विगत 7 फरवरी को दिल्ली हाईकार्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी.शाह ने 'हाउसिंग एण्ड लैण्ड राइट्स नेटवर्क' की एक रिपोर्ट का विमोचन किया। रिपोर्ट के अनुसार, कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए दिल्ली से जिन दो लाख से अधिक लोगों को उजाड़ दिया गया, उनके लिए कोई भी वैकल्पिक इंतजाम नहीं किया गया।
लोगों को बेदखल किये जाने के दौरान मानवाधिकारों की कोई परवाह नहीं की गयी। उजाड़ने से पहले कोई नोटिस नहीं दी गयी। उस समय बच्चों की परीक्षाएं भी चल रही थीं। पुलिसिया ज़ोर-जबरदस्ती के साथ तोड़-फोड़ के दौरान तीन लोगों की मौत हो गयी और दर्ज़नों घायल हो गये। बेदख़ली के बाद की दुर्दशा झेलते हुए 18 लोगों के मौत की पुष्ट जानकारी मिली है। विडम्बना यह है कि ज्यादातर झुग्गी-झोपड़ियों को पार्किग, सौन्दर्यीकरण और सुरक्षा के नाम पर तोड़ा गया, पर वे जगहें आज ख़ाली पड़ी हैं।
राजधानी के अख़बार और सफेदपोश खाये-अघाये-मुटियाये लोग खेलों के सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हो जाने पर खुश थे। उन्हें गुस्सा केवल इस बात पर था कि घनघोर भ्रष्टाचार के कारण ''राष्ट्रीय गौरव'' की चमक फीकी पड़ गयी। उन्हें दो लाख से अधिक बेघर लोगों से कुछ लेना देना नहीं था। श्रीलंका में तीस वर्षों तक चले गृहयुद्ध के दौरान कुल दो करोड़ आबादी में से तीन लाख लोगों का आंतरिक विस्थापन हुआ। कॉमनवेल्थ गेम्स ने दिल्ली की एक करोड़ तीस लाख आबादी में से करीब ढाई लाख को उजाड़ दिया। यह राजधानी के ग़रीबों के विरुद्ध सरकार द्वारा छेड़े गये गृहयुद्ध जैसा ही था। पूंजीवादी लुटेरों की प्रबंध समिति (सरकार) परम भ्रष्ट तो है ही, चरम आततायी भी है। समृद्धि के स्वर्ग में जीने वाले अभिजन समाज को राजधानी के या पूरे देश के, ग़रीबों के हश्र से कुछ भी लेना-देना नहीं। लेकिन मिश्र और ट्यूनीशिया के जनज्वारों से उन्हें नसीहत लेनी चाहिए। अत्याचारों के ख़िलाफ़ जब बग़ावत की आग भड़कती है तो वह भयंकर होती है, दुर्दमनीय होती है।
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