण्डल एक ऐतिहासिक क्रम का, एक चक्कर काटते हुए वाष्पपुंज से सूर्य तथा सभी ग्रहों के निर्माण का परिणाम है। इससे उन्होंने साथ ही यह निष्कर्ष भी निकाला कि यदि सौर-मण्डल की उत्पत्ति इसी प्रकार हुई है, तो भविष्य में उसका विनाश भी निश्चित है। आधी शताब्दी बाद, लैपलेस ने काण्ट के इस सिद्धान्त को गणित के आधार पर प्रमाणित कर दिया और इसके भी आधी शताब्दी बाद वर्णक्रमलेखी (स्पेक्ट्रोस्कोप) का आविष्कार होने पर यह प्रमाणित हो गया कि बाह्य अन्तरिक्ष में ऐसे चमकते हुए वाष्पपुंज हैं, और यह वाष्पपुंज घनीकरण की विभिन्न अवस्थाओं में है।
इस नये जर्मन दर्शन का चरम विकास हेगेल की चिन्तन-प्रणाली में हुआ। इस प्रणाली में - और यही इसकी बहुत बड़ी ख़ूबी है - यह पूरा जगत-प्राकृतिक, ऐतिहासिक तथा मानसिक जगत - पहली बार एक प्रक्रिया के रूप में, अर्थात सतत प्रवाह, गति, परिवर्तन तथा विकास की अवस्था में चित्रित किया गया है, और साथ ही उस आन्तरिक सम्बन्ध को, उस सूत्र को पकड़ने की कोशिश की गयी है, जिससे इस समस्त गति और विकास को एक क्रमबद्ध व्यवस्था का रूप मिल सके। इस दृष्टिकोण से मानव-जाति का इतिहास निरर्थक, हिंसक कार्यों का आवर्त न रह गया - ऐसे कार्यों का आवर्त जो परिपक्‍व दार्शनिक बुद्धि के न्याय-सिंहासन के सम्मुख सब के सब समान रूप से हेय तथा निन्दनीय हैं, और जिन्हें शीघ्र से शीघ्र भूल जाना ही श्रेयस्कर है - बल्कि इस दृष्टि से यह इतिहास स्वयं मनुष्य के विकास की प्रक्रिया के रूप में दीख पड़ा। अब यह काम बुद्धि का था कि वह इस प्रक्रिया के टेढ़े-मेढ़े रास्ते से क्रमिक विकास की गति को परखे, और जो घटनाएँ ऊपर से देखने में आकस्मिक जान पड़ती हैं उनमें अन्तरनिहित नियमितता को खोज निकाले।
हेगेल की प्रणाली ने जिस समस्या को विचार के लिए प्रस्तुत किया, उसे वह सुलझा न पायी, लेकिन इस बात का कोई महत्व नहीं हैं। उसका युगान्तरकारी महत्व इस बात में है कि उसने उस समस्या को प्रस्तुत किया। यह समस्या ही ऐसी है कि कोई एक व्यक्ति उसे कभी सुलझा नहीं पायेगा। सेण्ट-साइमन के साथ, हेगेल अपने युग में सबसे व्यापक चेतना रखनेवाले व्यक्ति थे, जिनका मस्तिष्क सचमुच विराट था; तब भी वह सबसे पहले अपने ज्ञान की अनिवार्य सीमा से, और दूसरे अपने युग के, विस्तार और गहराई, दोनों में सीमित ज्ञान और धारणाओं की सीमा से बँधे हुए थे। इनके बाद एक तीसरी सीमा भी थी। हेगेल आदर्शवादी थे। उनके निकट मानव-मस्तिष्क के विचार वास्तविक वस्तुओं और क्रियाओं के न्यूनाधिक निराकार प्रतिबिम्ब न थे, उल्टे यह वस्तुएँ और उनका विकास किसी ''विचार'' का व्यक्त, मूर्त और प्रतिफलित रूप था, और इस ''विचार'' का संसार के पहले से ही, अनादि काल से अस्तित्व रहा है। इस चिन्तन-प्रणाली ने हर चीज़ को सिर के बल खड़ा कर दिया, और संसार में वस्तुओं के यथार्थ सम्बन्ध को बिल्कुल उलट डाला। और यद्यपि हेगेल ने कितने ही विशिष्ट तथ्‍य-समूहों को ठीक-ठीक और बड़ी सूझ-बूझ के साथ समझा, फिर भी उपरोक्त कारणों से हेगेल की रचनाओं में बहुत कुछ ऐसा है, जो भोंड़ा है, बनावटी है, जबर्दस्ती किसी तरह ठूँसा गया है - एक शब्द में कहें तो तफसीली बातों में ग़लत है। हेगेल की प्रणाली में विचारों का एक भयंकर गर्भपात हुआ हैं, परन्तु यह अन्तिम बार ऐसा हुआ। वास्तव में यह प्रणाली एक ऐसे आन्तरिक विरोध से पीड़ित थी, जिसका कोई इलाज़ न था। एक ओर उसकी मूल स्थापना यह धारणा थी कि मानव-इतिहास विकास की एक प्रक्रिया है, जिसकी स्वभावत: यह परिणति कभी नहीं हो सकती कि किसी तथाकथित निरपेक्ष सत्य के आविष्कार को बुद्धि की चरम सीमा मान ली जाये। परन्तु दूसरी ओर इस प्रणाली का यह दावा था कि वह इसी निरपेक्ष सत्य का सार है। प्राकृतिक तथा ऐतिहासिक ज्ञान की एक ऐसी प्रणाली, जो सर्वव्यापी हो, सदा के लिए निश्चित हो और अन्तिम सत्य हो, द्वन्द्ववादी तर्क-पद्धति के मूलभूत नियम के प्रतिकूल है। और यह विचार कि बाह्य जग़त के विषय में हमारा व्यवस्थित ज्ञान, एक युग से दूसरे युग तक विराट प्रगति कर सकता है, इस नियम से बाहर नहीं, प्रत्युत उसके अन्तर्गत है।
जर्मन आदर्शवाद के इस मौलिक अन्तरविरोध की उपलब्धि का फल यह हुआ कि दार्शनिकों का झुकाव फिर भौतिकवाद की ओर हुआ, लेकिन ध्‍यान देने की बात यह है कि यह भौतिकवाद अठारहवीं सदी के अधिभूतवादी, बिल्कुल यांत्रिक भौतिकवाद से भिन्न था। पुराने भौतिकवाद की दृष्टि में समस्त पूर्वकालीन इतिहास हिंसा और निर्बुद्धि‍ता का एक पुंज है, परन्तु आधुनिक भौतिकवाद की दृष्टि में यह इतिहास मानव-जाति के विकास की एक निश्चित प्रक्रिया है, और उसका लक्ष्य है इस विकास के नियमों का पता लगाना। अठारहवीं शताब्दी के फ्रांसीसियों की और हेगेल तक की यह धारणा थी कि सम्पूर्ण प्रकृति एक सीमित वृत्त में घूमती है और सदा के लिए अपरिवर्तनशील है; जैसा न्यूटन ने कहा था, उसके आकाशीय पिण्ड नित्य हैं; और जैसा लिन्नीयस ने कहा था, सभी कार्बनीय जातियाँ नित्य और अपरिवर्तनशील हैं। आधुनिक भौतिकवाद ने प्रकृति-विज्ञान के हाल के अनुसन्‍धानों को ग्रहण किया है, जिनके अनुसार काल के प्रवाह में प्रकृति का भी एक इतिहास है, वह भी काल के अधीन है, और आकाशीय पिण्ड, उन कार्बनीय जातियों की तरह ही, जो अनुकूल परिस्थितियों में उनमें वास करते हैं, उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। और अगर अभी भी यह कहना होगा कि सम्पूर्ण प्रकृति निरन्तर पुनरावर्तित होनेवाले वृत्‍तों में घूमती है, तो साथ ही यह भी मानना होगा कि यह वृत्त निरन्तर वृहत्तर होते जाते हैं। दोनों पहलू से आधुनिक भौतिकवाद मूलत: द्वन्द्वात्मक है, और अब उसे ऐसे दर्शन की आवश्यकता न रह गयी, जो शेष सभी विज्ञानों पर शासन करने का दम भरे। जैसे ही प्रत्येक विज्ञान, वस्तुओं की विस्तृत समष्टि में, और उनके ज्ञान की समष्टि में, अपना स्थान स्पष्ट कर लेता है, वैसे ही इस समष्टि से सम्बन्ध रखनेवाले एक विशेष विज्ञान की आवश्यकता नहीं रह जाती और वह बेकार हो जाता है। पुराने दर्शन का अगर कोई भाग बचा रहता है, तो वह है विचार तथा उसके नियमों का विज्ञान-तर्क-शास्‍त्र और द्वन्द्ववाद। बाकी सब कुछ प्रकृति तथा इतिहास के प्रत्यक्ष विज्ञान का अंग बन जाता है।
यद्यपि प्रकृति सम्बन्‍धी धारणा में क्रान्ति उसी हद तक हो सकती थी, जिस हद तक उसके लिए अनुसन्‍धान द्वारा निश्चित सामग्री उपलब्ध हुई हो, बहुत पहले ही कुछ ऐसी ऐतिहासिक घटनाएँ हो चुकी थीं, जिनके कारण इतिहास की धारणा में एक निर्णयात्मक परिर्वतन सम्भव हुआ। 1831 में लियों नाम के नगर में मज़दूरों का पहला विद्रोह हुआ; 1838 और 1842 के बीच इंग्लैण्ड का चार्टिस्ट आन्दोलन, जो पहला राष्ट्रव्यापी मज़दूर-आन्दोलन था, अपने शिखर पर पहुँच गया। सर्वहारा वर्ग और पूँजीवादी वर्ग का वर्ग-संघर्ष यूरोप के सबसे उन्नत देशों के इतिहास में सामने आया, और उस हद तक सामने आया, जिस हद तक उनमें एक ओर आधुनिक उद्योग का और दूसरी ओर पूँजीवादी वर्ग के नये राजनीतिक प्रभुत्व का विकास हुआ था। तथ्यों ने अधिकाधिक शक्ति के साथ पूँजीवादी अर्थशास्त्रा के उपदेशों को झूठा ठहराया, जिनके अनुसार पूँजी और श्रम के हित एक हैं, और जिनके अनुसार अनियंत्रित होड़ का फल होगा विश्वव्यापी शान्ति और समृद्धि। इन नये तथ्यों की अब और उपेक्षा नहीं की जा सकती थी, और जो फ्रांसीसी और अंग्रेज़ी समाजवाद उनकी सैद्धान्तिक पर अपूर्ण अभिव्यक्ति था, न तो अब उसकी ही उपेक्षा की जा सकती थी। परन्तु इतिहास की पुरानी आदर्शवादी धारणा में -  और यह धारणा अभी तक निर्मूल न हुई थी - आर्थिक हितों पर आधारित वर्ग-संघर्षों का, या आर्थिक हितों का, कोई स्थान नहीं था; इस धारणा के अनुसार उत्पादन, तथा सभी आर्थिक सम्बन्ध ''भ्यता के इतिहास'' के आनुषंगिक और अप्रधान तत्व हैं।
इन नये तथ्यों के कारण समस्त विगत इतिहास की फिर से परीक्षा करना आवश्यक हो गया। और तब यह देखा गया कि आदिम युगों को छोड़कर, समस्त विगत इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा है, और समाज के यह संघर्षरत वर्ग सदा अपने युग की उत्पादन तथा विनिमय-प्रणाली से, या एक शब्द में कहें तो, अपने युग की आर्थिक परिस्थितियों से, उत्पन्न हुए हैं; और यह कि समाज का आर्थिक ढाँचा ही वस्तुत: वह आधार है, जिसके ऊपर किसी भी ऐतिहासिक युग की कानूनी और राजनीतिक संस्थाओं की और धार्मिक, दार्शनिक तथा दूसरे विचारों की पूरी इमारत खड़ी की जाती है, और इस आधार को ग्रहण करके ही हम पूरी इमारत को अन्तिम रूप से समझ सकते हैं। हेगेल ने इतिहास को अधिभूतवाद से मुक्त किया, उसने उसे द्वन्द्ववादी रूप दिया, परन्तु इतिहास की उसकी धारणा मूलत: आदर्शवादी थी। आदर्शवाद का अन्तिम आश्रय इतिहास की दार्शनिक धारणा थी, पर जब वह आश्रय भी जाता रहा; अब इतिहास की एक भौतिकवादी विवेचना प्रस्तुत की गयी। अभी तक मनुष्य की चेतना को उसकी सत्‍ता का आधार माना गया था, पर अब मनुष्य की सत्ता को उसकी चेतना का आधार प्रमाणित करने का मार्ग खुल गया।
इस ज़माने से समाजवाद किसी प्रतिभासम्पन्न मस्तिष्क की आकस्मिक खोज का फल न रह गया। अब वह ऐतिहासिक रूप से विकसित दो-वर्गों, सर्वहारा और पूँजीवादी वर्गों, के संघर्ष का आवश्यक परिणाम समझा जाने लगा। अब उसका उद्देश्य एक यथासम्भव सम्पूर्ण और दोषहीन समाज-व्यवस्था की कल्पना करना न रह गया। जिस ऐतिहासिक-आर्थिक घटनाक्रम से इन वर्गों और उनके विरोध का आवश्यक रूप से जन्म हुआ है, उसकी परीक्षा करना और इस प्रकार से उत्पन्‍न आर्थिक परिस्थितियों के अन्दर से उन साधनों को ढूँ निकालना, जिनसे इस संघर्ष का अन्त किया जा सकता है - यह हुआ समाजवाद का नया उद्देश्य। परन्तु इस भौतिकवादी धारणा से, पहले के दिनों के समाजवाद का कोई मेल न था, उसी प्रकार जैसे फ्रांसीसी भौतिकवादियों की प्रकृति सम्‍बन्‍धी धारणा का द्वन्द्ववाद तथा आधुनिक प्रकृति-विज्ञान के साथ कोई सामंजस्य न था। पहले के समाजवादियों ने निस्सन्देह अपने काल की पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली और उसके दुष्परिणामों की आलोचना की थी। परन्तु वह उनके कारणों का निर्देश न कर सके, और इसलिए वे उनपर काबू न पा सके। वे उन्हें बुरा समझकर त्याज्य ही ठहरा सकते थे। पुराने समाजवादी पूँजीवाद के अन्तर्गत अनिवार्य, मज़दूर-वर्ग के शोषण की जितनी ही तीव्र निन्दा करते थे, उतना ही वह यह समझाने में, स्पष्ट रूप से यह दिखलाने में असमर्थ रहते थे कि यह शोषण किस बात में है और कैसे उत्पन्न होता है। इसके लिए यह आवश्यक था कि (1) पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली के ऐतिहासिक सम्बन्‍धों का निर्देश किया जाये, और यह दिखाया जाये कि एक विशेष ऐतिहासिक युग में उसका उत्पन्न होना अनिवार्य था, और इसीलिए उसका पतन भी अवश्यम्भावी है; और (2) पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली के मौलिक स्वरूप को, जो अभी भी एक रहस्य बनी हुई थी, प्रकट किया जाये। अतिरिक्त मूल्य की खोज से यह पूरी हो गयी। यह दिखाया गया कि पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली और उसके अन्तर्गत होने वाले मज़दूर के शोषण का आधार यह है कि मज़दूर की मुफ़्त की मेहनत से जिस मूल्य की सृष्टि होती है, मालिक उसे हड़प लेता है। और अगर पूँजीपति अपने मज़दूर की श्रम-शक्ति को, बाज़ार में बिकनेवाले माल के रूप में पूरा दाम देकर ख़रीदता है, तो भी वह उससे, जितना वह उसपर ख़र्च करता है, उससे अधिक मूल्य निकाल लेता है और अन्तत: इस अतिरिक्‍त मूल्य से ही मूल्यों के वे परिमाण बनते हैं, जिनसे धनी वर्गों के हाथ में एक निरन्तर बढ़ती हुई पूँजी की राशि एकत्र होती है। पूँजीवादी उत्पादन, और पूँजी के उत्पादन का स्रोत क्या है, यह स्पष्ट हो गया।
इतिहास की भौतिकवादी धारणा, और अतिरिक्त मूल्य के द्वारा पूँजीवादी उत्पादन के रहस्य का उद्घाटन - इन दो महान आविष्कारों के लिए हम मार्क्‍स के आभारी हैं। इन आविष्कारों के फलस्वरूप समाजवाद एक विज्ञान बन गया। अब इसके बाद जो काम था, वह यह कि उसके सभी ब्योरों और सम्बन्‍धों को निश्चित किया जाए।

                                          -फ्रेडरिक एंगेल्‍स (समाजवाद: काल्‍पनिक और वैज्ञानिक, 1880)


* विज्ञान के विकास के अलेक्‍जेंड्रियन काल में ई. पू. तीसरी शताब्‍दी से ईसा की सातवीं शताब्‍दी तक का समय लिया जाता है। इसका नाम मिस्र के नगर, अलेक्‍जेंड्रिया पर पड़ा है, जो उस ज़माने में अन्‍तरराष्‍ट्रीय आर्थिक आदान-प्रदान का एक अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण केन्‍द्र था। अलेक्‍जेंड्रियन काल में गणित (यूक्‍लीड और आर्कमेडीज), भूगोल, खगोलशास्‍त्र, शरीर-रचना विज्ञान और शरीर-विज्ञान आदि का बहुत काफी विकास हुआ था। - सं.

2 comments:

  1. sathi Article ke neeche diye gaye note ki tisri line ka 11th akshar kaam ki bajaye kaal hona chahiye baki lekh behad mahtvpurn he...

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  2. साथी,मेल मैं कुछ देर से देख पायी। ग़लती इंगित करने के लिये धन्‍यवाद। इसे सुधार दे रही हूँ।
    -कविता

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