Tuesday, March 15, 2011

सत्‍ताधारियों के बेशर्म-बेहया तर्क और गंदे-अश्‍लील मजाक


मँहगाई बढ़ने के पीछे मनमोहन सिंह जो कारण बताते हैं, वे देश की ग़रीब-बदहाल जनता को बेशर्म-बेहया तर्क लगते हैं। तरक्‍की दिखलाने के लिए जो ऑकड़ों की बाजीगरी की जाती है, वह आम लोगों को गंदे-अश्‍लील मजाक से अधिक कुछ भी नहीं लगता।
अपना सारा अर्थशास्‍त्रीय ज्ञान उड़ेल कर ऑकड़ों की बाजीगरी करते हुए प्रधानमंत्री महोदय फरमाते हैं कि मॅहगाई बढ़ने का एक कारण यह है कि आय बढ़ने के कारण ग़रीब ज्‍यादा खरीद और खा रहे हैं, मॉग बढ़ने से आपूर्ति पर दबाव बढ़ गया है और फलत: क़ीमतें बढ़ गयी हैं। लेकिन दुनिया के दर्जनों अग्रणी अर्थशास्त्रियों का कहना है कि चूंकि कृषि उत्‍पादकता और पूंजी निर्माण के मामले में उद्योग से हमेशा पीछे रहता है, अत: पूंजीवाद (जिसमें उत्‍पादन मुनाफे के लिए किया जाता है) के अंतर्गत यदि राजकीय सब्सिडी न दी जाये और खुला बाजारीकरण कर दिया जाये तो खाने-पीने की चीज़ों की कीमतें लाजिमी तौर पर बढ़ जायेंगी। विश्‍व स्‍तर पर और देश स्‍तर पर खाद्य पदार्थों की मॅहगाई और कृषि के संकट का बुनियादी कारण निजीकरण-उदारीकरण की नीतियॉ हैं। इन्‍हीं नीतियों के चलते सरकार पेट्रोलियम से भी सब्सिडी खतम कर रही है, जो खाद्य पदार्थों की मॅहगाई का एक और कारण है। इस मॅहगाई का एक और कारण जमाखोरी, स्‍पेक्‍युलेशन और वायदा कारोबार है। यह भी पूंजीवादी बाजा़र के मैकेनिज्‍़म  के साथ गुथा-बुना है।
गोदामों में सालाना लाखों टन अनाज़ सड़ जाता है, पर प्रधानमंत्री उसे ग़रीबों में बाटने से मना कर देते हैं क्‍योंकि इससे कीमतें नीचे आ जायेंगी और मुनाफे के लिए पैदा करने वाले भूस्‍वामी और बेचकर कमीशन कमाने वाले व्‍यापारी इसके लिए कत्‍तई तैयार नहीं होंगे। पूंजीपतियों-भूस्‍वामियों की सब्सिडी-सहायता तो अनेक रूपों में जारी रहती है, सारा बोझ ग़रीब मेहनतक़श उपभोक्‍त्‍ताओं पर ही पड़ता है।
अब ज़रा आमदनी बढ़ने की सच्‍चाई पर भी ग़ौर करें। पिछले पॉच वर्षों के दौरान असंगठित श्रमिकों की पगार या दिहाड़ी में कोई बढ़ोत्‍तरी नहीं हुई है। अर्जुन सेन गुप्‍त आयोग ने बताया था कि देश की 77 फीसदी आबादी 20 रुपये रोज से कम पर गुजारा करती है। आज भी वही स्थिति है। पिछले 20 वर्षों के दौरान, रुपये की कीमत की घटोत्‍तरी को ध्‍यान में रखें, तो व्‍यापक आम मेहनतक़श आबादी की वास्‍तविक आय घटी है, उसकी क्रयशक्त्ति कम हुई है, दरिद्रीकरण की प्रक्रिया तेज़ हुई है और आबादी में बेरोजगारों-अर्द्धबेरोजगारों का प्रतिशत हिस्‍सा बढ़ने से परिवारों पर बोझ बढ़ा है। भूख-कुपोषण-बुनियादी सेवाओं तक का अभाव – सब यथावत मौजूद हैं। ऑकड़ों को जाने दें और अपने आस-पास देखें, तब भी पता चल जायेगा कि प्रधानमंत्री का तर्क कितना बेशर्मी भरा है!
केन्‍द्रीय सांख्यिकी संगठन  ने बताया है कि पिछले साल की तुलना में प्रति व्‍यक्ति सालाना आमदनी 17 फीसदी बढ़कर 54,527 रुपये हो गयी है। तमाम अर्थशास्‍त्री इन ऑकड़ों की निरर्थकता बताते रहे हैं। 50 करोड़ भूखे-कुपोषित लोगों, कुछ हजार अरबपतियों, कुछ लाख करोड़पतियों और कुछ करोड़ लखपतियों की आय का औसत निकालने से भला क्‍या पता चलेगा? भारतीय की औसत आय इसलिए बढ़ी है क्‍योंकि सबसे ऊपर की 15 करोड़ आबादी की आय बढ़ी है। ''उदारीकरण के स्‍वर्ग'' मे वही जी रहा है। नीचे की 1 अरब 5 करोड़ आबादी में से 85 करोड़ तो नर्क के अंधेरे में रहते हैं, शेष 20 करोड़ बस खींचतान कर अपनी ज़रूरतें पूरी करते हैं। धनी-ग़रीब की खाई भयंकर रफतार से बढ़ रही है। यह जन विद्रोह के विस्‍फोट की ज़मीन तैयार कर रही है।        



1 comment:

  1. Govt. should fix the MRP for the edibles and should have pass the amedment against the hyding the goods and in this way can control inflassion in the edibles.

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