गुरु ने कहा, पहली भिक्षा अन्न की लाना
गांव नगर के पास न जाना
लायी मैं
कटिया के बाद झरे हुए
दानों को खेतों से मांगकर।
गौरेया बनकर
दिन-दिन भर चुनती रही
गुरु की भूख मिटायी।
गुरु ने कहा, दूसरी भिक्षा जल की लाना
कुआं-बावड़ी पास न जाना।
स्वाति नक्षत्र में
बादलों से गिरी बूंदें
पीती रही सीपी बन
संजोती रही।
उसमें भीतर का नमक घुलता रहा।
सारा खारापन उलीचती रही
लगातार
आत्मा से बाहर।
कामना की सारी मिठास संजोकर
गुरु की प्यास बुझायी।
गुरु ने कहा, तीसरी भिक्षा नींद की लाना
सुख-आराम के पास न जाना
मखमल के गद्दे-सी
बिछ गयी।
कोहरे के फाहों से
तकिया बनाया,
आसमान का चंदोवा
ताना,
पलकों से पंखा झलती रही
गुरु को तुष्ट किया।
गुरु ने कहा, चौथी भिक्षा में सेवा लाना
तर्क-प्रश्न के पास न जाना
आँख-कान मूंद कर
सोचना भी छोड़कर
सेवा जो की गुरु की तो ऐसी की
तीनों लोकों के स्वामियों के
सिंहासन हिल उठे।
देवों के हृदय में ईर्ष्याग्नि धधक उठी
गुरु को खुश किया।
तब फिर गुरु ने कहा, अंतिम भिक्षा प्रेम की लाना
हृदय चीर कर उसे दिखाना।
हे ईश्वर! यह कैसा अनर्थ?
क्या छिपा न रह सकेगा
यह मेरा एकमात्र रहस्य?
गुरुवर! यह जो मैंने
आपकी भूख-प्यास मिटायी,
सुख-आराम की नींद दी,
तन-मन से सेवा की,
यही तो है एक स्त्री का प्रेम एकनिष्ठ।
गुरु लेकिन ताड़ चुके थे
मेरा स्वांग,
सदियों से छिपा रखी थी
आखिरी उम्मीद
और अपना अंतिम अमोघ अस्त्र भी,
उसे छीनने के लिए
गुरु झपटे।
मुझे दबोच कर तेज चाकू से
उन्होंने मेरी छाती चीर दी।
पर जड़ीभूत हो गए वे
परम् आश्चर्य से,
वहां मेरा हृदय न पाकर।
क्या थी वह सेवा,
वह निष्ठा, वह लगन,
वह श्रृद्धा
आखिर क्या थी?
त्रियाचरित्र नहीं जान सके गुरु,
स्त्री को नहीं पहचान सके।
प्रेम का स्वांग तो ताड़ गये
पर प्रेम न पा सके गुरु।
तड़पते रहे लगातार उसे पाने को।
दीक्षा तो अधूरी रही मेरी
लेकिन प्रतिशोध पूरा हुआ।
तपस्या व्यर्थ हुई मेरी
पर गुरु की भी।
मुक्त नहीं हो सकी मैं
पर गुरु भी
संदेह की आग और प्यार की प्यास में
जलते रहे, भुनते रहे
पकते रहे, सिकती रहे
धुआंते रहे, झुलसते रहे
और
उनकी आत्मा राख होती रही
और
तमाम सारी तरक्कियों के बावजूद,
दुनिया
बद से बदतर होती रही।
-- कात्यायनी
गांव नगर के पास न जाना
लायी मैं
कटिया के बाद झरे हुए
दानों को खेतों से मांगकर।
गौरेया बनकर
दिन-दिन भर चुनती रही
गुरु की भूख मिटायी।
गुरु ने कहा, दूसरी भिक्षा जल की लाना
कुआं-बावड़ी पास न जाना।
स्वाति नक्षत्र में
बादलों से गिरी बूंदें
पीती रही सीपी बन
संजोती रही।
उसमें भीतर का नमक घुलता रहा।
सारा खारापन उलीचती रही
लगातार
आत्मा से बाहर।
कामना की सारी मिठास संजोकर
गुरु की प्यास बुझायी।
गुरु ने कहा, तीसरी भिक्षा नींद की लाना
सुख-आराम के पास न जाना
मखमल के गद्दे-सी
बिछ गयी।
कोहरे के फाहों से
तकिया बनाया,
आसमान का चंदोवा
ताना,
पलकों से पंखा झलती रही
गुरु को तुष्ट किया।
गुरु ने कहा, चौथी भिक्षा में सेवा लाना
तर्क-प्रश्न के पास न जाना
आँख-कान मूंद कर
सोचना भी छोड़कर
सेवा जो की गुरु की तो ऐसी की
तीनों लोकों के स्वामियों के
सिंहासन हिल उठे।
देवों के हृदय में ईर्ष्याग्नि धधक उठी
गुरु को खुश किया।
तब फिर गुरु ने कहा, अंतिम भिक्षा प्रेम की लाना
हृदय चीर कर उसे दिखाना।
हे ईश्वर! यह कैसा अनर्थ?
क्या छिपा न रह सकेगा
यह मेरा एकमात्र रहस्य?
गुरुवर! यह जो मैंने
आपकी भूख-प्यास मिटायी,
सुख-आराम की नींद दी,
तन-मन से सेवा की,
यही तो है एक स्त्री का प्रेम एकनिष्ठ।
गुरु लेकिन ताड़ चुके थे
मेरा स्वांग,
सदियों से छिपा रखी थी
आखिरी उम्मीद
और अपना अंतिम अमोघ अस्त्र भी,
उसे छीनने के लिए
गुरु झपटे।
मुझे दबोच कर तेज चाकू से
उन्होंने मेरी छाती चीर दी।
पर जड़ीभूत हो गए वे
परम् आश्चर्य से,
वहां मेरा हृदय न पाकर।
क्या थी वह सेवा,
वह निष्ठा, वह लगन,
वह श्रृद्धा
आखिर क्या थी?
त्रियाचरित्र नहीं जान सके गुरु,
स्त्री को नहीं पहचान सके।
प्रेम का स्वांग तो ताड़ गये
पर प्रेम न पा सके गुरु।
तड़पते रहे लगातार उसे पाने को।
दीक्षा तो अधूरी रही मेरी
लेकिन प्रतिशोध पूरा हुआ।
तपस्या व्यर्थ हुई मेरी
पर गुरु की भी।
मुक्त नहीं हो सकी मैं
पर गुरु भी
संदेह की आग और प्यार की प्यास में
जलते रहे, भुनते रहे
पकते रहे, सिकती रहे
धुआंते रहे, झुलसते रहे
और
उनकी आत्मा राख होती रही
और
तमाम सारी तरक्कियों के बावजूद,
दुनिया
बद से बदतर होती रही।
-- कात्यायनी
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