Friday, October 28, 2011

मानव का सहज-साधारण गुण

जिन आशा-आकांक्षाओं और कामनाओं को प्राय: हमारी कहानियों के नायकों से सम्‍बद्ध किया जाता है, उनमें सच पूछिये तो ऐसा कुछ भी नहीं होता जिसे मानव का सहज-साधारण, प्रकृत, गुण न कहा जा सके। किन्‍तु इन्‍हें नायकों से सम्‍बद्ध किया जाता है उन्‍हें साधारण लोगों से ऊपर उठाने के लिए। निस्‍संग और सहज भाव से देखने पर पता चलेगा कि स्‍वयं को बन्‍धनों से मुक्‍त करने की कामना और स्‍वतंत्रता के लिए उत्‍साह मानव की प्रकृति से वैसे ही अविच्‍ि‍छन्‍न रूप से सम्‍बद्ध है जैसे कि खाने-पीने और प्रेम करने की भावना। एक समय था जब लोगों को भांति-भांति के प्राणायामी चमत्‍कारों से चकित किया जा सकता था। वे लोग जो सप्‍ताहों तक कुछ नहीं खाते थे और केवल पानी पर रहते थे, अपनी तमाम प्रकृत आवश्‍यकताओं का दमन करते थे। वे लोगों को चकित करने में सफल हो जाते थे और उन्‍हें नैतिक नायक मानकर लोग उनकी पूजा करते थे। किन्‍तु आज ऐसे गुणों अथवा चमत्‍कारों का हम वैसे ही कोई आदर नहीं करते जैसे कि उस मनुष्‍य का जो अपने-आपको किसी भी स्‍त्री से प्रेम करने की क्षमता से वंचित कर लेता है, अथवा अपनी इच्‍छा को इस हद तक कुचल डालता है कि निरा मिट्टी का माधो बनकर रह जाये।

-निकोलाई अलेक्‍ज़ान्‍द्रोविच दोब्रोल्‍युबोव
(1836-1861)

1 comment:

  1. दरअसल, मानव अपनी प्रकृति के तमाम बंधनों से मुक्त और स्वतंत्र है। इसलिए खुद
    को बंधनों से मुक्त करने की कामना और स्वतंत्रता के लिए उत्साह बिल्कुल
    स्वाभाविक है। यों भी, धर्म की तरह बंधन या गुलामी थोपी गई व्यवस्थाएं हैं, और
    इसकी साजिशों की जद में खाने-पीने और प्रेम करने तक पर नियंत्रण करने की कोशिश
    शामिल रही है।
    नियंत्रण की इसी व्यवस्था के निर्माण के लिए मनुष्य के सहज-साधारण प्रकृत
    गुणों को नायकों के विशिष्ट गुण के रूप में प्रचारित किया जाता है। इसमें मकसद
    जितना नायकों को ऊपर उठाना होता है, उससे ज्यादा यह कि इसके जरिए शेष लोगों को
    साधारण, बल्कि यों कहें कि कमतर होने के हीन मनोविज्ञान में जीने के लिए बाध्य
    किया जा सके, ताकि उन पर शासन की स्थितियां अनुकूल हों। चमत्कारों से चकित
    करना इसी क्रम का एक "औजार" रहा है।
    चमत्कारों से चकित करने वाले नायकों ने कभी अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं का दमन
    किया होगा, इसमें संदेह है। लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर यह दिखा जरूर...। दिखावे
    का ही सही, लेकिन दमन के महिमामंडन से उपजी इस "प्रेरणा" ने जिस तरह नैतिकता
    का मनोविज्ञान रचा, उसमें प्राकृतिक आवश्यकताओं का त्याग, बल्कि कहें कि दमन,
    ही नैतिक होने की कसौटी बन गया।
    बचपन से ही इच्छाओं की हत्या करने की शिक्षा एक ऐसी ताकतवर प्रक्रिया साबित
    हुई, जिसमें स्त्री या पुरुष से प्रेम करने को अनैतिक होने के पर्याय के रूप
    में स्थापित किया जाता है। इच्छाओं को कुचल कर मिट्टी का माधो बनने वालों को
    यह अंदाजा भी कहां हो पाता कि चलते-फिरते देह से जीवन कितना दूर जा चुका है...!

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