Saturday, April 23, 2011

कविता शिनाख्‍़त करती है!

धरती चाक की तरह घूमती है।
ज़ि‍न्‍दगी को प्‍याले की तरह
गढ़ता है समय।
धूप में सुखाता है।
दुख को पीते हैं हम
चुपचाप।
शोरगुल में मौज-मस्‍ती का जाम।
प्‍याला छलकता है।
कुछ दुख और कुछ सुख
आत्‍मा का सफेद मेजपोश
भिगो देते हैं।
कल समय धो डालेगा
सूखे हुए धब्‍बों को।
कुछ हल्‍के निशान
फिर भी बचे रहेंगे ।
स्‍मृतियां
अदभुत ढंग से
हमें आने वाली दुनिया तक
लेकर जायेंगी।
सबकुछ दुहराया जायेगा फिर से
पर
हूबहू
वैसे ही नहीं।

-शशि प्रकाश 

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