जिस देश में 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपये रोज़ से भी कम पर गुज़ारा करती हो, जहां 63 प्रतिशत बच्चे प्राय: भूखे सोते हों और 60प्रतिशत कुपोषण के शिकार हों, जहां 75 प्रतिशत मांओं को पोषणयुक्त भोजन नहीं मिलता, जहां 18 करोड़ लोग बेघर हों और 18 करोड़ झुग्गियों-झोपड़ियों में रहते हों, उस देश के 60 प्रतिशत संसद-सदस्य यदि करोड़पति हों, तो इससे अधिक घिनौनी और बेशर्म बात भला और क्या हो सकती है?
2006 के स्विस बैंकिंग एसोसियेशन के आंकड़े के हिसाब से स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राशि 1,456 अरब डालर थी। यह धनराशि भारत के सकल घरेलू उत्पाद से भी अधिक है तथा भारत के विदेशी मुद्रा भण्डार से पांच गुना अधिक है। स्विट्जरलैण्ड के अतिरिक्त 40 और ऐसे देश हैं जहां भारतीयों का काला धन जमा है। जितना काला धन बाहर जमा है, उतना ही देश के भीतर बेनामी सम्पत्तियों, नकदी और गहने-जवाहरात के रूप में मौजूद है।
काले धन की यह अर्थव्यवस्था सफ़ेद धन की अर्थव्यवस्था की ही सगी बहन है। वैध लूट के साथ अवैध लूट का होना लाजि़मी है। भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी पूंजीवादी व्यवस्था मे होगी ही। नेता और अफसर पूंजीपतियों के ही चाकर-प्रबंधक होते हैं। लुटेरों के नौकर भला सदाचारी और नैतिक क्यों होंगे?
जिस देश में 80 प्रतिशत लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतें नहीं पूरी कर पाते, वहां केन्द्र और राज्य के मंत्रियों, एम- पी, एम-एल-ए आदि पर सरकारी खजाने से खरबों रुपये खर्च होते हैं। नौरशाही पर भी इतना ही खर्च होता है। संसद की एक दिन की कार्रवाई पर 6 करोड़ 35 लाख रुपये खर्च होते हैं। नेताओं की सुरक्षा पर अलग से खरबों रुपये खर्च होते हैं। इसके बाद रही-सही कोर-कसर सालाना खरबों के घोटाले पूरा कर देते हैं।
पूंजीपति वर्ग के प्रबंधकों की इस कमाई और खर्चे से अनुमान लगाया जा सकता है कि मजदूरों की हड्डियां निचोड़कर पूंजीपति सालाना कितना अकूत मुनाफा कमाते हैं।
यह है भारतीय जनतंत्र की असलियत। वस्तुत: यह धनतंत्र है और 'गन'तंत्र है! इस लूटमार भरी दुनिया में अपनी निजी तरक्की और शान्ति का सपना यदि कोई आम आदमी का बेटा देखता है तो वह लॉटरी खेलने वाला जुआरी ही हो सकता है। योग्यता के बूते तरक्की एक भ्रम है, क्योंकि आम आदमी का बेटा योग्य बनने के अवसर खरीद ही नहीं सकता। पेट काटकर जो शिक्षा के अवसर पा भी लेते हैं वे नौकरी की दौड़ में पिछड़ जाते हैं और जो नौकरी पा जाते हैं वे अपवाद होते हैं। नौकरी में भी वही टिक सकता है जो ,'कुत्ता खाये कुत्ता' संस्कृति को अपना ले, ऊपर के भ्रष्टाचारियों का एजेंट और दलाल बन जाए।
यदि आप स्वाभिमानी हैं, संवेदनशील हैं और न्यायप्रिय हैं तो इस व्यवस्था में चैन से जीने की कोई गुंजाइश नहीं है। स्वाभिमान से जीने का एकमात्र रास्ता है इस ढांचे के खि़लाफ विद्रोह करना। समाज चाहे जितनी कठिनाई और जितनी देर से बदले, अन्याय के विरुद्ध लड़ते हुए जीना ही जीने का मानवीय ढंग है।
और इतिहास बताता है कि वक्ती तौर के ठहराव-उलटाव के बावजूद दुनिया को आगे जाना ही है। पूंजीवाद न तो अमर है न ही मानव इतिहास की अन्तिम अवस्था!
2006 के स्विस बैंकिंग एसोसियेशन के आंकड़े के हिसाब से स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राशि 1,456 अरब डालर थी। यह धनराशि भारत के सकल घरेलू उत्पाद से भी अधिक है तथा भारत के विदेशी मुद्रा भण्डार से पांच गुना अधिक है। स्विट्जरलैण्ड के अतिरिक्त 40 और ऐसे देश हैं जहां भारतीयों का काला धन जमा है। जितना काला धन बाहर जमा है, उतना ही देश के भीतर बेनामी सम्पत्तियों, नकदी और गहने-जवाहरात के रूप में मौजूद है।
काले धन की यह अर्थव्यवस्था सफ़ेद धन की अर्थव्यवस्था की ही सगी बहन है। वैध लूट के साथ अवैध लूट का होना लाजि़मी है। भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी पूंजीवादी व्यवस्था मे होगी ही। नेता और अफसर पूंजीपतियों के ही चाकर-प्रबंधक होते हैं। लुटेरों के नौकर भला सदाचारी और नैतिक क्यों होंगे?
जिस देश में 80 प्रतिशत लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतें नहीं पूरी कर पाते, वहां केन्द्र और राज्य के मंत्रियों, एम- पी, एम-एल-ए आदि पर सरकारी खजाने से खरबों रुपये खर्च होते हैं। नौरशाही पर भी इतना ही खर्च होता है। संसद की एक दिन की कार्रवाई पर 6 करोड़ 35 लाख रुपये खर्च होते हैं। नेताओं की सुरक्षा पर अलग से खरबों रुपये खर्च होते हैं। इसके बाद रही-सही कोर-कसर सालाना खरबों के घोटाले पूरा कर देते हैं।
पूंजीपति वर्ग के प्रबंधकों की इस कमाई और खर्चे से अनुमान लगाया जा सकता है कि मजदूरों की हड्डियां निचोड़कर पूंजीपति सालाना कितना अकूत मुनाफा कमाते हैं।
यह है भारतीय जनतंत्र की असलियत। वस्तुत: यह धनतंत्र है और 'गन'तंत्र है! इस लूटमार भरी दुनिया में अपनी निजी तरक्की और शान्ति का सपना यदि कोई आम आदमी का बेटा देखता है तो वह लॉटरी खेलने वाला जुआरी ही हो सकता है। योग्यता के बूते तरक्की एक भ्रम है, क्योंकि आम आदमी का बेटा योग्य बनने के अवसर खरीद ही नहीं सकता। पेट काटकर जो शिक्षा के अवसर पा भी लेते हैं वे नौकरी की दौड़ में पिछड़ जाते हैं और जो नौकरी पा जाते हैं वे अपवाद होते हैं। नौकरी में भी वही टिक सकता है जो ,'कुत्ता खाये कुत्ता' संस्कृति को अपना ले, ऊपर के भ्रष्टाचारियों का एजेंट और दलाल बन जाए।
यदि आप स्वाभिमानी हैं, संवेदनशील हैं और न्यायप्रिय हैं तो इस व्यवस्था में चैन से जीने की कोई गुंजाइश नहीं है। स्वाभिमान से जीने का एकमात्र रास्ता है इस ढांचे के खि़लाफ विद्रोह करना। समाज चाहे जितनी कठिनाई और जितनी देर से बदले, अन्याय के विरुद्ध लड़ते हुए जीना ही जीने का मानवीय ढंग है।
और इतिहास बताता है कि वक्ती तौर के ठहराव-उलटाव के बावजूद दुनिया को आगे जाना ही है। पूंजीवाद न तो अमर है न ही मानव इतिहास की अन्तिम अवस्था!
यदि आप स्वाभिमानी हैं, संवेदनशील हैं और न्यायप्रिय हैं तो इस व्यवस्था में चैन से जीने की कोई गुंजाइश नहीं है। स्वाभिमान से जीने का एकमात्र रास्ता है इस ढांचे के खि़लाफ विद्रोह करना। समाज चाहे जितनी कठिनाई और जितनी देर से बदले, अन्याय के विरुद्ध लड़ते हुए जीना ही जीने का मानवीय ढंग है।
ReplyDelete