Tuesday, January 29, 2013

शिशिर-सिम्फ़नी-2000



(अम्मा को सम्बोधित)

उस दिन मैंने देखा तुमको
एक लम्बे समय बाद
और सोचा
यूँ पहुँचती है समापन तक
एक अजेय शौर्यगाथा
और पृथ्वी के गर्भ में
अनवरत सुलगती रहती है
दर्द की कोई अकथ कथा,
यूँ बीतता है शीतकाल,
और बसन्त भी
और ग्रीष्म और बरसात भी
और किताबों में समा जाती है
शवगृहों की दुर्गन्ध-युक्त सीलन
और ज़ि‍न्दगी
गर्म पिघले तारकोल की तरह
बहती रहती है
और दु:ख
सूखे हुए आँसू के एक क़तरे की तरह
चुप रहते हैं
और समय जलता रहता है
जले हुए काले मोबिल में सराबोर
पटुए की तरह
और प्यार
किशमिश की तरह सूखता रहता है
और चीख़ें जम जाती हैं
उत्तरी ध्रुव से भी कम तापमान पर
और उदासी होती है
अस्पताल की दीवारों की तरह
हर तकलीफ़ की गवाही देती हुई
और लगभग सभी नये-पुराने दोस्त होते हैं
आसपास ही कहीं
अपने अकेलेपन की तरह
और यह सारा सिलसिला
स्मृतियों-अनुभूतियों-घटनाओं-रहस्यों-विभ्रमों का
सोख लेती है
एक अकेली औरत की ज़ि‍न्‍दगी
और एक सूखे काठ पर
बजती रहती है कठफोड़वा की चोंच
और हृदय की हर धक्-धक्
ज्यों कहती है - ठक्-ठक्!

कभी नहीं जाना चाहा
मैंने तुमसे दूर।
पर तुम तो जानती थी मेरी सनकें
और हर उचटती नींद में मेरा यह सोचना
कि किसी बौड़म-सा गुजरूँगा
मैं बस्तियों से गाते हुए
और तमाम हँसती-खिलखिलाती
मगर बेपनाह दुखों की मारी स्त्रियाँ
मेरे साथ हो लेंगी
और वे चूमेंगी मुझे
प्रेमिकाओं की तरह
या तुम्हारी तरह, एक माँ की तरह
और साए में सुस्ताते मज़दूर
देंगे मुझे रोटी, मिर्च, नमक, गुड़ और प्याज़
और कहेंगे रुककर खाते जाने के लिए।
और मैं रुकूँगा
और मैं फिर आगे बढ़ जाऊँगा
और मैं रहूँगा
उतना ही विश्वसनीय
जितना कि अविश्वसनीय।
सिर्फ़ तुम जानती हो
मेरा यह कहना कि
मुझपर भरोसा न किया जाए पूरी तरह
और किसी भी क़ीमत पर
सार्वजनिक न हो सकें
मेरे अपने दुख
और तुम जानती हो मेरी यह कामना
कि दुनिया में मूर्तियाँ न बनें कभी भी
और सब कुछ के बावजूद
तिरस्कृत, अकेला छोड़ दिए जाने की
हार्दिक आत्मपीड़क इच्छा
और यह कि
अमर प्रेम जैसी कोई चीज़
न हुआ करे दुनिया में
और वायदे हों
ज़्यादातर मामलों में
टूट जाने के लिए
क्योंकि हर चीज़ की तरह
वे भी पुराने पड़ जाते हैं।
और इन सबने भी शायद मुझे दूर किया
तुम्हारी गरिमा से,
तुम्हारे दुखों से,
और तुम्हारे प्यार से,
जो शायद मैं सह नहीं पाता था।

इसीलिए,
जब जेल-से दिन थे
और शायद अपने लिए कुछ लालच भी,
सोते से उठकर चल पड़ा था
उस सायबान से
यही कोई चौथाई सदी पहले
तुम्हारे दर्द से
सोखकर अपना ईंधन
बस इतनी सी ख्वाहिश लेकर
कि कोई अँधेरी सुरंग या भुला दिया गया रास्ता
या नदी में फूलकर बहता-उतराता
आत्मतुष्ट मृतक शरीर
नहीं बनना है
चीख़ना है सन्नाटे में सायरन की तरह
और चुप रहना है
स्मृति-बोझिल, पुरानी, काली चट्टान की तरह
और ढोना है
पत्थर ढोने वाले
उदास, पुराने ट्रक की तरह
तमाम विकलताओं का बोझ
और अहमक की तरह
तुम्हारी प्रतीक्षा करनी है
कि आओ, अपने धीरज और मौन को
हथियार बनाकर
मेरी सक्रियता में
और अपनी स्मृतियों से
ऊर्जस्वित करते हुए
मेरा विवेक
और मुझे बचाओ
स्त्रियों के प्रति असंवेदनशील
या निर्मम हो जाने की विभीषिका से
ताकि मैं बना रहूँ
अँधेरे की तरफ़ चुपचाप बढ़ते,
बहते हुए गर्म ख़ून का हमक़दम
और हरी काई की तरह
हर साँस में खींच सकूँ
तमाम मेहनतक़श यंत्रणाओं की गन्ध
और भरपूर जि़न्दादिली
और साहस की रौ में
जज़्ब कर सकूँ
गुमनाम-बेशिनाख़्त उदासियाँ,
हर जीवित यातना की अनुद्विग्‍नता
और सोच सकूँ
निर्मम-बेपरवाह तर्क-शक्ति के साथ।

यही सबकुछ था
या शायद सुदूर का कोई तारा था आँखों में
कि ज़ख्मों पर स्तनों से होने वाली
दूध की फुहारों से
दूर कर सका था ख़ुद को,
दुनिया की सबसे सुन्दर स्‍त्री से
अलग हो सका था
जिसने गढ़ा था मुझे
अपने ही किसी मनचाहे साँचे में
और बेशक असफल रही थी
हर अच्छे कलाकार की तरह।
अभी भी, शायद,
दुनिया की कोई ताक़त मुझे
यह मानने को विवश नहीं कर सकती
कि तब मैं था अँधेरे में भयभीत
एक खोए हुए बच्चे की तरह।
पर माँ-बेटे के बीच
जो एक राज़ रहना चाहिए था
इसे खुला कर रहा हूँ मैं आज
एक आत्मस्वीकृति की तरह
अपनी ख़ातिर
और अपने साथियों
और अपने लोगों की ख़ातिर
कि जब इराक पर बमबारी हो रही थी
और मर रहे थे बेगुनाह लोग
और मासूम बच्चे,
जब अमेज़न के जंगलों की
तबाही के बारे में पढ़ रहा था,
जब चीन में टूट रहा था
मेहनतकशों का स्वप्न,
जब कहीं भूकम्प या समुद्री तूफ़ान
कहर बरपा कर रहा था
या कोई महामारी बन रही थी
प्रकृति का अन्धा प्रतिशोध,
जब कहीं कोई कायरता
या निर्माणाधीन महानता
असहनीय बन रही थी,
जब आन्ध्र में, बिहार में या कहीं भी
हमारे लोगों की ठण्डी हत्याएँ हो रही थीं,
जब कहीं कोई नया सौदा हो रहा था
श्रम का, सम्मान का, प्राकृतिक सम्पदा का या भविष्य का
जब कर्फ़्यू लगाये जा रहे थे
नींद में स्वप्नों की आवाजाही रोकने की ख़ातिर,
या कहीं भी यदि गोलीबारी,
जेलख़ाने और ज़ंजीरों की बातें थीं
तो मैं तुमसे मिलना चाहता था,
दो-चार बातें करना चाहता था।
तुम समझती हो मेरी हर बात।
दुनिया में जिस हद तक होगा
किसी के पास एक माँ जैसा दिल
उतनी ही उसकी समझ होगी
कविता की, लोगों की, जीवन और स्वप्नों की,
उतना ही वह समझ सकेगा
भविष्य के रहस्य-संकेत।

बहुत बचपन की याद है अभी भी
जब लोग तुम्हें
मधुबाला-सी सुन्दर कहते थे
और मैं गर्व महसूस करता था
और तुम्हारे दुख, तुम्हारा धैर्य,
तुम्हारी प्रतीक्षाएँ, तुम्हारे शोक,
और तुम्हारी आकुलता
और तुम्हारी कठोरता और आर्द्रता
सबकुछ भरता रहता था
अन्तस्तल के अनगिन कोटरों में,
नहीं जानते हुए भी
उस जीवन को
जो आगे मुझे चुनना था।
आज जंगल-से इस जीवन में
बाघ की तरह रहता हुआ
रात में आता हूँ
चैकन्ना-दबे पाँव
स्मृतियों की पुरातन नदी के तट पर
और पीता हूँ
तुम्हारी अजेय आत्मा का अप्रतिम सौन्दर्य।
तब शायद अचानक
तुम जागकर
कान लगाकर सुनने लगती होगी
निस्तब्ध अँधेरे में कहाँ से आ रही है
चप्-चप्की आवाज़!
लेकिन तब तक
मैं निकल पड़ता हूँ
फिर किसी खोज में,
किसी शिकार की तलाश में
या किसी अपूर्व युद्ध की पदचापों को
सूँघता हुआ
घने बीहड़ों की ओर
इस गौरव के साथ
कि मैं हूँ ऐसी माँ का बेटा।
फिर सोचता हूँ कि
दुनिया में अक़सर
अपनी माँ पर गर्व ही गढ़ता है
कुछ अलग करने को आतुर
सृजनाकुल मन।

इस बीच मुझ पर जो गुज़री
ज़्यादा कुछ नहीं रहा बताने को।
एक सामान्य-सी जि़न्दगी ही रही
और जो असामान्य रहा
वह इसलिए कि
अनुभव कम थे मेरे
और मेरी अनुभवहीनता ने भी पैदा की
कई बार असामान्य-सी स्थितियाँ
या फिर इसलिए भी
कि समय ही कुछ कठिन था
असामान्य रूप से।
फिर भी यक़ीन करो,
नफ़रत मैं करता हूँ अभी भी
घुटा हुआ होने से,
गंजी-ठण्डी विद्वत्ता की शाह-मुहरा-सी दमक से
और सूखी आँखों से
और अक़सर पार्कों में
पगडण्डियों के किनारे लेटकर
नापता हूँ चेहरों की धरती से दूरी
और कान लगाकर सुनता हूँ
आती-जाती पदचापें।
अब सीख गया हूँ
बर्फ़ीले समय में
स्लेजगाड़ी में नाधे गए
सधे कुत्तों की तरह
सावधान-सतर्क भागते रहना
और आत्मा से बर्फ़ के फ़ाहे झाड़ते रहना
और सुनता हूँ
खिड़कियों का खुलना कहीं,
अलाव का जलना कहीं,
पत्तों का झड़ना कहीं,
तारों का टूटना कहीं,
उम्मीदों का और जीवन का पूरा होना कहीं,
मिलना कहीं, मरना कहीं
और जनमना कहीं।
धरती के किसी कोने से उठते
शोर पर कान देना
और किसी एक अकेली चीख़ पर भी,
आत्मसम्मोहित विद्वत्ताओं की तमाम कि़स्मों
और उजरती गुलामियों के तमाम रूपों को पहचानना,
गिलहरी की तरह
अनाज या संवेदना या दोस्ती या प्यार का
हर दाना
दोनों हाथों से थामना,
लंगर डाले नावों के रस्से
रात को चोरी से खोल देना,
अँखुवों के फूटने की आवाज़ें सुनना,
ख़ामोश कर दी गई ध्वनियों को
धरती के गर्भ से निकाल लाना,
बवण्डरों में
उन्मत्त घोड़ों की तरह भागना
और ऐसा ही बहुत कुछ
सीखता रहा हूँ लगातार
और ऐसे ही दूसरे हुनरों में
महारत हासिल करता रहा हूँ।
और सबसे बढ़कर यह कि
मैं लोगों के दुखों और इच्छाओं को
पढ़ सकता हूँ
तुम्हारी आँखों की तरह
और थकान भी पढ़ सकता हूँ
और भाँप सकता हूँ
भावनाओं का हर दबाया गया आवेग
या संकल्पों के खौलते लावे के
उमड़ने का समय
काफ़ी हद तक
और बचपन से जारी अभ्यास
अभी भी जारी रखता हूँ कि
तरलता आँखों में कभी न आए
उमड़ने की हद तक
और असफल भी होता रहता हूँ।

तुम्हारे पास से चलने के समय से
लेकर अब तक
मैं लगातार यात्रा करता रहा हूँ
गूँगी घाटियों, रक्त-सनी गर्म सड़कों,
कारख़ानों, खेतों, रहस्यमय प्रदेशों,
वीरान-उजड़ी बस्तियों,
व्याकुल नदियों, मरुस्थलों,
शीरे के पीपों, ख़ाली कनस्तरों,
चर्बी के दलदलों,
शराबख़ानों, पुस्तकालयों, सभागारों, वेश्यालयों,
खण्डित मनों, महानता-बोधग्रस्त दीवारों,
स्खलित संकल्पों,
लम्बी साँसें भरते मील के पत्थरों,
कलंकित-लांछित जंगलों,
डीह पूजती, देव बुलाती
मूर्ख और कपटी और पशुवत सरल
स्त्रियों के हुजूमों,
कस्टम और पासपोर्ट के दफ़्तरों
और टोल टैक्स वाले पुलों से
गुज़रता हुआ।
हर उस जगह रुकता रहा हूँ
हर उस मन में विराम लेता रहा हूँ
हर उस काया पर ठहरता रहा हूँ
जहाँ तुम्हारी कोई छाया थी,
कोई छाप या निशानी या अक्स
या कोई गन्ध थी तुम्हारी
और सोचता रहा हूँ,
एक यायावर की तरह
और स्त्रियाँ चूँकि नहीं होतीं
महज़ एक सायबान,
एक विश्राम-स्थली,
इसलिए वे शायद महसूस करती रही हैं
मेरे हाथों अपमानित अपने-आपको
और अकेली रह जाती रही हैं
मेरे अकेलेपन से सर्वथा अपरिचित
और मेरे साथ से भी।
मैं सोचता हूँ
स्त्रियों के दु:खों के बारे में
और उनका आदर करता हूँ।
विज्ञान और इतिहास की
समझ से भी अधिक
शायद इसका कारण यह है
कि तुम एक स्‍त्री हो
जो लाई हो मुझे, यहाँ,
जि़न्दगी की जद्दोजहद से सरगर्म
इस धरती पर।

उस दिन मैंने देखा तुम्हें
दूर से आते हुए
जि़द्दी-चीमड़ बीमारियों को
तुम्हारे श्रम-तपे शरीर में धँसे हुए
जैसे किसी पुराने पेड़ में धँसी कुल्हाड़ी
या जैसे कोई दाँतेदार आरी
घुसी अँटकी हो ठोस दीवार में
मुझे तेज़ बारिश में हिलते
घोंसले याद आए
और एकदम अप्रासंगिक,
मैं अपनी यात्राओं के बारे में सोचने लगा।
याद करने लगा
दक्षिण की काली चट्टानों से
अपनी बातचीत,
झुकी पड़ी विंध्य-मेखला को
धिक्कारना निरर्थक प्रतीक्षा के लिए
और बताना अगस्त्य की कुटिलता के बारे में,
और यह कि क्या माँग रहा था मैं
कोणार्क के सूर्यमन्दिर के निकट
सागर-तट पर, तूफ़ानी लहरों से
और कि क्या किसी पीड़ा की गवाही के लिए
तैयार थी पश्चिमी घाटों की हरीतिमा?
एक रहस्य की तरह
ये विचार आए
मेरे हृदय के पास,
पहले चाकू की तरह
फिर दवा से भिगोए रुई के फ़ाहे की तरह।
तुमसे बातचीत की मैंने
और किसी शान्त समुद्री यात्रा जैसी,
लगातार सम गति से चलती
एक मालगाड़ी जैसी,
खदान में रिसते पानी जैसी
और चाँद के दुखों जैसी
एक और रात के गुज़र जाने के बाद
अगली सुबह
एक अकेला निश्‍चय था मेरे पास
कि इस शरीर को घिस दिया जाना चाहिए
इसकी तमाम बीमारियों सहित
और तमाम निठल्ले-विद्वत्तापूर्ण विमर्शों
और सन्नाटे जैसे चिन्तनों
और आरामदेह ठिकानों पर
आराम से तय होती
भावी युद्ध की रणनीतियों-योजनाओं के बीच,
इस दुनिया को बदल देने का काम
आखि़री सम्भव हद तक
तेज़ कर दिया जाना चाहिए।

अभी भी विद्रोह है दुनिया में
अपने उज्ज्वल भविष्य
और विकसित होते नियमों के साथ
जैसे कि दु:ख है
लगातार गहराता हुआ
हर तरक़्क़ी के साथ,
और इसलिए, फिर भी लगता है
सबकुछ रुका हुआ
कि बहुत दु:ख है इस दुनिया में,
बहुत कालिख है साफ़ करने को,
बहुत मलबा है हटाने को,
जैसे कुछ के लिए बहुत विद्वत्ता है झाड़ने को।
बहुतों को
उपयोगी ज्ञान की दरकार है
स्थूल दुनिया के क्लासिकी बर्बर दु:खों से
लड़ने के लिए
और कुछ को क्‍वाण्टम जगत की
ग़ैर-क्लासिकी सूक्ष्मता और अनिश्चितताओं के बारे में
सबकुछ जान लेने तक,
सबकुछ का सिद्धान्तखोज लिये जाने तक,
टाले रहना है
ज़मीनी कार्रवाइयों में उलझना
मसलन, लोगों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करना
जैसे कि तमाम दूसरी व्यस्तताओं के दबाव में
टाल रहे हों वे
महज़ दोपहर की अपनी नींद।
दु:ख बहुत है
इस दुनिया में पसरा हुआ
किसी टूटे तेलवाहक जहाज़ से
सागर की सतह पर फैली
तेल की परत की तरह।
इसे धधका देना है।
जला देना है इसे
इसलिए तुम्हें अभी जागते रहना है
मेरे भीतर
और मुझसे आज़ाद,
और मुझे भी तुमसे आज़ाद रहना है
इस दुनिया को तबाह करने के काम में
लगातार लगे रहने के लिए
और नई दुनिया के निर्माण की समस्याओं-बाधाओं
के बारे में सोचते रहने के लिए।
पर तुम यूँ न बैठो
थककर रास्ते में
रखे हुए घायल घुटनों पर हाथ।
उठो कि
तुमसे अभी पाना है बहुत कुछ मुझे,
अभी और ईंधन सोखना है तुमसे।
उठो
और डाँटो मुझे
मेरी उच्छृंखलता और आवारगी के लिए।
कहो मुझसे
ज़रूरी काम समय से निपटाने के लिए,
लैम्प जलाकर, चटाई बिछाकर
पढ़ने बैठ जाने के लिए,
मुझे भेजो ठण्ड में भी नहलाकर,
बस्ता देकर स्कूल।
युवा हो जाओ
एक बार फिर मेरे भीतर
आकर साँस लो
और इस सदी में
लड़ाई को फ़ैसलाकुन अंजाम तक
पहुँचाने की जि़द से
मुझे सराबोर कर दो
मेरी माँ!

-शशि प्रकाश 
10-13 फरवरी,2001
(पहला, कच्‍चा मसविदा, 28दिसम्‍बर,2000)

2 comments:

  1. muktibodh ki kavita `andhere me' ki yaad dilati kavita!

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  2. lekin is kavita me ummeed or sapne shandaar unchaion tak hen

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