Saturday, December 31, 2011

महान रूसी लेखक दोब्रोल्‍युबोव (1836-1861) की दो टिप्‍पणियाँ

कलाकार का धर्म

यदि कोई कलाकृति किसी विचार या मत विशेष को व्यक्त करती है तो इसलिए नहीं कि उसका रचयिता उस मत विशेष को अपनी कृति में प्रतिपादित करने का बीड़ा उठाता है, वरन इसलिए कि वास्तविक जीवन के जिन तथ्यों की ओर उसका ध्यान गया, उन तथ्यों से, अनिवार्यतः, वह मत प्रकट होता है। उदाहरण के लिए, यूनानियों के धार्मिक सिद्धान्तों को लीजिए। सुकरात का दर्शन और अरिस्तोफेन के प्रहसन उसी एक सामान्य विचार को व्यक्त करते हैं - अर्थात प्राचीन विश्वासों के खोखलेपन को व्यक्त करते हैं। किन्तु इसका आशय यह नहीं कि अरिस्तोफेन ने इस लक्ष्य को सामने रखकर अपने प्रहसनों की रचना की। अपने समय के यूनानी नैतिक जीवन का जो चित्र वह खींचता है, उससे स्वयं, अपने-आप, बरबस, यह निष्कर्ष निकलता है। इतना ही नहीं, उसके प्रहसनों से यह भी असंदिग्ध रूप से प्रकट हो जाता है कि जिस काल में उसने अपने प्रहसनों की रचना की थी, उस काल में यूनानी देवकथाओं का प्राधान्य खत्म हो चुका था, अर्थात वह उसी निष्कर्ष पर हमें पहुंचाता है जिसे सुकरात और प्लेटो ने अपने दर्शन में सिद्ध किया था। यही, सामान्यतः, काव्य-कृतियों और सैद्धान्तिक ग्रन्थों में विचार को प्रकट करने के उनके ढंग में, अन्तर है। यह भेद कलाकार के सोचने का जो ढंग है उसके और विचारक के सोचने का जो ढंग होता है, उसके भेद को व्यक्त करता है। कलाकार के सोचने का ढंग ठोस होता है: वह घटनाओं और छवियों को कभी नजरन्दाज नहीं करता। विचारक हर चीज का सामान्यीकरण करता है, विशिष्ट लक्षणों को सामान्य स्थापना में लय कर देता है। किन्तु सच्चे ज्ञान और सच्चे काव्य में कोई आधारभूत अन्तर नहीं हो सकता। प्रतिभा मानवीय प्रकृति का एक गुण है। परिणामतः, जिसकी प्रतिभा को हम स्वीकार करते हैं, उसकी प्रकृत आशा-आकांक्षाओं और प्रयासों को कमोबेश मात्रा में सशक्त तथा प्रशस्त होना ही चाहिये। इसलिए यह आवश्यक है कि उसकी कृतियां प्रकृति की इन स्वाभाविक तथा सच्ची आवश्यकताओं के अनुकूल हों, समाज की भावी व्यवस्था के बारे में लेखक की चेतना सुस्पष्ट और सजीव हो, सरल तथा संगत आदर्शों का वह हामी हो, वह झूठ की चाकरी के पास न फटके (इसलिए नहीं कि उसका मन नहीं चाहता, बल्कि इसलिए कि वह ऐसा कर नहीं सकता), अपनी प्रतिभा का उल्लंघन करने का फितूर उसके दिमाग में सवार न हो। वह इसमें सफल भी नहीं हो सकता -- बालम की भांति जो इसरायल को श्राप देना चाहता था, लेकिन वरदान ही उसके मुंह से निकलता था; अनुप्राणित प्रतिभा के सामने उसकी इच्छा को हार माननी पड़ती है। और यदि वह कभी श्राप को उच्चारण करने में सफल हो भी जाता है, तो उसमें वह आन्तरिक लगाव न होगा। वह क्षीण और उखड़ा हुआ-सा प्रकट होता है। उदाहरणों के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं स्वयं हमारा साहित्य इनसे भरा पड़ा है -- सम्भवतः, अन्य सबसे अधिक। पुश्किन और गोगोल को ही लीजिए। सरकारी फरमान पर लिखी गयी पुश्किन की कविताएं कितनी बेजान और ठस मालूम होती हैं। इसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में गोगोल के संन्यासवादी प्रयत्न कितने हीन मालूम होते हैं। उनमें शुभाशाओं की कमी नहीं, किन्तु उनकी परकटी कल्पना और पंगु भावों में इतनी क्षमता नहीं कि फरमाइश के अनुसार कृत्रित विषय-वस्तु को लेकर सच्चे अर्थों में काव्यात्मक कृतियों की रचना कर सकें। और इसमें आश्चर्य की बात नहीं। वास्तविकता, जिससे कवि अपनी सामग्री और प्रेरणा लेता है, अपना एक प्रकृत अर्थ रखती है। उस अर्थ के विकृत हो जाने पर पदार्थ का जीवन भी नष्ट हो जाता है। केवल उसका निर्जीव कंकाल मात्र बच रहता है। इस निर्जीव कंकाल के सिवा उस लेखक के हाथ और कुछ नहीं लग सकता जो जीवन की परिणतियों को उनके प्रकृत अर्थ से सम्बद्ध नहीं करता, वरन एक ऐसा अर्थ उन पर आरोपित करता है जो उनके तत्व के विरुद्ध होता है।

आलोचक और कलाकार

कलाकार का लगाव सूक्ष्म विचारों और सामान्य सिद्धान्तों से नहीं होता। उसका लगाव होता है जीवित छवियों से, जिनमें विचार अपना मूर्त रूप धारण करते हैं। इन छवियों में कलाकार, अनजाने और अलक्षित रूप में, बहुत पहले ही उनके अर्थ को पकड़ने और व्यक्त करने में कृतकार्य हो जाता है। कभी-कभी ऐसा होता कि स्वयं कलाकार भी उनका अर्थ नहीं जानता। आलोचक का काम ठीक यहीं से शुरू होता है: वह कलाकार द्वारा अंकित छवियों में निहित अर्थ को स्पष्ट करता है। हां, कवि द्वारा प्रस्तुत छवियों का विश्लेषण करते समय आलोचक को उसके सैद्धान्तिक विचारों की जांच करने का कोई अधिकार नहीं होता। मृत आत्माएं (गोगोल) के प्रथम खण्ड में ऐसे अंशों का अभाव नहीं है जिनकी आत्मा पत्रावली की आत्मा से बहुत कुछ मिलती है। किन्तु इस कारण मृत आत्माएं को उनके सामान्य अर्थ से, जो गोगोल के सैद्धान्तिक विचारों को प्रबलता के साथ खंडन करता है, वंचित नहीं किया जा सकता। बेलिंस्की ने, अपनी आलोचनाओं के दौरान में, उस समय तक गोगोल के विचारों को नहीं छुआ जब तक कि कलाकार के रूप में गोगोल की आलोचना करते रहे। उन्होंने केवल तभी गोगोल पर आक्रमण किया जब वह नीति के उपदेशक का चोला धारण करते हैं, और पाठकों के सम्मुख सजीव कहानी लेकर नहीं, वरन उपदेशक विचारों की पोथी लेकर प्रस्तुत होते हैं।

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