Thursday, October 18, 2012

नायकों की प्रतीक्षा में मायूस मध्‍यवर्ग

( जागरूक नागरिक मंच, स्‍त्री मुक्ति लीग, दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा की ओर से जारी पर्चा)






एंड्रिया: ''अभागा है वह देश, जिसके कोई नायक नहीं।'' 
गैलीलियो: ''नहीं, अभागा है वह देश जो नायकों की प्रतीक्षा करता है।'' 


(बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट के नाटक 'गैलीलियो का जीवन' से) 


भारत विडम्‍बनाओं का देश है। अवतारी पुरुष हमें कर्म का उपदेश देते हैं और फिर आश्‍वस्‍त भी कर देते हैं कि यदि धरती पर 'पाप का बोझ' बढ़ जाये तो वे स्‍वयं अवतरित होकर कष्‍टहरण कर देंगे। चरम निराशा में डूबे आम लोगों और कर्मविमुख मध्‍यवर्ग को अवतारों, मसीहाओं, नायकों का हरदम इन्‍तज़ार रहता है।

पूंजीवादी लोभ-लाभ-लूट के घटाटोप में कई बार कोई मजमेबाज या कूपमण्‍डूक भी मंच पर आकर लोकलुभावन नारा उछाल देता है और मध्‍यवर्ग के लोग 'बदलाव का मसीहा' मानकर उसके पीछे लग लेते हैं। फिर जल्‍दी ही मोहभंग हो जाता है और नये नायक की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है। यह सिलसिला तब तक चलता रहता है जबतक ऐश्‍वर्य और अनाचार की अट्टालिका के अंधेरे तलघर के निवासी 'अनागरिक' (वे कथित 'नागरिक समाज' के बाहर होते हैं!) एकजुट होकर सबकुछ उलट-पुलट देने के लिए उठ नहीं खड़े होते।

भारतीय मध्‍यवर्ग को बहुत दिनों बाद एक साथ दो-दो नायक मिल गये थे: अण्‍णा हजारे और रामदेव। अण्‍णा हजारे नीचे से ऊपर तक, घट-घट व्‍यापे भ्रष्‍टाचार को मिटाने के लिए जनलोकपाल का रामबाण नुस्‍खा लेकर आये और फिर चुनाव-प्रणाली में सुधार, पंचायती राज आदि अन्‍य चूरन-गोली भी सुझाने लगे। रामदेवने देश के सारे सरदर्द-टेंशन का अचूक इलाज बताया कि विदेशों में रखा सारा काला धन आ जाये तो देश समृद्धि और सुख के शिखर पर पहुंच जायेगा। एक के पास गांधी टोपी थी, तो दूसरे के पास भगवा चोला। दोनों के पास भारत माता के जैकारे थे, वन्‍देमातरम के नारे थे, लहराते तिरंगे थे, देशभक्ति के फ़ि‍ल्‍मी गीत थे, राजनीतिक नौटंकी के भरपूर मसाले थे। एक के पास एन.जी.ओ. और तथाकथित सिविल सोसायटी के सुधारवादी चिन्‍तक, कुछ पत्रकार, वकील व पूर्व नौकरशाह थे तो दूसरे के पास कुछ दुर्दान्‍त अतीतग्रस्‍त राष्‍ट्रप्रेमी। एक शिक्षित शहरी मध्‍यवर्ग, विशेषकर युवाओं को ज्‍़यादा भा रहा था तो दूसरा, ख़ासकर 'यम-नियम-आसन' के विश्‍वासी ''धर्मप्राण'' जनों को रास आ रहा था। मीडिया दोनों को उछाल रहा था, क्‍योंकि उसे नये स्‍टार और नयी राजनीतिक सनसनी मिल रही थी।

लेकिन जनता की उम्‍मीदों पर तुषारापात हो गया। ''धीरोदात्त'' नायकों की विजय के साथ जिन नाटकों के ओजस्‍वी पटाक्षेप की प्रतीक्षा थी, वे महज़ दो फुसफुसे प्रहसनात्‍मक एकांकी सिद्ध हुए। रामदेव महाक्रान्ति का घनघर्जन करते हुए, बिना कुछ हासिल किये हरिद्वार जा बिराजे और सरकारी छापों-जांचों से अपने 1100 करोड़ के व्‍यावसायिक साम्राज्‍य को बचाते हुए कुछ रस्‍मी बयानबाज़ि‍यों में लग गये। अन्‍ना टीम टूट गयी। केजरीवालऔर उनके सहयोगी अब पार्टी बनाकर चुनाव की राह पकड़ चुके हैं। अन्‍ना अब रामदेव से टांका भिड़ा रहे हैं। मध्‍यवर्ग मायूस है। ''दूसरी आज़ादी की लड़ाई'' आधी राह भी तय न कर सकी। ''महाक्रान्ति'' के मंसूबे फुसफुसे पटाखे सिद्ध हुए।

पूंजीवादी व्‍यवस्‍था ने अपनी तीसरी सुरक्षा पंक्ति के रूप में इन नये सुधारवादी पैबन्‍दसाज़ों का इस्‍तेमाल किया और फिर जल्‍दी ही इन नायकों का नायकत्‍व खण्डित हो गया। बदलाव के मध्‍यवर्गीय हसीनसपने चकनाचूर हो गये।लेकिन इस निराशा ने भी व्‍यवस्‍था का ही हित साधा है। मध्‍यवर्ग की इस सोच को बल मिला कि जब कोई बदलाव मुमकिन नहीं तो इसी अत्‍याचारी-अनाचारी व्‍यवस्‍था में जीना हमारी नियति है।

केजरीवाल को संसद के सुअरबाड़े में लोट लगाने के लिए एक छोटा-सा कोना भी मिल पायेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। अन्‍ना और रामदेव व्‍यक्तिगत शुचिता-सदाचार-राष्‍ट्रभक्ति की जो गैरचुनावी राजनीति करेंगे, उसका स्‍पष्‍ट लाभ हिन्‍दुत्‍ववादी कट्टरपन्‍थी धारा को ही मिलेगा। इतिहास में नायकों की प्रतीक्षा की मानसिकता ने हमेशा फ़ासिस्‍ट तानाशाहों के आगमन की ज़मीन तैयार की है। मूल मुद्दों के बजाय प्रतीकवाद की राजनीति, देश की प्रगति, अतीत के गौरव, व्‍यक्तिगत सदाचार आदि सतही लोकरंजक बातें आगे सर्वसत्तावाद की राजनीति की ओर ही लेकर जाती हैं।



पूंजीवादी लूट और अत्‍याचार से त्रस्‍त भारत की 90 प्रतिशत मेहनतकश और निम्‍नमध्‍यवर्गीय आबादी को सुधार की पैबन्‍दसाज़ी करने वाले नौटंकी के नायकों की नहीं, बल्कि समूची सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्‍यवस्‍था को ध्‍वस्‍त करके नया ढांचा बनाने वाली क्रांतिकारी हरावल शक्ति की ज़रूरत है। इसके लिए युवाओं को क्रान्ति का सन्‍देश मेहनतकशों के घर-घर तक पहुंचाना होगा। फांसी की कालकोठरी से क़ौम के नाम भेजे गये अपने अन्तिम सन्‍देश में भगतसिंह ने यही कहा था। आखिर इस पर हम कब अमल करेंगे।

पूंजीवादी आर्थिक शोषण की बुनियाद को बदले बिना राजनीतिक-सामाजिक ऊपरी ढांचे में यदि कोई बदलाव हो भी जाये तो उस पैबन्‍दसाज़ी से जनता की ज़ि‍न्‍दगी में कोई फ़र्क नहीं आयेगा। पूंजीवाद में सरकारें पूंजीपतियों की 'मैनेजिंग कमेटी' होती हैं। लुटेरों के नौकर सदाचारी हो ही नहीं सकते। ठेका, कमीशनख़ोरी, टैक्‍सचोरी और अपने ही बनाये क़ानूनों के उल्‍लंघन के बिना पूंजीवाद चल ही नहीं सकता। ''सदाचारी पूंजीवाद'' एक मिथक है। यदि पूंजीवाद भ्रष्‍टाचारमुक्‍त हो और क़ानूनी ढंग से काम करे,तब भी वह मज़दूरों की हड्डियां निचोड़ता रहेगा। पूंजीवाद में सफ़ेद धन के साथ काला धन और क़ानूनी लूट के साथ ग़ैर-क़ानूनी लूट मौजूद ही रहेगी। सोचने की बात है कि देश के जाने-माने पूंजीपति, उच्‍च मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवी और पूंजीपतियों के स्‍वामित्‍व वाला मीडिया अण्‍णा और रामदेव का बढ़चढ़कर समर्थन क्‍यों कर रहे थे। साम्राज्‍यवादी धन से चलने वाले एन.जी.ओ. इनका समर्थन क्‍यों कर रहे थे? नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर, उत्तर-पूर्व और जम्‍मू-कश्‍मीर से लेकर छत्तीसगढ़ में जारी सैनिक दमन पर तथा देश के मज़दूरों की स्थिति पर अण्‍णा-रामदेव चुप क्‍यों रहते हैं?

हमारा लक्ष्‍य ''भ्रष्‍टाचार मुक्‍त पूंजीवाद'' नहीं बल्कि पूंजीवादी शोषणमुक्‍त समाज है। यही एकमात्र विकल्‍प है। पूंजीवाद इतिहास की अंतिम मंजिल नहीं है। एक ऐसी व्‍यवस्‍था के लिए संघर्ष ही एकमात्र रास्‍ता है जिसमें उत्‍पादन, राजकाज और समाज के ढांचे पर उत्‍पादन करनेवाले काबिज़ हों, फ़ैसले की ताक़त वास्‍तव में उनके हाथों में हो।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ, 

जागरूक नागरिक मंच, स्‍त्री मुक्ति लीग, दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा

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