Thursday, January 06, 2011

मुक्तिकामी जमातों में स्‍त्री की जगह





एक स्‍त्री अपनी मुक्ति की कोशिश में बाहर निकलती है और सामाजिक मुक्ति के महाउद्यम में लगे लोगों में शामिल हो जाती है।

ऐसा करके, उसे आंशिक राहत ही मिल पाती है क्‍योंकि पूरा समाज उसके साथ वही व्‍यवहार करता है, जो सभी स्त्रियों के साथ करता है।

यही नहीं, अपने जेनुइन मुक्तिकामी साथियों के बीच भी उसे अनेक सूक्ष्‍म (और कभी-कभी स्‍थूल भी) स्‍तरों पर जेण्‍डर-आधारित भेदभाव और पुरुष वर्चस्‍ववाद का सामना करना पड़ता है। कम्‍युनिस्‍ट क्रांतिकारियों के बीच स्‍त्री-पुरुष के बीच भेदभाव न होने की धारणा एक आदर्शवादी धारणा है। वस्‍तुत: वहां भी जेण्‍डर के प्रश्‍न पर सतत् सांस्‍कृतिक क्रांति की प्रक्रिया चलाने की दरकार होती है। अन्‍यथा स्‍त्री-पुरुष सम्‍बन्‍धों के परम्‍परागत रूप क्रांतिकारी संगठनों पर भी हावी हो जाते हैं और कभी-कभी विकृत विचलन भी देखने को मिलते हैं।

क्रांतिकारियों के भीतर भी प्राय: ''घरेलू'', ''स्त्रियोचित'', श्रमसाध्‍य काम स्‍त्री साथियों के जिम्‍मे पड़ जाते हैं। इन कामों में पुरुष साथियों की पहलकदमी अक्‍सर कम होती है और अक्‍सर उनकी भागीदारी रस्‍मी या प्रतीकात्‍मक या मजबूरी भरी होती है। इसतरह परिवार का ढांचा पार्टी के ढांचे में घुसपैठ कर जाता है और विकृति पैदा कर देता है। पुरुष साथी स्‍त्री साथियों की आलोचना से कई गुना अधिक आहत होते हैं और बदला निकालने के अवसर ढूंढते रहते हैं। कई पुरुष साथियों के व्‍यवहार से यह साफ लगता है कि आम तौर पर स्त्रियों को वे कमअक्‍ल समझते हैं। ये न तो आश्‍चर्य की बातें हैं, न ही छिपाने की। क्रांतिकारियों के समूह इसी समाज से आते हैं और नित्‍यप्रति इसी समाज में काम करते हैं। उनमें अतीत के अवशेष होते हैं और रोज़मर्रे का सामाजिक परिवेश उन्‍हें भी प्रभावित करता है। पुरुष स्‍वामित्‍ववाद से बाहर ही नहीं, भीतर भी सतत् संघर्ष चलाना अनिवार्य है। ऐसा नहीं होने पर, कभी-कभी भयंकर दुष्‍परिणाम भी सामने आ सकते हैं।

1 comment: