Saturday, November 17, 2012

एक असमाप्‍त कविता की अति प्राचीन पाण्‍डुलिपि

स्‍त्री हूँ, अज्ञान के अन्‍धकार में भटकने को पैदा हुई - यह जानने में ही उम्र का एक बड़ा हिस्‍सा ख़त्‍म हो गया। पशु नहीं थी फिर भी। या बन नहीं पायी। जो अपरिचित रह जाती ज्ञान से।

गुरु बिना ज्ञान नहीं सम्‍भव। यह जाना। सुना। गुरु मिले। उम्र का एक और बड़ा हिस्‍सा ख़त्‍म करने के बाद। 'पेड़ बनकर फल और छाया दो' - गुरु ने कहा। बतलाया मुक्ति-मार्ग। आज्ञा शिरोधार्य। वैसा ही किया मैंने। बहुत सारे लोग आये भूख मिटाने। मेरी छाया में करने आराम। कुछ ने मेरी टहनियॉं तोड़ डालीं। मसल डाली फुनगियॉं। कुछ ने काट दी डालियॉं। और कुछ ने तनों की खाल खुरचकर अपने नाम लिख डाले।

फिर गुरु ने कहा - 'धरती बनो।' धरती भी बनी मैं। सर्वहारा। सदियों वे चीरते रहे मेरी छाती और जो कुछ भी पैदा किया उसके लिऐ लड़ते रहे। उनका ख़ून जज्‍़ब होता रहा मेरी खुली छाती में। दूध नहीं, सिर्फ ख़ून ही चूस सकते थे वे मेरे स्‍तनों से। और मातृत्‍व की महानता पर रच सकते थे अनगिन कविताएँ।

तब ग़ुरु ने कहा - 'एक विशाल, हवादार, रौशन घर बन जाओ।' तत्‍क्षण किया ऐसा ही। शीत-आतप की चिन्‍ता किये बिना। पर उन्‍होनें मेरी सारी खिड़कियॉं बन्‍द कर दीं। मूँद दिये सभी रोशनदान। दरवाज़ों पर वजनी ताले डाल चाभियॉं तेज़ाब की एक नदी में फ़ेक दीं। और मेरी रूह को घुप्‍प अँधेरें में कैद कर दिया।

इस बार गुरु ने कहा - 'एक किताब बन जाओ।' सो बन गयी मैं। पर उन्‍होनें सीधी-सादी बातें कहतीं मेरी तमाम लाइनों को तरह-तरह की रोशनियों से अण्‍डरलाइन कर दिया। जटिल व्‍याख्‍याओं के पेपरवेट से मुझे कुचल दिया। फिर तकिये के नीचे दबाकर सो गये।

आख़ि‍री राह सुझायी गुरु ने - 'धरती छोड़ उड़ जाओ आकाश में। ग्रह बन जाओ। रात के अन्‍धकार में चमकती रहो सूर्य के प्रकाश से। और फिर उसे भेजती रहो धरती पर।' टिमटिमाती भर रही मैं। थोड़ी सी रोशनी से अपनी पहचान कराती। धरती पर रोशनी न भेज पाने के असन्‍तोष को झेल भी लेती शायद अपनी अस्मिता की मान्‍यता के सुख में जीती हुई। पर आवारा उन्‍मुक्‍तमना उल्‍कापिण्‍ड लगातार टकरा-टकराकर मुझे लहूलुहान करते रहे। तब जाना कि उड़कर इस पृथ्‍वी से दूर जा सकते हैं सिर्फ महान कवि। कोई आम आदमी नहीं। स्‍त्री क़तई नहीं।

लौटी फिर गुरु की शरण में। वहॉं मौन था मेरे लिए। चतुर्दिक एक निरुपाय नितान्‍त नीरवता। सहना - कुछ न कहना। जाहि बिधि राखे राम ताहि बिधि रहना। पर हालात इस क़दर बुरे थे और मन इस हद तक बेचैन कि रह पाना सम्‍भव ही न था अकेले चुपचाप या जी पाना स्‍वान्‍त:सुखाय। फिर जब जीना ही था मरना तो चार युगों, चौरासी करोड़ योनियों का दुख झेल, तैंतीस करोड़ देवताओं को कोप झेल, ऋषियों-मुनियो-यतियों-यक्षों से शापित, उतर पड़ी उस काले जल वाले सरोवर में जिसके तल में था रसातल। वहॉं वे रसातलवासी लगातार बकते रहे गालियॉं। सुनाते रहे उलटबॉंसियॉं। पर अन्तिम ठौर था मृत्‍यु से भी आगे यह। फिर जाती कहॉं मैं? वहीं भटकती रही। तब फिर बरसों बाद अर्थ खुले उन तमाम उलटबॉंसियों के। चीज़ों का जानना हुआ एक हद तक। और यह कि चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में लोग खुद को भी बदल लेते हैं। और यह कि स्‍त्री के लिए भी पहली ज़रूरी चीज़ यह जानना है कि एक बेहतर दुनिया के वास्‍ते कविता लिखने की हद तक जीना एक बेहद बुरी दुनिया की बुनियादी बुराइयों और उन्‍हें बदलने की इच्‍छा और उद्यम को शब्‍द देने और शक्ति देने के बाद ही सम्‍भव हो सकेगा।

तब मैंने वह करने की सोची। और जो भी ज़रूरी था इसके लिए, वह करना शुरू किया। पर समय अब बहुत कम ही बचा था मेरे पास। इतना कम कि लिखने से पहले, लिखने की शर्त पूरी करने में ख़तम होने को आ गया। और तब आने वाली दुनिया के तमाम लोगों के लिए मैंने एक लम्‍बा प्रेम पत्र लिखा। रहस्‍यपूर्ण और तमाम रहस्‍यों को खोलता हुआ। और फिर उस रहस्‍य को लिए हुए साथ, कब्र में जा लेटी।

वहॉं से भेज रही हूँ यह एक कलाहीन कविता दुनिया के तमाम सुधी आलोचकों-सम्‍पादकों के नाम। मेरी कब्र के ऊपर नहीं बना है कोई पक्‍का चबूतरा। कोई पहचान नहीं उसकी। न कोई नामपट्टी, न कोई समाधि-लेख जिससे कि आप मेरे सफ़र के आखि़री मुक़ाम की शिनाख्‍़त कर सकें अपने तमाम सम्‍पादकीय अनुभवों और आलोचनात्‍मक विवेक के बावजूद। यदि यह कविता बन सकी एक थकी हुई मगर अजेय स्‍त्री की पहचान तो यह कविता रहेगी असमाप्‍त। और यह दुनिया जबतक रहेगी, चैन से नहीं रहेगी।

                                                                                                                     -कात्‍यायनी



2 comments:

  1. बहुत सुन्दर रेखाचित्र
    पहली बार आना हुआ
    आभार्

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  2. शायद इसी को नियती मान लिया उसने मगर सितारों से आगे जहान और भी है बस जरूरत है अपने लिये सबसे पहले खुद से लडने की उसके बाद हर जगह अपना स्थान बनाने की। अभी एक कुरीति पर मैने भी एक आलेख लगाया है……।
    "कन्यादान" ............एक सामाजिक कुरीति………इस लिंक पर
    http://vandana-zindagi.blogspot.in/2012/11/blog-post_19.html

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