Wednesday, December 29, 2010

हमारे विश्‍वास के स्रोत




दुनिया न रूकी रहेगी, न ही पीछे जायेगी। ठहराव और उलटाव के दौर भी समाज विकास के नियमों के अनुसार ही आते रहते हैं। सामाजिक  क्रान्ति की कोशिशें जूआ या लॉटरी नहीं है। समाज विकास के सुनिश्‍िचत नियमहैं। सामाजिक बदलाव में सचेतनता की भूमिका के भी सुनिश्‍िचत नियम हैं।

हमारा समाज प्रकृति का ही अंग और विस्‍तार है।  प्रकृति की गति के सुनिश्‍िचत नियम हैं। सभी मूलभूत कणों की गति के सुनिश्‍िचत नियम हैं। सभी खगोलीय पिण्‍डों की गति के सुनिश्‍िचत नियम हैं। ब्रहमाण्‍ड  के जन्‍म की प्रक्रिया और आयु तक का वैज्ञानिक अध्‍ययन करते हैं। यदि सबकुछ अनिश्‍िचत होता तो भौतिकी और समाज विज्ञान के अध्‍ययन व शोध का कोई मतलब नहीं रह जाता। निश्‍िचतता और अनिश्‍िचतता के द्वंद्व का भी सुनिश्‍िचत नियम होता है जिसे हम सूक्ष्‍म से सूक्ष्‍मतर और व्‍यापक से व्‍यापकतर धरातल पर जानते-समझते चलते हैं।

यदि प्रकृति की गति के सुनिश्‍िचत नियम हैं तो समाज की गति के भी सुनिश्‍िचत नियम होंगे ही। द्वंद्वात्‍मक भौतिकवाद गति का आम सिद्धान्‍त है। समाजेतिहास पर इसका अमल ही ऐतिहासिक भौतिकवाद है। द्वंद्वात्‍मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद निरपेक्ष अटल ज्ञान नहीं होता। यह सर्वहारा क्रान्ति का विज्ञान है जो उत्‍पादन-विनिमय के तौर-तरीकों और सांस्‍कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक अधिरचना का अध्‍ययन-विश्‍लेषण करते हुए स्‍वयं भी विकसित होता रहता है। प्रकृति विज्ञान  में जो प्रगति होती रहती है, उसके चलते भी द्वंद्वात्‍मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद विकसित होता रहता है। 

अत: मार्क्‍सवाद का अध्‍ययन जड़ धार्मिक मत की तरह नही, बल्कि एक सतत विकासमान विज्ञान के रूप में किया जाना चाहिए। यह हमारे सामाजिक-राजनीतिक अध्‍ययन और व्‍यवहार का मार्गदर्शक होता है और साथ ही, सामाजिक-आर्थिक बदलावों के अध्‍ययन तथा राजनीतिक-सामाजिक व्‍यवहार की प्रक्रिया में स्‍वयं भी विकसित होता चलता है।

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